राजपूत कैदी ~ लियो टोल्स्टोय की कहानियाँ ~ Leo Tolstoy Stories in Hindi

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राजपूत कैदी ~ लियो टोल्स्टोय की कहानियाँ ~ Leo Tolstoy Stories in Hindi

धर्मसिंह नामी राजपूत राजपूताना की सेना में एक अफसर था। एक दिन माता की पत्री आयी कि मैं बू़ी होती जाती हूं, मरने से पहले एक बार तुम्हें देखने की अभिलाषा है, यहां आकर मुझे विदा कर आशीवार्द लो और क्रियाकर्म करके आनंदपूर्वक नौकरी पर लौट जाना। तुम्हारे वास्ते मैंने एक कन्या खोज रखी है, वह बड़ी बुद्धिमती और धनवान है। यदि तुम्हें भाये तो उससे विवाह करके सुखपूर्वक घर ही पर रहना।

उसने सोचा—ठीक है, माता दिनोंदिन दुर्बल होती जा रही है, सम्भव है कि फिर मैं उसके दर्शन न कर सकूं। इस कारण चलना ही ठीक है। कन्या यदि सुंदर हुई तो विवाह करने में क्या हानि है। वह सेनापति से छुट्टी लेकर, साथियों से विदा हो, चलने को परस्तुत हो गया।

उस समय राजपूतों और मरहठों में युद्ध हो रहा था। रास्ते में सदैव भय रहता था। यदि कोई राजपूत अपना किला छोड़कर कुछ दूर बाहर निकल जाता था, तो मरहठे उसे पकड़कर कैद कर लेते थे। इस कारण यह परबन्ध किया गया था कि सप्ताह में दो बार सिपाहियों की एक कम्पनी मुसाफिरों को एक किले से दूसरे किले तक पहुंचा आया करती थी।

गरमी की रात थी। दिन निकलते ही किले के नीचे असबाब की गाड़ियां लादकर तैयार हो गईं। सिपाही बाहर आ गए और सबने सड़क की राह ली। धर्मसिंह घोड़े पर सवार हो, आगे चल रहा था। सोलह मील का सफर था, गाड़ियां धीरेधीरे चलती थीं। कभी सिपाही ठहर जाते थे, कभी गाड़ी का पहिया निकल जाता था तो कभी कोई घोड़ा अड़ जाता था।

दोपहर ल चुकी थी। रास्ता आधा भी नहीं कटा था। गरम रेत उड़ रही थी। धूप आग का काम कर रही थी। छाया कहीं नहीं थी। साफ मैदान था। सड़क पर न कोई वृक्ष, न झाड़ी। धर्मसिंह आगे था और कभीकभी इस कारण ठहर जाता था कि गाड़ियां आकर मिल जायं। मन में विचारने लगा कि आगे क्यों न चलूं। घोड़ा तेज है, यदि मरहठे धावा करेंगे, तो घोड़ा दौड़ा कर निकल जाऊंगा। यह सोच ही रहा था कि चरनसिंह बन्दूक हाथ में लिये उसके पास आया और बोला—आओ, आगे चलें। इस समय बड़ी गरमी है। भूख के मारे व्याकुल हो रहा हूं। सभी कपड़े पसीने में भीग रहे हैं। चरनसिंह भारीभरकम आदमी था। उसका मुंह लाल था।

धर्मसिंह—तुम्हारी बन्दूक भरी हुई है?

चरनसिंह—हां, भरी हुई है।

धर्मसिंह—अच्छा चलो, पर बिछुड़ न जाना।

यह दोनों चल दिए, बातें करते जाते थे, पर ध्यान दाएंबाएं था। साफ मैदान होने के कारण दृष्टि चारों ओर जा सकती थी। आगे चलकर सड़क दो पहाड़ियों के बीच से होकर निकलती थी।

धर्मसिंह—उस पहाड़ी पर च़कर चारों ओर देख लेना उचित है। ऐसा न हो कि अचानक महरठे कहीं से आकर हमें पकड़ लें।

चरनसिंह—अजी, चले भी चलो।

धर्मसिंह—नहीं, आप यहां ठहरिए, मैं जाकर देख आता हूं।

धर्मसिंह ने घोड़ा पहाड़ी की ओर फेर दिया। घोड़ा शिकारी था, उसे पक्षी की भांति ले उड़ा। वह अभी पहाड़ी की चोटी पर नहीं पहुंचा था कि सौ कदम आगे तीस मरहठे दिखाई पड़े। धर्मसिंह लौट पड़ा, परन्तु मरहठों ने उसे देख लिया और बन्दूकें संभालकर घोड़े दौड़ा, उस पर लपके। धर्मसिंह बेतहाशा नीचे उतरा और चरनसिंह को पुकारकर कहने लगा—बन्दूकें तैयार रखो और घोड़े से बोला—प्यारे, अब समय है। देखना, ठोकर न खाना नहीं तो झगड़ा समाप्त हो जायगा, एक बार बन्दूक ले लेने दे....फिर मैं किसी के बांधने का नहीं। उधर चरनसिंह मरहठों को देखकर घोड़े को चाबुक मार, ऐसा भागा कि गरदे में घोड़े की पूंछ ही पूंछ दिखाई दी, और कुछ नहीं।

धर्मसिंह ने देखा कि बचने की आशा नहीं है, खाली तलवार से क्या बनेगा, वह किले की ओर भाग निकला; परन्तु छह मरहठे उस पर टूट पड़े। धर्मसिंह का घोड़ा तेज था, पर उनके घोड़े उससे भी तेज थे। तिस पर यह बात हुई कि वे सामने से आ रहे थे। धर्मसिंह चाहता था कि घोड़े की बाग मोड़कर उसे दूसरे रास्ते पर डाल दे, परन्तु घोड़ा इतना तेज जा रहा था कि रुक नहीं सका। सीधा मरहठों से जा टकराया। सजे घोड़े पर सवार बन्दूक उठाए लाल दा़ी वाला एक मरहठा दांत निकालता हुआ उसकी ओर लपका। धर्मसिंह ने कहा कि मैं इन दुष्टों को भलीभांति जानता हूं। यदि वे मुझे जीता पकड़ लेंगे तो किसी कन्दरा में फेंककर कोड़े मारा करेंगे, इसलिए या तो आगे निकलो, नहीं तो तलवार से एकदो को ेर कर दो। मरना अच्छा है, कैद होना ठीक नहीं। धर्मसिंह और मरहठों में दस हाथ का ही अन्तर रह गया था कि पीछे से गोली चली। धर्मसिंह का घोड़ा घायल होकर गिरा और वह भी उसके साथ ही धरती पर आ रहा।

धर्मसिंह उठना चाहता था कि दो मरहठे आकर उसकी मुस्कें कसने लगे। धर्मसिंह ने धक्का देकर उन्हें दूर गिरा दिया, परन्तु दूसरों ने आकर बन्दूक के कुन्दों से उसे मारना शुरू किया और वह घायल होकर फिर पृथ्वी पर गिर पड़ा। मरहठों ने उसकी मुस्कें कस लीं, कपड़े फाड़ दिए, रुपयापैसा सब छीन लिया। धर्मसिंह ने देखा कि घोड़ा जहां गिरा था, वहीं पड़ा है। एक मरहठे ने पास जाकर जीन उतारनी चाही। घोड़े के सिर में एक छेद हो गया था। उसमें से काला रक्त बह रहा था। दो हाथ इधरउधर की धरती कीचड़ हो गई थी। घोड़ा चित्त पड़ा हवा में पैर पटक रहा था। मरहठे ने गले पर तलवार फेंक दी, घोड़ा मर गया। उसने जीन उतार ली।

लाल दा़ी वाला मरहठा घोड़े पर सवार हो गया। दूसरों ने धर्मसिंह को उसके पीछे बिठाकर उसे उसकी कमर से बांध दिया और जंगल का रास्ता लिया।

धर्मसिंह का बुरा हाल था। मस्तक फटा था, लहू बहकर आंखों पर जम गया था। मुस्कों के मारे कंधा फटा जाता था। वह हिल नहीं सकता था। उसका सिर बारबार मरहठे की पीठ से टकराता था। मरहठे पहाड़ियों पर ऊपरनीचे होते हुए एक नदी पर पहुंचे, उसे पार करके एक घाटी मिली। धर्मसिंह यह जानना चाहता था कि वे किधर जा रहे हैं। परन्तु उसके नेत्र बंद थे, वह कुछ न कुछ देख सका।

शाम होने लगी, मरहठे दूसरी नदी पार करके एक पथरीली पहाड़ी पर च़ गए। यहां धुआं और कुत्तों का भूंकना सुनायी दिया, मानो कोई बस्ती है। थोड़ी देर चलकर गांव आ गया। मरहठों ने गांव छोड़ दिया, धर्मसिंह को एक ओर धरती पर बिठा दिया। बालक आकर उस पर पत्थर फेंकने लगे। परन्तु एक मरहठे ने उन्हें वहां से भगा दिया। लाल दा़ी वाले ने एक सेवक को बुलाया, वह दुबलापतला आदमी फटा हुआ कुरता पहने था। मरहठे ने उससे कुछ कहा, वह जाकर बेड़ी उठा लाया। मरहठों ने धर्मसिंह की मुस्कें खोलकर उसके पांव में बेड़ी डाल दी और उसे कोठरी में कैद करके ताला लगा दिया।

2
उस रात धर्मसिंह जरा भी नहीं सोया। गरमी की ऋतु में रातें छोटी होती हैं, शीघर परातःकाल हो गया। दीवार में एक झरोखा था, उसी से अन्दर उजाला आ रहा था। झरोखे के द्वारा धर्मसिंह ने देखा कि पहाड़ी के नीचे एक सड़क उतरी है, दायीं ओर एक मरहठे का झोंपड़ा है। उसके सामने दो पेड़ हैं। द्वार पर एक काला कुत्ता बैठा हुआ है। पास एक बकरी और उसके बच्चे पूंछ हिलाते फिर रहे हैं। एक स्त्री चमकीले रंग की साड़ी पहने पानी की गागर सिर पर धरे हुए एक बालक की उंगली पकड़े झोंपड़े की ओर आ रही है। वह अन्दर गयी कि लाल दा़ी वाला मरहठा रेशमी कपड़े पहने, चांदी के मुट्ठे की तलवार लटकाए हुए बाहर आया और सेवक से कुछ बात करके चल दिया। फिर दो बालक घोड़ों को पानी पिलाकर लौटते हुए दिखाई पड़े। इतने में कुछ बालक कोठरी के निकट आकर झरोखे में टहनियां डालने लगे। प्यास के मारे धर्मसिंह का कंठ सूखा जाता था। उसने उन्हें पुकारा, परन्तु वे भाग गए।

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इतने में किसी ने कोठरी का ताला खोला। लाल दा़ी वाला मरहठा भीतर आया। उसके साथ एक नाटा पुरुष था। उसका सांवला रंग, निर्मल काले नेत्र, गोल कपोल, कतरी हुई महीन दा़ी थी। वह परसन्नमुख हंसोड़ था। यह पुरुष लाल दा़ी वाले मरहठे से बहुत बिया वस्त्र पहने हुए था, सुनहरी गोट लगी हुई नीले रंग की रेशमी अचकन थी। चांदी के म्यान वाली तलवार, कलाबत्तू का जूता था। लाल दा़ीवाला मरहठा कुछ बड़बड़ाता धर्मसिंह को कनखियों से देखता द्वार पर खड़ा रहा। सांवला पुरुष आकर धर्मसिंह के पास बैठ गया और आंखें मटकाकर जल्दीजल्दी अपनी मातृभाषा में कहने लगा—बड़ा अच्छा राजपूत है।

धर्मसिंह ने एक अक्षर भी न समझा—हां, पानी मांगा। सांवला पुरुष हंसा, तब धर्म ने होंठ और हाथों के संकेत से जताया कि मुझे प्यास लगी है। सांवले पुरुष ने पुकारा— सुशीला!

एक छोटीसी कन्या दौड़ती हुई भीतर आयी। तेरह वर्ष की अवस्था, सावंला रंग, दुबलीपतली, नेत्र काले और रसीले, सुन्दर बदन, नीली साड़ी, गले में स्वर्णहार पहने हुए। सांवले पुरुष की पुत्री मालूम पड़ती थी। पिता की आज्ञा पाकर वह पानी का एक लोटा ले आई और धर्मसिंह को भौंचक्की होकर देखने लगी कि वह कोई वनचर है।
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फिर खाली लोटा लेकर सुशीला ने ऐसी छलांग मारी कि सांवला पुरुष हंस पड़ा। तब पिता के कहने से कुछ रोटी ले आई। इसके पीछे वे सब बाहर चले गए और कोठरी का ताला बंद कर दिया।

कुछ देर पीछे एक सेवक आकर मराठी में कुछ कहने लगा। धर्म ने समझा कि कहीं चलने को कहता है। वह उसके पीछे हो लिया, बेड़ी के कारण लंगड़ाकर चलता था। बाहर आकर धर्म ने देखा कि दस घरों का एक गांव है। एक घर के सामने तीन लड़के तीन घोड़े पकड़े खड़े हैं। सांवला पुरुष बाहर आया और धर्म को भीतर आने को कहा। धर्म भीतर चला गया, देखो कि मकान स्वच्छ है, गोबरी फिरी हुई है, सामने की दीवार को आगे गद्दा बिछा हुआ है। तकिये लगे हुए हैं। दायीबायीं दीवारों पर परदे गिरे हुए हैं। उन पर चांदी के काम की बन्दूकें, पिस्तौलें और तलवारें लटकी हुई हैं। गद्दे पर पांच मरहठे बैठे हैं। एक सांवला पुरुष दूसरा लाल दा़ी वाला और तीन अतिथि—सब भोजन कर रहे हैं।

धर्मसिंह धरती पर बैठ गया। भोजन से निशिंचत होकर एक मरहठा बोला—देखो राजपूत, तुम्हें दयाराम ने पकड़ा है, (सांवले पुरुष की ओर उंगली करके) और सम्पतराव के हाथ बेच डाला है, अतएव अब सम्पतराव तुम्हारा स्वामी है।

धर्मसिंह कुछ न बोला। सम्पतराव हंसने लगा।

मरहठा—वह यह कहता है कि तुम घर से रुपये मंगवा लो, दण्ड दे देने पर तुमको छोड़ दिया जाएगा।

धर्मसिंह—कितने रुपये?

मरहठा—तीन हजार।

धर्मसिंह—मैं तीन हजार नहीं दे सकता।

मरहठा—कितना दे सकते हो?

धर्मसिंह—पांच सौ।

यह सुनकर मरहठे सिटपिटाए। सम्पतराव दयाराम से तकरार करने लगा और इतनी जल्दीजल्दी बोलने लगा कि उसके मुंह से झाग निकल आया। दयाराम ने आंखें नीची कर लीं थोड़ी देर में मरहठे शांत हुए और फिर मोलतोल करने लगे। एक मरहठे ने कहा—पांच सौ रुपये से काम नहीं चल सकता। दयाराम को सम्पतराव का रुपया देना है। पांच सौ रुपये में तो सम्पतराव ने तुम्हें मोल ही लिया है, तीन हजार से कम नहीं हो सकता। यदि रुपया न मंगाओगे तो तुम्हें कोड़े मारे जायेंगे।

धर्म ने सोचा कि जितना डरोगे, यह दुष्ट उतना ही डरायेंगे। वह खड़ा होकर बोला—इस भलेमानुस से कह दो कि यदि मुझे कोड़ों का भय दिखायेगा तो मैं घर वालों को कुछ नहीं लिखूंगा। मैं तुम चाण्डालों से नहीं डरता।

सम्पतराव—अच्छा, एक हजार मंगाओ।

धर्मसिंह—पांच सौ से एक कौड़ी ज्यादा नहीं। यदि तुम मुझे मार ड़ालोगे तो इस पांच सौ से भी हाथ धो बैठोगे।

यह सुनकर मरहठे आपस में सलाह करने लगे। इतने में एक सेवक एक मनुष्य को लिये हुए भीतर आया। यह मनुष्य मोटा था, नंगे पैर, बेड़ी पड़ी हुई। धर्मसिंह उसे देखकर चकित हो गया। वे पुरुष चरनसिंह था। सेवक ने चरनसिंह को धर्म के पास बैठा दिया। वे एकदूसरे से अपनी बिथा करने लगे। धर्मसिंह ने अपना वृत्तांत कह सुनाया। चरनसिंह बोला—मेरा घोड़ा अड़ गया, बन्दूक रंजक चाट गई और सम्पतराव ने मुझे पकड़ लिया।

सम्पतराव—(फिर) अब तुम दोनों एक ही स्वामी के वश में हो। जो पहले रुपया दे देगा, वही छोड़ दिया जाएगा। (धर्मसिंह की ओर देखकर) देखा, तुम कैसे क्रोधी हो और तुम्हारा साथी कैसा सुशील है। उसने पांच हजार रुपये भेजने को घर लिख दिया है, इस कारण उसका पालनपोषण भलीभांति किया जाएगा।

धर्मसिंह—मेरा साथी जो चाहे सो करे, वह धनवान है, और मैं तो पांच सौ रुपये से अधिक नहीं दे सकता, चाहे मारो, चाहे छोड़ो।

मरहठे चुप हो गए। सम्पतराव झट से कलमदान उठा लाया। कागज, कमल, दवात निकालकर धर्म की पीठ ठोंक, उसे लिखने को कहा। वह पांच सौ रुपये लेने पर राजी हो गया था।

धर्मसिंह—जरा ठहरो। देखो, हमारा पालनपोषण भलीभांति करना, हमें एक साथ रखना, जिससे हमारा समय अच्छी तरह कट जाए। बेड़ियां भी निकाल दो।

सम्पतराव—जैसा चाहे वैसा भोजन करो। बेड़ियां नहीं निकाल सकता। शायद तुम भाग जाओ। हां, रात को निकाल दिया करुंगा।

धर्मसिंह ने पत्र लिख दिया। परन्तु पता सब झूठ लिखा, क्योंकि मन में निश्चय कर चुका था कि कभी न कभी भाग जाऊंगा।

तब मरहठों ने चरनसिंह और धर्मसिंह को एक कोठरी में पहुंचाकर एक लोटा पानी, कुछ बाजरे की रोटियां देकर ऊपर से ताला बंद कर दिया।

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धर्मसिंह और चरनसिंह को इस परकार रहतेरहते एक महीना गुजर गया। सम्पतराव उनको देखकर सदैव हंसता रहता था, पर खाने को बाजरे की अधपकी रोटी के सिवाय और कुछ न देता था। चरनसिंह उदास रहता और कुछ न करता। दिनभर कोठरी में पड़ा सोया रहता और दिन गिनता रहता था कि रुपया कब आए कि छूटकर अपने घर पहुंचूं। धर्म तो जानता था कि रुपया कहां से आना है। जो कुछ घर भेजता था, माता उसी पर निवार्ह करती थी। वह बेचारी पांच सौ रुपये कैसे भेज सकती है। ईश्वर की दया होगी तो मैं भाग जाऊंगा। वह घात में लगा हुआ था। कभी सीटी बजाता हुआ गांव का चक्कर लगाता, कभी बैठकर मिट्टी के खिलौने और टोकरियां बनाता। वह हाथों का चतुर था।

एक दिन उसने एक गुड़िया बनाकर छत पर रख दी। गांव की स्त्रियां जब पानी भरने आयीं, तो सुशीला ने उनको बुलाकर गुड़िया दिखलायी। वे सब हंसने लगीं। धर्मसिंह ने गुड़िया सबके आगे कर दी, परन्तु किसी ने नहीं ली। वह उसे बाहर रखकर कोठरी में चला गया कि देखें क्या होता है। सुशीला गुड़िया उठाकर भाग गई।
अगले दिन धर्म ने देखा कि सुशीला द्वार पर बैठी गुड़िया के साथ खेल रही है। एक बुयि आयी। उसने गुड़िया छीनकर तोड़ डाली, सुशीला भाग गयी। धर्मसिंह ने और गुड़िया बनाकर सुशीला को दे दी। फल यह हुआ कि वह एक दिन छोटासा लोटा लायी, भूमि पर रखा और धर्म को दिखाकर भाग गई। धर्म ने देखा तो उसमें दूध था। अब सुशीला नित्य अच्छेअच्छे भोजन लाकर धर्म को देने लगी।

एक दिन आंधी आयी। एक घंटा मूसलाधार मेंह बरसा, नदियांनाले भर गए। बांध पर सातफुट पानी च़ आया। जहांतहां झरने झरने लगे, धार ऐसी परबल थी कि पत्थर लु़के जाते थे। गांव की गलियों में नदियां बहने लगीं। आंधी थम जाने पर धर्मसिंह ने सम्पतराव से चाकू मांगकर एक पहिया बना, उसके दोनों ओर दो गुड़िया बांधकर पहिए को पानी में छोड़ दिया, वह पानी के बल से चलने लगा। सारा गांव इकट्ठा हो गया और गुड़ियों को नाचते देखकर तालियां बजाने लगा। सम्पतराव के पास एक पुरानी बिगड़ी हुई घड़ी पड़ी थी। धर्मसिंह ने उसे ठीक कर दिया। उसके पीछे और लोग अपने घंटे, पिस्तौल, घड़ियां लालाकर धर्म से ठीक कराने लगे। इस कारण सम्पतराव ने परसन्न होकर धर्मसिंह को एक चिमटी, एक बरमी और एक रेती दे दी।

एक दिन एक मरहठा रोगी हो गया। सब लोग धर्मसिंह के पास आकर दवादारू मांगने लगे। धर्म कुछ वैद्य तो था ही नहीं, पर उसने पानी में रेता मिलाकर कुछ मन्त्रसा पॄकर कहा कि जाओ, यह पानी रोगी को पिला दो। पानी पिलाने पर रोगी चंगा हो गया। धर्म के भाग्य अच्छे थे। अब बहुत से मरहठे उसके मित्र बन गए। हां, कुछ लोग अब भी उस पर संदेह करते थे।

दयाराम धर्मसिंह से चिता था। जब उसे देखता, मुंह फेर लेता। पहाड़ी के नीचे एक और बू़ा रहता था। मंदिर में आने के समय धर्मसिंह उसे देखा करता था। यह बू़ा नाटा था। दा़ीमूंछ बर्फ की भांति श्वेत, मुंह लाला, उसमें झुर्रियां पड़ी हुईं, नाक नुकीली, नेत्र निर्दयी, दो दा़ों के सिवाय सब दांत टूटे हुए। वहीं लकड़ी टेकता, चारों ओर भेड़िए की तरह झांकता हुआ मंदिर में जाने के समय जब कभी धर्मसिंह को देख पाता था तो जलकर राख हो जाता और मुंह फेर लेता था।

एक दिन धर्मसिंह बू़े का घर देखने के लिए पहाड़ी के नीचे उतरा। कुछ दूर जाने पर एक बगीचा मिला। चारों ओर पत्थर की दीवार बनी हुई थी। बीच में मेवे के वृक्ष लगे हुए थे। वृक्षों में एक झोंपड़ा था। धर्मसिंह आगे ब़कर देखना चाहता था कि उसकी बेड़ी खड़की। बू़ा चौंका। कमर से पिस्तौल निकालकर उसने धर्मसिंह पर गोली चलाई, पर वह दीवार की ओट में हो गया। बू़े को आकर सम्पतराव से कहते सुना कि धर्मसिंह बड़ा दुष्ट है। सम्पतराव ने धर्म को बुलाकर पूछा—तुम बू़े के घर क्यों गये थे?

धर्मसिंह बोला—मैंने उसका कुछ नहीं बिगाड़ा। मैं केवल यह देखने लगा था कि वह बू़ा कहां रहता है। सम्पत ने बू़े को शांत करने का बहुत यत्न किया, पर वह बड़बड़ाता ही रहा। धर्मसिंह केवल इतना ही समझ सका कि बू़ा यह कह रहा है कि राजपूतों का गांव में रहना अच्छा नहीं, उन्हें मार देना चाहिए। बू़ा चल दिया, तो धर्मसिंह ने सम्पतराव से पूछा कि बू़ा कौन है?

सम्पतराव—यह बड़ा आदमी है, इसने बहुत राजपूत मारे हैं। पहले यह बड़ा धनाय था। इसके तीन स्त्रियां और आठ पुत्र थे। सब एक ही गांव में रहा करते थे। एक दिन राजपूतों ने धावा करके गांव जला दिया। इसके सात पुत्र तो मर गए, आठवां कैद हो गया। यह बू़ा राजपूतों के पास जाकर और उनके संग रहकर अपने पुत्र की खोज लगाने लगा। अन्त में उसे पाकर अपने हाथ से उसका वध करके भाग आया। फिर विरक्त होकर तीर्थयात्रा को चला गया। अब यह पहाड़ी के नीचे रहता है। यह बू़ा कहता था कि तुम्हें मार डालना उचित है; परंतु मैं तुमको मार नहीं सकता, फिर रुपया कहां से मिलेगा? इसके सिवाय मैं तुम्हें यहां से जाने भी न दूंगा।

इस तरह धर्म यहां एक महीना रहा। दिन को वह इधरउधर फिरा करता या कोई चीज़ बनाता, लेकिन रात को वह दीवार में छेद किया करता। दीवार पत्थर की थी, खोदना सहज नहीं था। लेकिन वह पत्थरों को रेती से काटता था। यहां तक कि अन्त में उसने अपने निकलने भर को एक छेद बना लिया। बस, अब उसे यह चिन्ता हुई कि रास्ता मालूम हो जाय।

एक दिन सम्पतराव शहर गया हुआ था। धर्मसिंह भोजन करके तीसरे पहर रास्ता देखने की इच्छा से सामने वाली पहाड़ी की ओर चल दिया। सम्पतराव बाहर जाते समय अपने पुत्र से सदैव कह जाया करता था कि धर्मसिंह को आंखों से परे न होने देना। इस कारण बालक उसके पीछे दौड़ा और चिल्लाकर कहने लगा—मत जाओ, मेरे पिता की आज्ञा नहीं है यदि तुम नहीं लौटोगे, तो मैं गांव वालों को बुला लूंगा।

धर्मसिंह बालक को फुसलाने लगा—मैं दूर नहीं जाता, केवल उस पहाड़ी पर जाने की इच्छा है। रोगियों के वास्ते मुझे एक बूटी की जरूरत है, तुम भी साथ चलो। बेड़ी के होते कैसे भागूंगा? असम्भव है। आओ, कल मैं तुमको तीरकमान बना दूंगा।

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बालक मान गया। पहाड़ी की चोटी कुछ दूर न थी। बेड़ी के कारण चलना कठिन था, परन्तु ज्योंत्यों करके धर्मसिंह चोटी पर पहुंचकर चारों ओर देखने लगा। दक्षिण दिशा में एक घाटी दिखायी दी। उसमें घोड़े चल रहे थे। घाटी के नीचे एक गांव था। उससे परे एक ऊंची पहाड़ी थी, फिर एक और पहाड़ी थी। इन पहाड़ियों के बीचोंबीच जंगल था, उससे परे पहाड़ थे, एक से एक ऊंचे। पूर्व और पश्चिम दिशा में भी ऐसी ही पहाड़ियां थीं। कन्दराओं में से जहांतहां गांवों का धुआं उठ रहा था। वास्तव में यह मरहठों का देश था। उत्तर की ओर देखा, तो पैरोंतले एक नदी बह रही है और वहीं गांव है, जिसमें वह रहा करता था। गांव के चारों ओर बगीचे लगे हुए थे और स्त्रियां नदी पर बैठी वस्त्र धो रही थीं, और ऐसी जान पड़ती थीं मानो गुड़िया बैठी हैं। गांव से परे एक पहाड़ी थी, परन्तु दक्षिण दिशा वाली पहाड़ी से नीची। उससे परे दो पहाड़ियां और थीं, उन पर घना जंगल था। इनके बीच में मैदान था। मैदान के पार बहुत दूर पर कुछ धुआंसा दिखाई दिया। अब धर्मसिंह को याद आया कि किले में रहते हुए सूर्य कहां से उदय होता और कहां अस्त हुआ करता था। उसे निश्चय हो गया कि धुएं का बादल हमारा किला है और उसी मैदान में से जाना होगा।

अंधेरा हो गया। मंदिर का घंटा बजने लगा। पशु घर लौट आये। धर्मसिंह भी अपनी कोठरी में आ गया। रात अंधेरी थी। उसने उसी रात भागने का विचार किया पर दुर्भाग्य से सन्ध्या समय मरहठे घर लौट आये। आज उसके साथ एक मुर्दा था। मालूम होता था कि कोई मरहठा युद्ध में मारा गया है।

मरहठे उस शव को स्नान कराकर श्वेत वस्त्र लपेट, अर्थि बना ‘राम नाम सत्त’ कहते हुए गांव से बाहर जाकर शमशानभूमि में दाह करके घर लौट आये। तीन दिन उपवास करने के बाद चौथे दिन बाहर चले गए। सम्पतराव घर ही में रहा। रात अंधेरी थी, शुक्ल पक्ष अभी लगा ही था।

धर्मसिंह ने सोचा कि रात को भागना ठीक है। चरनसिंह से कहा—भाई चरन सुरंग तैयार है। चलो, भाग चलें।

चरनसिंह—(भयभीत होकर) रास्ता तो जानते ही नहीं, भागेंगे कैसे?

धर्मसिंह—रास्ता मैं जानता हूं।

चरनसिंह—माना कि तुम रास्ता जानते हो, परन्तु एक रात में किले तक नहीं पहुंच सकते।

धर्मसिंह—यदि किले तक नहीं पहुंुच सकेंगे तो रास्ते में कहीं जंगल में छिपकर दिन काट लेंगे। देखो, मैंने भोजन का परबन्ध भी कर लिया है। यहां पड़ेपड़े सड़ने में क्या लाभ है? यदि घर में रुपया न आया तो क्या बनेगा? राजपूतों ने एक मरहठा मार डाला है। इस कारण यह सब बहुत बिगड़े हुए हैं। भागना ही उचित है।

चरनसिंह—अच्छा, चलो।

4
गांव में जब सन्नाटा हो गया, तो धर्मसिंह सुरंग से बाहर निकल आया। पर चरनसिंह के पैर से एक पत्थर गिर पड़ा। धमाका हुआ तो सम्पतराव का कुत्ता भूंका, लेकिन धर्मसिंह ने उसे पहले ही हिला लिया था, उसका शब्द सुनकर वह चुप हो गया।

रात अंधेरी थी। तारे निकले हुए थे। चारों ओर सन्नाटा था। घाटियां धुन्ध से ंकी हुई थीं। चलतेचलते रास्ते में किसी छत पर से एक बू़े के राम नाम जपने की आवाज सुनाई दी। दोनों दुबक गए। थोड़ी देर में फिर सन्नाटा छा गया, तब वे आगे ब़े।

धुन्ध बहुत छा गई। धर्मसिंह तारों की ओर देखकर राह चलने लगा। ठंड के कारण चलना सहज न था, धर्मसिंह कूदताफांदता चला जाता था, चरनसिंह पीछे रहने लगा।

चरनसिंह—भाई धर्म, जरा ठहरो, जूतों ने मेरे पैरों में छाले डाल दिए।

धर्मसिंह—जूते निकालकर फेंक दो, नंगे पैर चलो।

चरनसिंह ने जूते निकालकर फेंक दिए, पत्थरों ने उसके पांव घायल कर दिए। वह ठहरठहरकर चलने लगा।

धर्मसिंह—देखों चरन, पांव तो फिर चंगे हो जायेंगे, पर यदि मरहठों ने आ पकड़ा तो फिर समझ लो कि जान गई।

चरनसिंह चुप होकर पीछे चलने लगा। थोड़ी दूर जाने पर धर्मसिंह बोला—हाय, हाय, हम रास्ता भूल गए, हमें तो बायीं ओर की पहाड़ी पर च़ना चाहिए था।

चरनसिंह—ठहरो, दम जरा लेने दो। मेरे पैर घायल हो गए हैं। देखो, रक्त बह रहा है।

धर्मसिंह—कुछ चिन्ता नहीं, ये सब ठीक हो जायेंगे, तुम चले चलो।

वे लौटकर बायीं ओर की पहाड़ी पर च़ गए। आगे जंगल मिला। झाड़ियों ने उनके सब वस्त्र फाड़ डाले। इतने में कुछ आहट हुई, वे डर गए। समीप जाने पर मालूम हुआ कि बारहसिंगा भागा जा रहा है।

परातःकाल होने लगा। किला यहां से अभी सात मील पर था। मैदान में पहुंचकर चरनसिंह बैठ गया और बोला—मेरे पांव थक गए, मैं अब नहीं चल सकता।

धर्मसिंह—(क्रोध से) अच्छा तो रामराम, मैं अकेला ही चलता हूं।

चरनसिंह उठकर साथ हो लिया। तीन मील चलने पर अचानक सामने से घोड़े की टाप सुनाई दी। वे भागकर जंगल में घुस गए।

धर्मसिंह ने देखा कि घोड़े पर च़ा हुआ एक मरहठा जा रहा है। जब वह निकल गया तो धर्म बोला कि भगवान ने बड़ी दया की कि उसने हमें नहीं देखा। चरन भाई, अब चलो।

चरनसिंह—मैं नहीं चल सकता, मुझमें ताकत नहीं।

चरनसिंह मोटा आदमी था, ठंड के मारे उसके पैर अकड़ गए। धर्मसिंह उसे उठाने लगा, तो चरनसिंह ने चीख मारी।

धर्मसिंह—हैंहैं! यह क्या, मरहठा तो अभी पास ही जा रहा है, कहीं सुन न ले अच्छा, यदि तुम नहीं चल सकते हो, तो मेरी पीठ पर बैठ जाओ।

धर्मसिंह ने चरनसिंह को पीठ पर बिठलाकर किले की राह ली।

धर्मसिंह—भाई चरनसिंह, सीधी तरह बैठे रहो, गला क्यों घोंटते हो?

5
अब उधर की बात सुनिए। मरहठे ने चरनसिंह का शब्द सुन लिया। उसने गोली चलायी, परन्तु खाली गई। मरहठा दूसरे साथियों को लेने के लिए घोड़ा दौड़ाकर चल दिया।

धर्मसिंह—चरन, मालूम होता है कि उस दुष्ट ने तुम्हारी आवाज सुन ली। वह अपने साथियों को बुलाने गया है। यदि उसके आने से पहलेपहले हम दूर नहीं निकल जायेंगे, तो समझो कि जान गई। (मन में) यह बोझा मैंने क्यों उठाया, यदि मैं अकेला होता तो अब तक कभी का निकल गया होता।

चरनसिंह—तुम अकेले चले जाओ, मेरे कारण पराण क्यों खोते हो?

धर्मसिंह—कदापि नहीं, साथी को छोड़कर चल देना धर्म के विरुद्ध है।

धर्मसिंह फिर चरनसिंह को कन्धे पर लादकर चलने लगा। आधा मील चलने पर एक झरना मिला। धर्मसिंह बहुत थक गया था। चरनसिंह को कन्धे से उतारकर विश्राम करने लगा। पानी पीना ही चाहता था कि पीछे से घोड़ों की टापें सुनाई दीं। दोनों भागकर झाड़ियों में छिप गए।

मरहठे ठीक वहीं आकर ठहरे, जहां दोनों छिपे हुए थे। उन्होंने सूंघ लेने को कुत्ता छोड़ा। फिर क्या था, दोनों पकड़े गए। मरहठों ने दोनों को घोड़ो पर लाद लिया। राह में सम्पतराव मिल गया, अपने कैदियों को पहचाना। तुरन्त उन्हें अपने साथ वाले घोड़ों पर बैठाया और दिन निकलतेनिकलते वे सब गराम में पहुंच गए।

उसी समय बू़ा भी वहां आ गया। सब मरहठे विचार करने लगे कि क्या किया जाए। बू़े ने कहा कि कुछ मत करो, इन दोनों का तुरन्त वध कर दो।

सम्पतराव—मैंने तो उन पर रुपया लगाया है, मार कैसे डालूं?

बू़ा—राजपूतों को पालना पाप है। वे तुम्हें सिवाय दुःख के और कुछ न देंगे, मारकर झगड़ा समाप्त करो।

मरहठे इधरउधर चले गए। सम्पतराव धर्मसिंह के पास आया और बोला—देखो धर्मसिंह, पन्द्रह दिन के अन्दर यदि रुपया न आया, और तुमने फिर भागने का साहस किया, तो मैं तुम्हें अवश्य मार डालूंगा, इसमें सन्देह नहीं। अब शीघर घर वालों को पत्र लिख डालो कि तुरन्त रुपया भेज दें।

दोनों ने पत्र लिख दिए। फिर वे पहले की भांति कैद कर दिए गए, परन्तु कोठरी में नहीं, अब की बार छः हाथ चौड़े गड्ढे में बंद किए गए।

6

अब उन्हें अत्यन्त कष्ट दिया जाने लगा। न बाहर जा पाते थे, न बेड़ियां निकाली जाती थीं। कुत्तों के समान अधपकी रोटी, एक लोटे में पानी पहुंचा दिया जाता था, और कुछ नहीं। ग़ा सीला था, उसमें अंधेरा और अति दुगरंध थी। चरनसिंह का सारा शरीरसूख गया, धर्मसिंह मनमलीन, तनछीन रहने लगा। करे तो क्या करे?

धर्म एक दिन बहुत उदास बैठा था कि ऊपर से रोटी गिरी, देखा तो सुशीला बैठी हुई है।

धर्मसिंह ने सोचा, क्या सुशीला इस काम में मेरी सहायता कर सकती है। अच्छा, इसके लिए कुछ खिलौने बनाता हूं। कल जब आयेगी, तब इसे देकर फिर बात करुंगा।

दूसरे दिन सुशीला नहीं आयी। धर्मसिंह के कान में घोड़ों के टापों की आवाज आयी। कई आदमी घोड़ों पर सवार उधर से निकल गए। वे सब बातें करते जाते थे। धर्मसिंह को और तो कुछ न समझ में आया—हां, ‘राजपूत’ शब्द बारबार सुनायी दिया। इससे उसने अनुमान किया कि राजपूतों की सेना कहीं निकट आ पहुंची है।

तीसरे दिन सुशीला फिर आयी और दो रोटियां ग़े में फेंक दीं, तब धर्मसिंह बोला— तू कल क्यों नहीं आयी? देख, मैंने तेरे वास्ते ये खिलौने बनाये हैं।

सुशीला—खिलौने लेकर क्या करुंगी; मुझे खिलौने नहीं चाहिए। उन्होंने तुम्हें मार डालने का विचार कल पक्का कर लिया है। सब मरहठे इकट्ठे हुए थे, इसी कारण मैं कल नहीं आ सकी।

धर्मसिंह—कौन मारना चाहता है?

सुशीला—मेरा पिता। बू़ों ने यह सलाह दी है कि राजपूतों की सेना निकट आ गई है, तुम्हें मार डालना ही ठीक है। मुझे तो यह सुनकर रोना आता है।

धर्मसिंह—यदि तुम्हें दया आती है, तो एक बांस ला दो।

सुशीला—यह नहीं हो सकता।

धर्मसिंह—सुशीला, दया कर, मैं हाथ जोड़कर कहता हूं कि एक बांस ला दो।

सुशीला—बांस कैसे लाऊं, वे सब घर पर बैठे हैं, देखे लेंगे। यह कहकर वह चलीगई।

सूर्य अस्त हो गया। तारे चमकने लगे। चांद अभी नहीं निकला था, मन्दिर का घंटा बजा, बस फिर सन्नाटा हो गया। धर्मसिंह इस विचार में बैठा था कि सुशीला बांस लायेगी अथवा नहीं।

अचानक ऊपर से मिट्टी गिरने लगी। देखा तो सामने की दीवार में बांस लटक रहा है। धर्मसिंह बहुत परसन्न हुआ। उसने बांस को नीचे खींच लिया।

बाहर आकाश में तारे चमक रहे थे। ग़े के किनारे पर मुंह रखकर धीरे से सुशीला ने कहा—धर्मसिंह, सिवाय दो के और सब बाहर चले गये हैं।

धर्मसिंह ने चरनसिंह से कहा—भाई चरन! आओ, एक बार फिर यत्न कर देखें, हिम्मत न हारो। चलो, मैं तुम्हारी सहायता करने को तैयार हूं।

चरनसिंह—मुझमें तो करवट लेने की शक्ति नहीं, चलना तो एक ओर रहा। मैं नहीं भाग सकता।

धर्मसिंह—अच्छा, रामराम, परन्तु मुझे निर्दयी मत समझना।

धर्मसिंह चरनसिंह से गले मिला, बांस का एक सिरा सुशीला ने पकड़ा, दूसरा सिरा धर्मसिंह ने। इस भांति वह बाहर निकल आया।

धर्मसिंह—सुशीला, तुम्हें भगवान कुशल से रखें। मैं जन्मभर तुम्हारा जस गाऊंगा। अच्छा, जीती रहो, मुझे भूल मत जाना।

धर्मसिंह ने थोड़ी दूर जाकर पत्थरों से बेड़ी तोड़ने का बहुत ही यत्न किया, पर वह न टूटी। वह उसे हाथ में उठाकर चलने लगा। वह चाहता था कि चन्द्रमा उदय होने से पहले जंगल में पहुंच जाय, परन्तु पहुंच न सका। चन्द्रमा निकल आया, चारों ओर उजाला हो गया, पर सौभाग्य से जंगल में पहुंचने तक राह में कोई न मिला।

धर्मसिंह फिर बेड़ी तोड़ने लगा, पर सारा यत्न निष्फल हुआ। वह थक गया, हाथपांव घायल हो गए। विचारने लगा, अब क्या करुं? बस, चलो, ठहरने का काम नहीं। यदि एक बार बैठ गया, तो फिर उठना कठिन हो जायेगा। माना कि परातःकाल से पहले किले में नहीं पहुंच सकता, न सही, दिनभर जंगल में काट दूंगा, रात आने पर फिर चल दूंगा सहसा पास से दो मरहठे निकले, वह झट झाड़ी में छिप गया।

चांद फीका पड़ गया, सवेरा होने लगा। जंगल पीछे छूट गया, साफ मैदान आ गया। किला दिखाई देने लगा। बायीं ओर देखने पर मालूम हुआ कि थोड़ी दूर पर कुछ राजपूत सिपाही खड़े हैं। धर्मसिंह मग्न हो गया और बोला—अब क्या है, परन्तु ऐसा न हो कि मरहठे पीछे से आ पकड़ें, मैं सिपाहियों तक न पहुंच सकूं, इस कारण जितना भागा जाए भागो।

इतने में बायीं ओर दो सौ कदम की दूरी पर कुछ मरहठे दिखाई दिए। धर्म निराश हो गया, चिल्ला उठा—भाइयो, दौड़ो, दौड़ो! मुझे बचाओ, बचाओ!

राजपूत सिपाहियों ने धर्मसिंह की पुकार सुन ली। मरहठे समीप थे, सिपाही दूर थे। वे दौड़े, धर्मसिंह भी बेड़ी उठाकर ‘भाइयो, भाइयो’ कहता हुआ ऐसा भागा कि झट सिपाहियों से जा मिला, मरहठे डरकर भाग गए।

राजपूत पूछने लगे कि तुम कौन हो और कहां से आये हो, परन्तु धर्मसिंह घबराया हुआ ‘भाइयो, भाइयो’ पुकारता चला जाता था। निकट आने पर सिपाहियों ने उसे पहचान लिया। धर्मसिंह सारा वृत्तान्त कहकर बोला—भाइयो, इस तरह मैं घर गया और विवाह किया। विधाता की यही लीला थी।

एक महीना पीछे पांच हजार मुद्रा देकर चरनसिंह छूटकर किले में आया। वह उस समय अधमुए के समान हो रहा था।

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