राज्य की मुहर - ओशो कथा-सागर |
"आत्म-एक्य के बिना, जीवन के साथ एक हुए बिना, जीवन के प्राण को, जीवन की आत्मा को भी नहीं जाना जा सकता। " - ओशो |
कोई डेढ़ हजार वर्ष पहले चीन के सम्राट ने सारे राज्य के चित्रकारों को खबर की कि वह राज्य की मुहर बनाना चाहता है। मुहर पर एक बांग देता हुआ, बोलता हुआ मुर्गा, उसका चित्र बनाना चाहता है। जो चित्रकार सबसे जीवंत चित्र बनाकर ला सकेगा, वह पुरस्कृत भी होगा, राज्य का कलागुरु भी नियुक्त हो जायेगा। और बड़े पुरस्कार की घोषणा की गयी। देश के दूर-दूर कोनों से श्रेष्ठतम चित्रकार बोलते हुए मुर्गे के चित्र बनाकर राजधानी में उपस्थित हुए। लेकिन कौन तय करेगा कि कौन-सा चित्र सुन्दर है। हजारों चित्र आये थे। राजधानी में एक बूढ़ा कलाकार था। सम्राट ने उसे बुलाया कि वह चुनाव करे, कौन-सा चित्र श्रेष्ठतम बना है। वही राज्य की मुहर पर जायेगा। उस चित्रकार ने उन हजारों चित्रों को एक बड़े भवन में बंद कर लिया और स्वयं भी उस भवन के भीतर बंद हो गया! सांझ होते-होते उसने खबर दी कि एक भी चित्र ठीक नहीं बना है! सभी चित्र गड़बड़ हैं! एक से एक सुन्दर चित्र आये थे। सम्राट स्वयं देखकर दंग रह गया था। लेकिन उस बूढे़ चित्रकार ने कहा, कोई भी चित्र योग्य नहीं है! राजा हैरान हुआ। उसने कहा, ‘तुम्हारे मापदंड क्या हैं, तुमने किस भांति जांचा कि चित्र ठीक नहीं हैं।’ उसने कहा, मापदंड एक ही हो सकता था और वह यह कि मैं चित्रों के पास एक जिंदा मुर्गे को ले गया और उस मुर्गे ने उन चित्रों के मुर्गों को पहचाना भी नहीं, फिक्र भी नहीं की, चिंता भी नहीं की! अगर वे मुर्गे जीवंत होते चित्रों में तो वह मुर्गा घबराता या बांग देता, या भागता, लड़ने को तैयार हो जाता! लेकिन उसने बिलकुल उपेक्षा की, उसने चित्रों की तरफ देखा भी नहीं! बस एक ही क्राइटेरियन, एक ही मापदंड हो सकता था। वह मैंने प्रयोग किया। कोई भी चित्र मुर्गे स्वीकार नहीं करते हैं कि चित्र मुर्गों के हैं। सम्राट ने कहा, यह तो बड़ी मुसीबत हो गयी। यह मैंने सोचा भी नहीं था कि मुर्गों की परीक्षा करवायी जायेगी चित्रों की! लेकिन उस बूढे़ कलागुरु ने कहा कि मुर्गों के सिवाय कौन पहचान सकता है कि चित्र मुर्गे का है या नहीं? [ads-post] राजा ने कहा, ‘फिर अब तुम्हीं चित्र बनाओ।’ उस बूढ़े ने कहा, ‘बड़ी कठिन बात है। इस बुढ़ापे में मुर्गे का चित्र बनाना बहुत कठिन बात है।’ सम्राट ने कहा, ‘तुम इतने बड़े कलाकार, एक मुर्गे का चित्र नहीं बना सकोगे?’ उस बूढ़े ने कहा, ‘मुर्गे का चित्र तो बहुत जल्दी बन जाये, लेकिन मुझे मुर्गा होना पड़ेगा। उसके पहले चित्र बनाना बहुत कठिन है।’ राजा ने कहा, ‘कुछ भी करो।’ उस बूढ़े ने कहा, ‘कम से कम तीन वर्ष लग जायें, पता नहीं मैं जीवित बचूं या न बचूं।’ उसे तीन वर्ष के लिए राजधानी की तरफ से व्यवस्था कर दी गयी और वह बूढ़ा जंगल में चला गया। छह महीने बाद राजा ने लोगों को भेजा कि पता लगाओ, उस पागल का क्या हुआ? वह क्या कर रहा है? लोग गये। वह बूढ़ा जंगली मुर्गों के पास बैठा हुआ था! एक वर्ष बीत गया। फिर लोग भेजे गये। पहली बार जब लोग गये थे, तब तो उस बूढ़े चित्रकार ने उन्हें पहचान भी लिया था कि वे उसके मित्र हैं और राजधानी से आये हैं। जब दोबारा वे लोग गये तो वह बूढ़ा करीब-करीब मुर्गा हो चुका था। उसने फिक्र भी नहीं की और उनकी तरफ देखा भी नहीं, वह मुर्गों के पास ही बैठा रहा! दो वर्ष बीत गये। तीन वर्ष पूरे हो गये। राजा ने लोग भेजे कि अब उस चित्रकार को बुला लाओ, चित्र बन गया हो तो। जब वे गये तो उन्होंने देखा कि वह बूढ़ा तो एक मुर्गा हो चुका है, वह मुर्गे जैसी आवाज कर रहा है, वह मुर्गों के बीच बैठा हुआ है, मुर्गे उसके आसपास बैठे हुए हैं। वे उस बूढ़े को उठाकर लाये। राजधानी में पहुंचा, दरबार में पहुंचा। राजा ने कहा, ‘चित्र कहां है?’ उसने मुर्गे की आवाज की! राजा ने कहा, ‘पागल, मुझे मुर्गा नहीं चाहिए, मुझे मुर्गे का चित्र चाहिए। तुम मुर्गे होकर आ गये हो। चित्र कहां है?’ उस बूढ़े ने कहा, ‘चित्र तो अभी बन जायेगा। सामान बुला लें, मैं चित्र बना दूं।’ और उसने घड़ी भर में चित्र बना दिया। और जब मुर्गे कमरे के भीतर लाये गये तो उस चित्र को देखकर मुर्गे डर गये और कमरे के बाहर भागे। राजा ने कहा, ‘क्या जादू किया है इस चित्र में तुमने?’ उस बूढ़े ने कहा, ‘पहले मुझे मुर्गा हो जाना जरूरी था, तभी मैं मुर्गे को निर्मित कर सकता था। मुझे मुर्गे को भीतर से जानना पड़ा कि वह क्या होता है। और जब तक मैं आत्मसात न हो जांऊ, मुर्गे के साथ एक न हो जांऊ तब तक कैसे जान सकता हूं कि मुर्गा भीतर से क्या है, उसकी आत्मा क्या है?’ आत्म-एक्य के बिना, जीवन के साथ एक हुए बिना, जीवन के प्राण को, जीवन की आत्मा को भी नहीं जाना जा सकता। जीवन का प्राण ही प्रभु है। वही सत्य है। जीवन के साथ एक हुए बिना कोई रास्ता नहीं है कि कोई जीवन को जान सके।
-ओशो
नेति-नेति प्रवचन नं. 4 से संकलित
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