आज हमारे देश को स्वत्रंता प्राप्त किये लगभग 68 वर्ष पूर्ण हो चुके है जब कभी भी मुझे एकांत में अपने समाज के प्रति सहानुभूति उत्पन्न होती है तो मैं गहन चिंतन के गहन सागर में डूब जाता हूँ जिसके साथ मेरे हृदय में वर्तमान समाज कि स्थिति को लेकर काफी पीड़ा होने का साथ-साथ कुछ लोगों की दिनचर्या पर हंसी आनी भी स्वाभिक है। आज का मानव इतना स्वार्थी व खुदगर्ज होता जा रहा है कि उसका बुद्धि विवेक मानो कहीं जंगल में घास चरने गया हो। उसको नीति या अनीति पूर्ण कार्य, जिनकों हमारा समाज या हमारी र्अन्तआत्मा अस्वीकार कर देती है मात्र क्षणिक लालच के लिए कोई भी अकृत्य करने के लिए उतारू हो जाता है।
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मानव आपनी सभ्यता संस्कृति को भूल कर पाश्चात्य सभ्यता को अधिक महत्व देना उचित समझता है मानो यह सभ्यता उनके बाप-दादा ने उन्हें विरासत में दी हो। भले ही हम पूर्ण रूप से स्वतंत्र है पंरतु ऐसा नहीं है कहीं ना कहीं आज भी वैचारिक रूप से ब्रिटीस सरकार के गुलाम है और यह तब तक संभव नहीं है जब तक हम अपने जीवन में राष्ट्र के प्रति पूर्ण भक्ति व समपर्ण की भावना को उद्भव नहीं कर लेते। यदि हमें अपने समाज की निर्मल व सरल बनाना है तो हमें पाश्चात्य सभ्यता का पूर्ण रूप से किसी गंगा जी के तट पर तृपण करना होगा। कभी-कभी तो मेरे अन्त: हृदय में इतनी आत्मगिलानी सी महसूस होती है कि मैं अपने आप को धिक्कारने से इंकार नहीं कर पाता और गहन चिंतन में समा जाता हूँ कि हमारे देश में युगों-युगों से ऐसा तो नहीं था वर्तमान में तो आये दिन हालात बद से बद्दतर होते जा रहे है। स्त्री और पुरूष समाज रूपी सिक्के के दो पहेलू समझे तो गलत नहीं होगा यदि हम अपने गत वर्षों के 60 के दशक पर अपनी दूर दृष्टि डाले तो मेरे अनुमान से बहु बेटियां, माताएं जो 56 गज के परिधान को धारण करना पंसद करती थी किंतु अब तो स्थिति विपरित दिशा में प्रवाहित होती नजर आती है। आधुनिक स्त्री तो परिधान को सीमित सीमा से भी निम्र धारण करना पंसद करती है। मुख्य कारण यहीं तो है जिसकी वजह से आये दिन आधुनिक स्त्रीयों से दुरव्वहार की घटनाएं होती रहती है।
सिक्के के दूसरे पहलू पुरूष वर्ग की बात करें तो वह भी
पाश्चात्य सभ्यता की मैराथन दौड़ में अपने आप को वरिष्ठ पूंजीपति घोषित करने में
पीछे नहीं है। उसे चाहे इस कार्य के लिए कोई भी अनीति पूर्ण कर्म करना पड़े। वह
किसी भी हद से गुजरने को सदैव तत्पर रहते हंै। अमुख व्यक्ति के हृदय में भले विचार
भी क्यों न उठते हो?, पर पूंजीपति
की दौड़ में खुद की इस लालसा को प्रबल रखना चाहता है। मध्यम व दरिद्र व्यक्ति का
आज के समय में जीवन यापन करना बढ़ा टेड़ी खीर साबित हो रहा है। सरकारी कार्य कराने
के लिए दिन-प्रतिदिन कार्यालय के चक्कर लगाने पड़ते हंै या फिर घूस के लेन-देन का
सहारा लेना पड़ता है।
घूस का नजारा तो आप को आस पास के वातावरण में कहीं न कहीं
आम चौराहों पर देखने को आये दिन मिल ही जायेगा, घूस की वजह से जो काबिल व्यक्ति है वो अच्छे अंको से प्रतियोगिता परिक्षाओं
में पास होने के बावजूद भी बेरोजगारी का
शिकार होने के कारण किसी ढ़ाबे या रेस्त्रा, अन्य जगहों पर रिक्शा चलाते देखे जा सकते है। जो पूर्ण रूप से भ्रष्टाचार के
दंश को झेल रहे हंै। उपर्युक्त व्यक्ति आप को आपके आस-पास क्षेत्र में असंख्य मिल
जायेंगे। हमारे समाज में जो लूट या राहजनी
की घटनाएं सामान्य: बेरोजगारी के सताये लोग ही उसे अंजाम तक पहुंचते है। क्योंकि
वर्तमान समय में मंहगाई इतनी है कि अमुख कार्य से पर्याप्त धन अर्जित नहीं किया जा
सकता जिससे उनके बच्चों का भरण-पोषण अच्छे तरह से संचालित हो सकें।
हम यदि दूसरी तरफ समाज में कर्म
के भ्रष्टाचार पर चर्चा करें तो उसकी स्थिति भी राष्ट्र पटल पर बड़ी ही सोचनीय है।
देश में काफी असंख्य विभाग है व असंख्य कर्मचारी गण है। कुछ सरकारी मुलाजि़म इतने
ढीठ व निर्लज्ज, चिकने घड़े के मानिंद हंै, उनकी स्थिति ऐसी है जैसे किसी स्वान की पूंछ को एक बेलन
नल्लिका में 12 वर्ष तक सीधी स्थिति में
लाने के लिए स्थापित किया गया पर पूर्ण समय होने पर जब बड़ी उत्सुकता के साथ
निकाला गया तो परिणाम जीरो मिलता है। जो कार्यालय का निर्धारित समय है, उनका सदैव विलम्ब से पहुंचना व शीघ्रता से अपने घर की ओर
वापस प्रस्थान करना मानो उनकी एक आदत सी बन जाती है। वो वास्तव में अपने आप को इस
सदी का शेक चिल्ली समझ बैठते है और व्यवहार का तो पूछो ही मत। जनता से पेश आना तो
मानो जानते ही नहीं। वो भूल जाते है कि जिसके साथ शिष्टाचार से पेश आना चाहिये
उन्हीं की सेवा के लिए सरकारी पद पर तैनात है और जनता के मुलाजि़म हैं, उनकी संकीर्ण बुद्धि में यह बात नहीं आती की यदि कबूतर समझे
कि मैं अपनी आंखे बंद कर लेता हूँ और बिल्ली मुझे कुछ नहीं करेगी ऐसा उनका सोचना
उनकी बुद्धि लब्धि जीरो होने का संकेत देता है। वो कहीं ना कहीं अपने आप को व अपनी
आने वाली पीढिय़ों को धोखा दे रहे हैं। जिसमें वे अपना ही अहित कर बैठते है।
यदि हम बात करें उपचारक या चिकित्सक की तो हमारे देश में
चिकित्सक को भगवान की संज्ञा दी जाती है पर आज के समाज में कुछ स्थानों पर निजी
चिकित्सालयों में चिकित्सक की स्थिति बड़ी भद्दी, जल्लाद पूर्ण हैं। वो किसी भी अमानवीय कर्म को करने के लिए किसी भी सीमा को
आसानी से लांघ सकते है। उनका उद्देश्य केवल अपनी तिजोरियों में असीमित धन की
बढ़़ोतरी करना है। उनके इस कुकृत्य से ऐसा महसूस होता मानों निजी चिकित्सालयों में मानवता कहीं कोने में
दुबक दीर्घ अश्रु धारा से रो रही हो। मरीज को भले ही मामूली सा ज्वर आया हो, अन्य कोई बीमारी जैसे पीलिया अथवा कोई भी मामूली श्रेणी की
बीमारी हो, जिसका मोटा शुल्क वसूला
जाता है। चिकित्सकों पर कोई फर्क नहीं पड़ता कि मरीज़ का स्वास्थ्य ठीक हुआ या
नहीं। यहीं कारण है कि सार्वजनिक चिकित्सालयों में रोगियों की भीड़ ठसा-ठस होती है
और वहां की स्थिति भी शौचनीय ही होती है
इस प्रकार की व्यवस्था आप को दिल्ली या आस पास के क्षेत्रों में प्राय:
देखने का मिल सकती है।
यदि वर्तमान समाज में राजनीति का विश्लेषण करें तो इस विषय पर चर्चा करना स्वाभिक सा हो जाता है।
महात्मा गांधी जी जिन्होंने राजनीति भी की तो एक महात्मा की
तरह उनके अनुसार राजनीति ऐसी होनी चाहिये जो धर्म पर आधारित हो जिसमें नि:स्वार्थ
भावना व धर्म नीति व सर्व हितैषी नीति की महक आये। तब ही हमारा राष्ट्र उन्नति की
ओर अग्रसर होगा।
परंतु यहां तो समाज में कुछ ओर ही हो रहा है। आज का लोगों की बुद्धि इतनी मलीन हो गई है कि
वो जनता को इस कदर से बेवकूफ बनाते है और हमारे देश की जनता भोली भाली अपना बुद्धि
विवेक खत्म कर भेड़ा चाल की मानिंद पीछ़े पीछ़े आंखे बंद कर चल देते है। अपने ही
किसी राजनीतिक स्वार्थ के कारण समाज में दंगे फसाद शुरू करा दिये जाते है जो बाद
में सांप्रदायिकता का रूप ले लेते है जिसमें भोली भाली जनता का काफी बड़ा
अहित होता है, और देश की आर्थिक स्थिति भी इसकी लपेट में आ जाती है।
शिक्षा के क्षेत्र में अनेक
शिक्षा शास्त्रियों ने शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए अनेक उत्साह पूर्वक भरसक
प्रयास किये। अनेक शिक्षा शास्त्रियों के मतानुसार बालक को विद्यालय का देवता व
शिक्षक खुद का पुजारी समझे तभी देश में अच्छी शिक्षा का संचार होगा जिससे हमारा
देश सुदृढ़़ व शिक्षित बनेगा।
अरे जनाब हमारे समाज में तो वर्तमान विद्यालयों में कुछ और
ही हो रहा है कुछ निम्र बुद्धि के छात्र व शिक्षक जो राजनीति को अपना भविष्य बनाना
चाहते है खुद ही भस्मासुर बन रहे हैं। भारत के टुकड़ो की बात कर रहे है हमारे शूर
वीर योद्धा जो हमारे देश की अंतिम रेखा पर भूधर मानिंद पराक्रमी योद्धा देश सेवा
के लिए अपने प्राणों की आहुति देश की अंखड़ता व एकता रूपी यज्ञ में देने से भी
तनिक भी विचलित नहीं होते।
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अरे मूर्ख प्राणियों , छोटी सोच रखने वाले भारती के कपूतो तुम उन्हीं उज्ज्वल व साफ छवि रखने वाले
शूरों वीरों पर लाच्छण लगाते हो जिनकी वजह से आज तुम खुली हवा में सांस ले रहे हो।
तुम्हें जरा भी शर्म नहीं आती, पहले अपने
गिरावान में झाकों।
अन्तत: लेखक के अन्र्तहृदय में तो समाजिक बुराइयों के दमन
के प्रति जो आग है वह अभी बुझी नहीं, मैं अपने विचारों को विराम देना चाहूंगा क्योंकि इस विषय पर दीर्घ चर्चा संभव
नहीं है अंत में अपने देश के उच्च सिंहासन पर आसीन माननीय मंत्रीयों से गुजारिश
करना चाहूंगा भ्रष्टाचार हमारें देश में एक ऐसा रोग है जो हमारे समाज को दीमक की
तरह खा रहा है और वर्तमान के समाज के वातावरण को प्रदूषित कर रहा है। यदि अत्यंत
गंभीर सामजिक समस्या पर दीर्घ वेग से जड़ से नहीं उखाड़ा गया तो कुछ आगामी वर्षों
में जो परिणाम हमारे समक्ष होंगे वो बड़े ही भयावह व अकल्पनीय होंगे।
यदि अति शीघ्र उपर्युक्त समस्याओं के निदान के लिए कोई पहल की जाती है तो हमारे विश्व गुरू कहे जाने
वाले राष्ट्र को सोने की चिडिय़ां बनने से दोबारा कोई नहीं रोक सकता।
लेखक की रचना की कुछ पंक्तियों जो इस लेख पर सटिक साबित
होती है।
पथिक के पद चले, पथ बड़े कठिन है
भ्रष्ट है गण यहां ईमानदारी
निम्र है।
धनाढ्य को माफ सभी दरिद्र को
दंड है।
समाज ही क्या सांस लेना भी कठिन
है।
लेखक
अंकेश
धीमान पुत्र श्री जयभगवान
बुढ़ाना, मुजफ्फरगनर उत्तर प्रदेश
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