माँ की ममता घने बादलों की तरह सर पे साया किए साथ चलती रही,
एक बच्चा किताबें लिए हाथ में ख़ामुशी से सड़क पार करते हुए।
दुख बुज़ुर्गों ने काफ़ी उठाए मगर मेरा बचपन बहुत ही सुहाना रहा,
उम्र भर धूप में पेड़ जलते रहे अपनी शाख़ें समरदार करते हुए।
चलो माना कि शहनाई मसर्रत की निशानी है,
मगर वो शख़्स जिसकी आ के बेटी बैठ जाती है।
अभी मौजूद है इस गाँव की मिट्टी में ख़ुद्दारी,
अभी बेवा की ग़ैरत से महाजन हार जाता है।
मालूम नहीं कैसे ज़रूरत निकल आई,
सर खोले हुए घर से शराफ़त निकल आई।
इसमें बच्चों की जली लाशों की तस्वीरें हैं,
देखना हाथ से अख़बार न गिरने पाये।
ओढ़े हुए बदन पे ग़रीबी चले गये,
बहनों को रोता छोड़ के भाई चले गये।
किसी बूढ़े की लाठी छिन गई है,
वो देखो इक जनाज़ा जा रहा है।
आँगन की तक़सीम का क़िस्सा,
मैं जानूँ या बाबा जानें।
हमारी चीखती आँखों ने जलते शहर देखे हैं,
बुरे लगते हैं अब क़िस्से हमॆं भाई —बहन वाले।
इसलिए मैंने बुज़ुर्गों की ज़मीनें छोड़ दीं,
मेरा घर जिस दिन बसेगा तेरा घर गिर जाएगा।
बचपन में किसी बात पे हम रूठ गये थे,
उस दिन से इसी शहर में हैं घर नहीं जाते।
बिछड़ के तुझ से तेरी याद भी नहीं आई,
हमारे काम ये औलाद भी नहीं आई।
मुझको हर हाल में बख़्शेगा उजाला अपना,
चाँद रिश्ते में नहीं लगता है मामा अपना।
मैं नर्म मिट्टी हूँ तुम रौंद कर गुज़र जाओ,
कि मेरे नाज़ तो बस क़ूज़ागर उठाता है।
मसायल नें हमें बूढ़ा किया है वक़्त से पहले,
घरेलू उलझनें अक्सर जवानी छीन लेती हैं।
उछलते—खेलते बचपन में बेटा ढूँढती होगी,
तभी तो देख कर पोते को दादी मुस्कुराती है।
कुछ खिलौने कभी आँगन में दिखाई देते,
काश हम भी किसी बच्चे को मिठाई देते।
दौलत से मुहब्बत तो नहीं थी मुझे लेकिन,
बच्चों ने खिलौनों की तरफ़ देख लिया था।
जिस्म पर मेरे बहुत शफ़्फ़ाफ़ कपड़े थे मगर,
धूल मिट्टी में अटा बेटा बहुत अच्छा लगा।
कम से बच्चों के होंठों की हँसी की ख़ातिर,
ऐसे मिट्टी में मिलाना कि खिलौना हो जाऊँ।
क़सम देता है बच्चों की, बहाने से बुलाता है,
धुआँ चिमनी का हमको कारख़ाने से बुलाता है।
बच्चे भी ग़रीबी को समझने लगे शायद,
अब जाग भी जाते हैं तो सहरी नहीं खाते।
इन्हें फ़िरक़ा परस्ती मत सिखा देना कि ये बच्चे,
ज़मी से चूम कर तितली के टूटे पर उठाते हैं।
सबके कहने से इरादा नहीं बदला जाता,
हर सहेली से दुपट्टा नहीं बदला जाता।
बिछड़ते वक़्त भी चेहरा नहीं उतरता है,
यहाँ सरों से दुपट्टा नहीं उतरता है।
कानों में कोई फूल भी हँस कर नहीं पहना,
उसने भी बिछड़ कर कभी ज़ेवर नहीं पहना।
मोहब्बत भी अजब शय है कोई परदेस में रोये,
तो फ़ौरन हाथ की इक—आध चूड़ी टूट जाती है।
बड़े शहरों में रहकर भी बराबर याद करता था,
मैं इक छोटे से स्टेशन का मंज़र याद करता था।
किसको फ़ुर्सत उस महफ़िल में ग़म की कहानी पढ़ने की,
सूनी कलाई सेख के लेकिन चूड़ी वाला टूट गया।
मुझे बुलाता है मक़्तल मैं किस तरह जाऊँ,
कि मेरी गोद से बच्चा नहीं उतरता है।
कहीं कोई कलाई एक चूड़ी को तरसती है,
कहीं कंगन के झटके से कलाई टूट जाती है।
उस वक़्त भी अक्सर तुझे हम ढूँढने निकले,
जिस धूप में मज़दूर भी छत पर नहीं जाते।
शर्म आती है मज़दूरी बताते हुए हमको,
इतने में तो बच्चों का ग़ुबारा नहीं मिलता।
हमने बाज़ार में देखे हैं घरेलू चेहरे,
मुफ़्लिसी तुझ से बड़े लोग भी दब जाते हैं।
भटकती है हवस दिन—रात सोने की दुकानों में,
ग़रीबी कान छिदवाती है तिनका डाल देती है।
अमीरे—शहर का रिश्ते में कोई कुछ नहीं लगता,
ग़रीबी चाँद को भी अपना मामा मान लेती है।
तो क्या मज़बूरियाँ बेजान चीज़ें भी समझती हैं,
गले से जब उतरता है तो ज़ेवर कुछ नहीं कहता।
कहीं भी छोड़ के अपनी ज़मीं नहीं जाते,
हमें बुलाती है दुनिया हमीं नहीं जाते।
ज़मीं बंजर भी हो जाए तो चाहत कम नहीं होती,
कहीं कोई वतन से भी महब्बत छोड़ सकता।
ज़रूरत रोज़ हिजरत के लिए आवाज़ देती है,
मुहब्बत छोड़कर हिन्दोस्ताँ जाने नहीं देती।
पैदा यहीं हुआ हूँ यहीं पर मरूँगा मैं,
वो और लोग थे जो कराची चले गये।
मैं मरूँगा तो यहीं दफ़्न किया जाऊँगा,
मेरी मिट्टी भी कराची नहीं जाने वाली।
वतन की राह में देनी पड़ेगी जान अगर,
ख़ुदा ने चाहा तो साबित क़दम ही निकलेंगे।
वतन से दूर भी या रब वहाँ पे दम निकले,
जहाँ से मुल्क की सरहद दिखाई देने लगे।
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