घोर निराशा में डूबे मानव के जीवन में आशा का नवप्रकाश फैलाने वाली प्रेरक गाथा ! अत्यन्त मार्मिक सामाजिक उपन्यास !! जिसका हर शब्द सीधा आपके दिल की गहराईयो में उतरता चला जायेगा !
हिंदी साहित्य मार्गदर्शन के जरिये हम हमेशा से उभरते और मझे हुए लेखकों और कवियोँ से जुड़ते आये हैं और उनकी रचनाओं को आप सब के साथ बाँटते आये हैं, इसी प्रयास के तहत हम आज इस मंच पर पहली बार एक उपन्यास को प्रकाशित कर रहे हैं, उम्मीद करते हैं कि आप इस प्रयास को भी पसंद करेंगे और अपनी प्रतिक्रियाएँ हमें बेझिझक देंगे।
यह उपन्यास घोर निराशा में डूबे
मानव के जीवन में आशा का नवप्रकाश फैलाने वाली प्रेरक गाथा है जिसे रफ़ी अहमद साहब ने लिखा है! अत्यन्त मार्मिक इस उपन्यास का हर शब्द सीधा आपके दिल की गहराईयो में उतरता चला जायेगा !
लेखक की ओर से दो शब्द
प्रिय
पाठको,
प्रस्तुत है यह मेरा प्रथम उपन्यास |
हमारे भारत की इस गरिमामयी धरती ने अनेकानेक महान फनकार, कलाकार उत्पन्न किये है
जिन्होंने सारी दुनियां में भारत का मस्तक ऊँचा किया है |
परन्तु कुछ फनकार ऐसे भी होते है जो गुमनामी
के अंधरों में ही दम तोड़ देते है – जिनके बारे में जमाना अधिक नही जान पाता |
प्रस्तुत उपन्यास में मैंने एक ऐसे ही फनकार की ज़िन्दगी को शब्दों में ढालने का
प्रयास किया है जो कि गुमनामी के अन्धेरो में दम तोड़ने को ही था मगर यकायक उसके
जीवन में कुछ ऐसा घटा जिससे उसका जीवन एक मिसाल बन गया | मेरा यह प्रयास कहाँ तक
सार्थक है इसका फैसला मुझसे कही बेहतर आप कर सकते है, हाँ इस उपन्यास के बारे में
इतना अवश्य कह सकता हूँ कि अच्छा उपन्यास पढ़ने की चाहत रखने वालो को यह उपन्यास
हरगिज निराश नही करेगा !
~ रफ़ी अहमद “रफ़ी”
लेखक परिचय:
नाम : रफ़ी अहमद “रफ़ी” उर्फ़ रफ़ी अहमद खिलजी
उम्र : 52 वर्ष (जन्म तिथि –15 अगस्त 1964 )
शिक्षा : बी. ए.
वर्तमान व्यवसाय : निजी अध्यापन |
सृजन : पिछले 25-30 वर्षो से लेखनरत |
लगभग सेकड़ो कविताएँ, लेख , कहानिया , देनिक युगपक्ष, बीकानेर निलेक्स इंडिया , हरियाणा , सरस सलिल, देहली से प्रकाशित हो चुकी है | क्रिएटिव न्यूज़ , देहली के लिए कुछ अर्सा पत्रकारिता भी की |
.1.
बढ़ते ही जा रहे थे कदम - उसी तरह डगमाते हुए बहुत दूर नहीं चला था रवि- मगर यह कम्बख्त पांव थे कि जैसे साथ देना ही नहीं चाहते हो । रवि फिर भी चलता ही जा रहा था - कहां ? .................... खुद उसे मालुम नहीं उसे तो सिर्फ इतना पता था - कि उसें सिर्फ चलते ही जाना है - तब तक-जब तक कि उसें कोई संकेत ना मिले ।
एक तो भयावह अंधेरा फिर यह जंगल का रास्ता कभी सपने में भी नहीं सोचा था रवि ने कि जिन्दगी में कभी इस तरह भी रात को भटकना पड़ेगा । ..... मगर मजबूरी ! .............. यह मजबूरी क्या कुछ नहीं करवा सकती । रवि की आंखो के सम्मुख नाच उठा अपनी बेबस मां का गमगीन चेहरा । वो चेहरा जो अपने आप में न जाने कितने दुःखों को - कितने तुफानों को सिमेटे हुए था । और एक नोजवान बेटे की मां होते हुए भी उसें न जाने कितने दुःख उठाने पड़ रहे थे । और वो एक ऐसा बदनषीब बेटा था - जो उसके लिए कुछ भी तो नहीं कर पाया था अब तक ।
तेज हवाओं के बीच रवि इन विचारों में डूबा अब काफी दूर निकल आया था । रवि आज तक इतना पैदल नहीं चला था - इसलिए काफी थक चुका था । उसें झुंझलाहट सी हो रही थी अपने आप पर कि वो भी कैसा बेवकूफ है - जो प्रकाश की बातों में आकर ऐसा कर बैठा । कहीं प्रकाश ने उसके साथ मजाक तो नहीं किया ? ........ तो फिर क्या उसे वापिस चलना चाहिए ? रवि असमंजस में था कि अचानक उसने अपनी पीठ पर किसी का हाथ महसूस किया - यकायक वह चैंक सा गया- और एक झुरझुरी-सी उसके बदन में दौड़ गइ्र्र । यह भी गनीमत थी कि उसके होठों से चीख नहीं निकल पाई थी।
’’डरो नहीं रवि ! ........ मैं हूँ प्रकाश ! ...........‘‘ सरसराता हुआ सा प्रकाश बोला।
’’हूँ .......... क्या हम मंजिल तक पहुंच गये? ..............‘‘ रवि ने भी फुसफुसाकर कहा।
’’हां ! ......... मैंने कहा था ना कि तुम्हें जियादा दूर नहीं चलना पड़ेगा- खैर! ............ आओ! ............‘‘
प्रकाश आगे आगे चल पड़ा और रवि पीछे-पीछे । उसने प्रकाश की बात का कोई जवाब नहीं दिया।
.2.
अभी वो कुछ ही दूर चले थे कि उन्हें एक मकान की अस्पश्ट -सी आकृति नजर आने लगी। रवि ने चैन का सांस लिया। चलो आखिर पहुंच ही गये ! .......... मगर क्या मेरा काम हो जायेगा ? ................. इस प्रकाश के बच्चे ने कुछ भी तो नहीं बताया था । यह अब किसी लफड़े में तो नहीं फंसाने लाया है ? ............ इस तरहा भी कोई काम होता है भला । अब तक वो दोनों मकान के करीब पहुंचे चुके थे। प्रकाश ने दरवाजे पर अपना हाथ रखकर धीरे से इस तरहा थाप दी - जिस तरह कोई तबलची अपने तबले पर देता है । दरवाजा खुल गया । वे लोग अन्दर चले आये । रवि ने देखा एक बूढी सी औरत ने दरवाजा खोला था - जो अब चुपचाप एक कमरे में समा गई ।
प्रकाश रवि को एक कमरे में ले गया । कमरा क्या था बाकायदा आधुनिक ड्राइंग रूम था । रवि पेट्रोमैक्स की रोषनी में सम्पूर्ण कमरे को देख रहा था । दीवार पर लगी पेन्टिंग्स तो इतनी षानदार थी कि वह एकाएक उन्हीं में खो-सा गया।
’’ तुम बैठों मैं जरा अभी आया ! ............... ‘‘ कह कर प्रकाश चला गया। रवि अजीब सी मनोदषा में बैठा सोच रहा था - कि आखिर ये क्या चक्कर है ? ........... क्या ये लोग स्मगलर हैं ? ................. नहीं-नहीं ! स्मगलरों का उस जैसे गरीब फनकार से क्या काम हो सकता है ? ....... मगर है ये रहस्यमय ही ! ................
आषा के विपरीत प्रकाश जल्द ही लैेाट आया उसके चेहरे पर रहस्यमयी मुस्कुराहट थी।
’’चलो रवि ! ............. तुम्हें अपने कद्रदान से मिलवा दूं ! ................‘‘
रवि खामोषी से उठ खड़ा हुआ - और प्रकाश के पीछे हो लिया । प्रकाश के साथ ज्यों ही वह कमरें में घुसा तो- अपने सामने बैठे कद्रदान को देखकर इस तरहा चैंक उठा मानों उसने अपनी जिन्दगी का सबसे पहला आष्चर्य देखा हो !
-3-
घर में घुसने के साथ रवि का मन फिर भारी हो गया । सामने आंगन में उसकी मां के सम्मुख कपड़ों का ढ़ेर लगा था - जिसे वो सर झुकाये निपटाने में लगी थी। मां ने सिर्फ एक बार अपनी आंखे उठाकर रवि को निहारा - फिर एक निःष्वास छोड़ कर अपने काम में तल्लीन हो गई । रवि कुछ देर तक मां को देखता रहा - तत्पष्चात् अपने कमरे की ओर चला गया । अपने कमरे में चारपाई पर लेटा रवि सोच रहा था मां के बारे में - जिसके लिए वह कुछ भी नही कर पाया था अब तक।
और वो सोच रहा था कि उसने क्या-क्या नहीं किया अब तक ? ............ मगर नाकामयाबी के सिवाय कुछ भी तो नहीं मिला था उसे ! उसने प्रकाश को अपने जिगरी यार को जब सब कुछ बताया तो उसने एक मात्र रास्ता बताया था कि वह लेखक है उसे अपना उपन्यास छपवाना चाहिए । इस सिलसिले में - प्रकाश ने जिस लड़की से मिलवाया था-हां वो लड़की ही थी- जिसे वो वहां देखकर चैक उठा था।
मगर उससे अभी तक वह तथा प्रकाश दोनों ही असली बात न कर सके थे। उस सुन्दर लड़की के बारे में अनेक प्रष्न थे उसके दिमाग में - मगर वह कुछ भी नहीं पूछ पाया था ! ............. ’’ अब मिलने पर पूछूंगा‘‘ रवि ने मन ही मन निष्चय किया । रवि न जाने कब तक अपने खयालों में डूबता - उतरता रहा ।
बाहर मामी के उच्च स्वर से उसकी विचार धारा टूटी - वह उठकर बाहर आ गया। वही पुरानी चख-चख लगा रखी थी मामी ने । वो न जाने किस बात पर रवि की मां को डांट रही थी - रवि जानता था मामी को तो कोई न कोई बहाना चाहिए उस लोगों को खरी - खोटी सुनाने के लिए ।
अचानक मामी की नजर रवि पर पड़ी - हाथ नचाते हुए वो बोली , ’’अरे ! ....... तुम यहां क्या कर रहे हो रवीन्द्र ठाकुर ! ............. जाओ कविता लिखो ना अन्दर जाकर ! ‘‘
’’देखों सावित्री ! ............ तुम मुझे कुछ भी कह लो - मगर इसे कुछ मत कहा करों ! ..............‘‘
-4-
’’ हाय ! हाय ! मैं वारी जाऊँ ! ............ मेरा नसीब भी कैसे खेल दिखा रहा है ! ........... कैसे-कैसे लोग हमारे पल्ले पड़ें है - बेटा 20 बरस का चर्बी चढ़ा पठ्ठा हो गया ! .......... मगर करता - धरता कुछ नहीं ! .............. करता है कविता ! ........... और मां यह भी क्या कम ठहरेगी - रह गई ना रवीन्द्र ठाकुर की मां ! ............
’’सावित्री ! ............. तेरे जलने से क्या होगा - अगर मैंने कोई पाप नहीं किया - अगर मेरे इन आंसुओं में दम है तो मेरा बेटा एक दिन जरूर रवीन्द्र ठाकुर बनेगा ! ........... ‘‘ मां से रहा न गया तो उसने मामी को जवाब दे ही दिया ।
’’ हाये ! हाये! .............. मैं तो जलती हूँ ! ............ अरे कैसे - कैसे अहसान फरामोष लोग है लोग है इस धरती पर ! ................ अरे ! हमारे टुकड़ों पर ही तो यह तेरा लाल इतना बड़ा हुआ है ! ............ मैं क्या जानती - समझती नहीं इसको। आज कल मुझे आंखें दिखाने लगा है ! .................. और तू भी तो बुढ़िया हमारी बदौलत जी रही है - वरना मरती अपने पति की तरह किसी सड़क या चैराहे पर ! ............... ‘‘
’’ बस करो मामी ! ............ ‘‘ रवि चीख उठा । मामी रवि को पहली बार क्रोध में देख रही थी - वह बड़बड़ाती हुई खिसक गई ।
रवि तथा मां दोनों अपने हालात पर दुःखी होते हुए अपने कमरे में आ बैठे । और खाना खाने का प्रयास करने लगे! ............... कहने को तो वो खा रहे थे - मगर खाया किसी से भी नहीं जा रहा था। मगर जीने के लिए ठूंसना तो था ही किसी तरहा ! ................. रवि सोच रहा था - आखिर कब तक चलेगा इस तरहा - आखिर कब तक ? ? ?
-5-
’’ और नीता तुमने उस षायर के बारे में सुना है क्या जिसकी नजमें (कविताऐं) आंसुओं से सींची जाती थी ! .............. ‘‘ संगीता ने जैसे अपने काव्य - ज्ञान का परिचय सा देते हुए कहा ।
’’ इन कवियों - षायरों के बारे में पढ़ा तो मैंने भी कुछ- कुछ है - मगर यह मुझे मालुम नहीं ! ............ अच्छा तँू बता ना ! ........‘‘ नीता बोली ।
इससे पहले कि संगीता उस षायर का नाम बताऐ-प्रकाश तथा रवि ने कमरे में प्रवेष किया।
’’वो मारा ! ...........‘‘नीता प्रकाश के साथ रवि को देख कर जैसे उछल पड़ी ।
’’ अरे भई ! क्या बात है - बड़ी खुष नजर आ रही हो ! ...................‘‘ प्रकाश ने नीता की तरफ देखते हुए कहा ।
’’वाह भैया ! .......... आज बड़े मौके पर रवि भैया को साथ लाये हो ! ............‘‘ नीता ने कहते हुए पहले रवि की तरफ फिर संगीता की तरफ देखा ।
’’ मौके पर ?.............‘‘ प्रकाश खाली कुर्सी पर बैठते हुए बोला । दूसरी पर रवि बैठ गया।
’’ अभी सब पता चल जायेगा ! ............. पहले जरा परिचय तो हो जाये ! ................ हां रवि भैया इनसे मिलो ये है मेरी सबसे प्यारी सहेली संगीता ! ................. षायरों और षायरी को पढ़ने का बहुत षौक है - इस बारे में इसे इतना ज्ञान है कि किसी षायर की लड़की की भी छुट्टी कर दे ! ..............‘‘
फिर संगीता की ओर मुखातिब होकर बोली, ’’और संगीता ! ............ ये हैं मेरे भैया के दोस्त रविकुमार ! ......... वैसे इनके बारे में तुझे बता ही चूकी हं मैं ! .....‘‘
रवि ने मुस्कुरा कर हाथ जोड़ दिये - मगर बेचारी संगीता नीता के इस तरहा बढ़ा -चढ़ा कर परिचय देने से षर्मा गई थी । हाथ जोड़ने की बजाय उसने अपना सिर झुका लिया। मारे षर्म के उसका गुलाबी चेहरा लाल हो गया ।
-6-
’’धत्त - तेरी की ! ....... तुम्हें तो परिचय करावाना भी नहीं आता नीता ! ......‘‘प्रकाश ने नीता को डांटा ।
’’ ये लो ! .............. आते ही डांटने लगे भैया ! ....................... ‘‘ नीता ने षिकायत की ।
’’ अब यह बकवास छोड़ और बता बात क्या है ? ....................... ‘‘
’’ दरअसल अभी ये संगीता मुझ से ऐसे षायर का नाम पूछ रही थी - जिसकी नजमें आंसुओं से सींची जाती थी ! ............ ‘‘
प्रकाश सुन कर विचार करने लगाा। पर रवि उस लड़की को गौर से देखने लगा जो दर्द भरी षायरी करने वाले षायर का नाम पूछ रही थी ।
रवि को इस तरहा देखता पाकर संगीता की रही सही हिम्मत भी जाती रही ।
’’हां तो रवि भैया ! ................... अब बताओ उस षायर का नाम ! .............. ‘‘ नीता ने रवि को संगीता की तरफ इस तरह घूरते पाकर कहा ।
’’ अ-आ ! .............. पर पहले आपकी सहेली बतायेगी यह नाम ! ................ अगले सवाल का जवाब हो सका तो मैं जरूर दूंगा ! ...............‘‘ रवि पहले तो कुछ चैंक गया - मगर फिर संभलते हुए तीर संगीता पर ही छोड़ दिया।
संगीता की हालत और पतली हो गई । वो सर झुका कर फर्ष पर अपने पैर के अंगूठे को मोड़ने लगी।
’’चलो भई ! .............. तुम्ही बता दो संगीता ! .............. ‘‘ नीता ने उसकी स्थिति से अनभिज्ञ होकर कहा।
इस बार तो बेचारी संगीता के माथे पर पसीना छल छला आया।
’’अरे भई ! ............. इसमें षर्माने की क्या बात है ? .......... यह नाम बता दो फिर नया सवाल करो। फिर देखते हैं रवि भैया कैसा जवाब देते हैं ! ................. ‘‘ नीता ने फिर कहा ।
’’ ये लो !............... तुम नया सवाल करने की बात कहती हो - इस बेचारी से तो सर उठाना भारी हो रहा है ! ......................‘‘ प्रकाश से संगीता की हालत देखी नहीं गई तो वो बोल पड़ा ।
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’’ तुम चुप रहो भैया ! ............... ये हमारा मामला है ! ...................‘‘ नीता ने प्रकाश के हस्तक्षेप पर कुछ नाराजगी भरा एतराज किया।
’’ चलो भई ! ............. तुम्हारी मर्जी ! ........‘‘ कहकर प्रकाश चुप हो गया ।
’’ देख संगीता की बच्ची ! ................... हमारे सामने तो अपने काव्य ज्ञान की इतनी डींगे मारा करती हो-अब एक नाम बताने के नाम पर तुम्हारा दम निकल रहा है ! ....... देख बता दे वरना ! ........... ‘‘ संगीता का सर अब भी नहीं उठ सका ।
’’ रवि भैया ! ............. ‘‘
’’ यस डीयर सिस्टर ! .............. ‘‘
’’ इस संगीता की बच्ची पर षायरी सुनाओं ये ऐसे नहीं मानेगी ! .................‘‘
’’ छोड़ो ना नीता ! ........... हम चलते है ....... तुम आपस में बातें करो। ! ......‘‘रवि ने कहकर प्रकाश को ईषारा किया कि यहां से चलना ही उचित है।
नीता उसके इरादे को भांप गई - कुछ जोर से बोली, ’’रवि भैया ! खिसकने का प्रयास मत करो तुम्हें मेरी बात माननी ही पड़ेगी ! ......‘‘
’’ मगर इनको बुरा लग जायेगा ! .... ‘‘ रवि का ईषारा संगीता की तरफ था - जो अब भी षर्म की गठरी बनी बैठी थी ।
’’ अरे ! इसे मैं अच्छी तरहा जानती हूँ - अभी तुम्हारे जाते ही सब षर्म- वर्म चली जायेगी ! ........ ‘‘
’’ प्रकाश ! .... तूं ही बता यार ! ......‘‘ रवि ने प्रकाश को बीच में घसीट कर बचना चाहा ।
’’ रवि भैया ! ..... आज अगर तुमने मेरी बात नहीं मानी तो ! ..... ‘‘ नीता किसी भी सूरत में हार मानने को तैयार नहीं थी ।
’’ ठहरो-ठहरो ! ....... मैं कोषिष करता हूँ ! ........‘‘ रवि जैसे हथियार डालते हुए बोला । उसने फिर प्रकाश की तरफ आषन्वित नजरों से देखा कि वो षायद अब भी बीच में पड़ कर उसे इस मुसीबत से बचा ले ।
मगर प्रकाश भी उसकी ओर प्रष्नवाचक नजरों से देख रहा था कि रवि क्या सुनाता है । रवि ने नीता की तरफ देखा जो उसकी ही तरफ देख रही थी । अब कोई चारा न था। वो बोल उठा-
-8-
’’संगीता जी इस तरहा षर्माने में क्या रखा है ।
नीता जैसी सहेली भी बनाने में क्या रखा है,
जिस राज की महफिल में जरूरत महसूस हो,
उस राज को दिल में छुपाने में क्या रखा है ।
’’वाह ! ....... वाह !! ...... ’’प्रकाश व नीता ने हंसते हुए रूबाई पर दाद दी । और संगीता जो धड़कते दिल से अपने पर कही ये रूबाई सुन रही थी - मुस्कुराये बगैर न रह सकी ।
जाने क्यों किसी ने पहली बार उसके दिल को इस तरहा गुदगुदाया था । ओर वह अपनी उन निगाहों को नहीं रोक सकी जो रवि की छवि को मानो चुरा लेना चाहती थी ।
’’वाह ! ....... रवि भैया मान गये तुम्हें भी ........ इसें खुष करने के लिए मुझे भी साथ घसीट लिया ! .....’’ कह कर षरारत से नीता मुस्कुराई ।
’’वो तो जरूरी हो गया था । ........ तुम भी तो जैसे इनके पीछे हाथ धोकर पड़ गयी थी ! ......’’ रवि ने मुस्कुराकर कहा ।
’’चलो रवि !........ तुं ही बता दो उस षायर का नाम । .....’’ प्रकाश ने कहा ।
’’जहां तक मुझे याद है - वो षायर मजाज लखनवी है ।........’’ रवि ने जवाब दिया ।
’’क्यों संगीता !....... यह जवाब सही है या गलत ?....’’ कहते हुए नीता ने उसके हल्की सी चिकोटी काटी । अब वो षरारत पर उतर आयी थी ।
संगीता फिर षर्म से पानी हो गई - उसने सिर्फ अपना सिर हिला दिया ।
’’रवि भैया !......... अब तुम ही कोई षेरो-षायरी की बात सुनाओ ना !...... ये तो अब सुनाने से रही ! ....’’नीता ने फरमाईष की ।
’’फिर कभी सही !........ अभी तो माफी चाहता हूँ ।......’’
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रवि दीवार पर लगी हुई घड़ी की ओर देखते हुए उठ खड़ा हुआ । यद्यपि न जाने क्यों जिन्दगी में पहली बार आज उसका जी चाह रहा था - कि वह उस जगह पर यूं ही बैठा रहे - और वक्त ठहर जाये । मगर ’’मां इन्तजार कर रही होगी । ........’’ सोच कर वह उठ खड़ा हुआ ।
रवि नें मां की तरफ देखा - जो पास ही चादर डाले सो रही थी । दिन में कमर तोड़ मेहनत करने के बाद - अब गहरी नींद आना स्वाभाविक थी । रवि जो कि सोने का काफी प्रयत्न करके हार चुका था - चारपाई से उठा और अनायास ही कुर्सी पर जाकर बैठ गया । अक्सर ऐसा ही होता था - रात को किसी भी समय उसकी नींद गायब हो जाती थी, और वह न जाने किस अन्तप्र्रेरणा से टेबिल की और बढ़ जाता और अपने मस्तिश्क में उठे विचारों के तूफान को कागज पर उतारता चला जाता ।
उस आलम में उसे समय का कोई ध्यान नहीं रहता । वो तो बस लिखता ही चला जाता जब तक कि उसकी मानसिकता इजाजत देती ।
आज भी हमेषा की तरहा वह काॅपी खोल कर लिखता चला गया । उस अन्तद्र्वन्द को जो कि उसके दिल में उथल-पुथल मचाये हुए था ।
रवि को इस तरहा लिखते हुए वर्शों गुजर चुके थे - न जाने कितनी काॅपियाँ भरती चली गयी थी । यदि भाग्य ने साथ दिया होता तो अब तक वह काफी ऊंचाइयों पर पहुंच चुका होता । मगर न जाने उस किस्मत के लेखक विधाता ने इस लेखक की किस्मत में क्या लिखा था ।...........
रात्रि की पूर्ण निस्तब्धता छाई हुई थी । गूंज रही थी - रह- रह कर टेबिल घड़ी की मध्यम ’’टिक-टिक’’ मगर रवि तो अपनी ही संगीत की दुनियां में डूबा हुआ था - मानो कागज पर उतरता हुआ हर षब्द एक सुमधुर झंकार - पैदा कर रहा हो - और जिससे आत्म - विभोर होकर कोई फनकर जैसे दुगुने जोष के साथ अपने वाद्य के तारों को झंकृत करता जा रहा हो ।
यकायक मां ने करवट बदली - मगर रवि को तो इसका अहसास होने से रहा। हां आज भी न जाने कैसे मां की आंख खुलगई - मगर उसने किसी प्रकार जाहिर नहीं होने दिया ।
-10-
अक्सर मां भी रवि को रातों को उठकर इस तरहा दीवानों की तरहा लिखते ही चले जाते हुए देखती । यह क्रम वर्शो से चल रहा था । हमेषां की तरहा मां की आंखे आज भी डबडबा उठी थी । रवि जिस टेबिल पर बैठा था उसके सामने की दीवार पर मां सरस्वती की तस्वीर थी । मां की अश्रुपूर्ण निगाहें हमेषां की तरहा वो ही खामोष दुआ मांग रही थी । ’’मां !..... यह क्या रोग दिया है तूने मेरे रवि को ! पूरा पागल ही तो हो गया है यह !........ क्या तुम इसकी वर्शो की यह साधना सफल करोगी ? क्या एक ऐसे बदनसीब बेटे को जिसकी अपनी मां उसे पूरा प्यार ना दे सकी - उस बदनसीब को अपना प्यार दोगी ?...... इस बुढ़िया के आंसु तुम्हारे दिल में कुछ ममता पैदा कर सकेंगें ?........’’
न जाने कितना वक्त गुजर गया । रवि ने अपने दिल में कहीं ऐसा षकून - ऐसा सुख महसूस किया जैसा कोई मूर्तीकार अपनी मूर्ती को पूरा करने के बाद महसूस करता है । ..... यह बात अलग है कि उसकी बनाई गई मूर्तियों की जमाना कुछ कदर करें या न करें ।
रवि अपनी चारपाई पर आकर लेट गया - मां रवि को कुर्सी छोड़ते देख चुकी थी । वह खर्राटें भरने का अभिनय करने लगी । रवि ने बत्ती बुझाई और सो गया निंद्रा देवी के हसीन आँचल में । .......
’’रवि !...... मान भी जा यार । मै कब से तेरे मस्का लगा रहा हूँ !....... ’’विनोद गिड़गिड़ा सा उठा ।
’’ऐसा कैसे हो सकता है विनोद !.... तुम खुद सोचो ...... क्या इससें तुम मुझे फंसा नहीं सकते !.........’’
’’अरे मेरे बाप की तोबा !...... तुझे कौन फंसा सकता है मेरे बाल-ब्रह्मचारी !.... अब जरा काॅपी खोल और लिख दे । .......’’
’’क्या लिखवाया जा रहा है भई !........ हम भी तो सुनें ! ......’’ राकेष ने प्रवेष करते हुए कहा ।
’’खाक लिखवाया जा रहा है !....... राकेष ! लो इस विनोद की भी सुनो - कहता है कि मुझे कोई ऐसी कविता लिख कर दो ...... जो इसकी प्रेमिका को पसन्द आ जावे !.......’’ रवि ने स्पश्ट रूप से कह दिया ।
’’प्रेमिका !!.......’’ रवि के इस षब्द को दोहराते हुए किषोर ने प्रवेष किया ।
’’ये लो इस नालायक की और कमी थी - यह और टपक पड़ा !......’’ विनोद झल्लाते हुए बोला ।
’’बेषक !........ बिल्कुल ठीक फरमाया आपने - हर वो महफिल अधूरी समझी जाती है - जिसमें किषोर कुमार नहीं होता !........ और जिस महफिल में वो होता है वो महफिल !.........’’
’’उस महफिल में बैठा हर षख्ष अपना सर पीट लेता है !....’’ विनोद किषोर की बात काटते हुए बोला ।
’’अरे तुम लोग फिर झगड़ने लगे !...... छोड़ो भी !...... हां तो विनोद !........
-11-
’’एसा है - चलो लिखने को मै तुम्हें लिख दूंगा - पर तुम लोग भी तो बहुत बात-बात में तुक मिलाया करते हो । क्यों न तुम्ही कोषिष करते !........ हो सकता है किसी षोख हसीना की वजह से ही तुम्हारी नीरस तुकबन्दियों में वजन पेदा हो जाये और तुम षैक्सपीयर बन जाओ !.........’’ रवि विनोद को समझाता हुआ बोला ।
’’खाक वजन पैदा हो जायेगा !..... पिछले दो हफ्तों से सारी काॅपी का सत्यानाष कर चुका हूँ - मगर एक भी तुकबन्दी ऐसी नहीं जो किसी को प्रभावित कर सके !..........’’विनोद ने अपनी लाचारी बयान कर दी ।
’’हँू तो यह बात है !........ अब्बे विनोद के बच्चे पहले तो अपनी उस उल्लू की पðी प्रेमिका की बच्ची के सामने धड़ाधड़ तुकबन्दियाँ करने की क्या जरूरत थी ?.... पहले तो साला उस पर धौंस जमाने के लिए यूं तुक मिलाने लगा - मानों आने वाले कल का काका हाथरसी यही है !...... अब रवि ! बेचारे भोले रवि को पटाना चाहता है कि वो षायरी लिख दे !......’’ किषोर ने फिर बीच में अपनी टाँग अड़ाई ।
’’चुप्प - बे ! तुकबन्दी तो तंू भी बहुत करता है !..... और ऊपर सें गायकी भी झाड़ता है !........ मगर ना तुक मिलाने में दम ना गला फाड़ने में दम ! ........’’ विनोद भी किषोर की खबर लेने पर तुल गया ।
राकेष कुछ बोलना ही चाहता था कि रवि ने उसें इषारे सें मना किया । वह इन दोनों के झगड़ने का मजा ले रहा था ।
’’मारे-गये ! अब्बे धीरे बोल ना यार !... यहां तो ऐसे ही कोई छोकरी नहीं फँसती - ऊपर सें तूं कच्चा चिट्ठा खोलने पर तुला हुआ है !........ मगर एक बात याद रख अगर तुमने मेरी पोल खोली तो मै तुम्हारी उस प्रेमिका की बच्ची के सामने तुम्हारी षायरी की पोल खोल दूंगा !......’’किषोर नें हथियार डालते हुए भी जैसे विनोद पर वार कर दिया ।
’’हा ! हा ! हा! .......’’ किषोर की इस बात पर रवि खुलकर हंस पड़ा । सभी उसकी तरफ देखने लगे । रवि सभी को अपनी तरफ देखता पाकर कुछ सपकपा-सा गया - मगर फिर कुछ मुस्कुराते हुए बोला, ’’वाह रे मेरे दोस्तों !... तुम्हारा भी जवाब नहीं ! अब इस कमबख्त रवि को बड़ा ही अच्छा काम मिलने वाला है - वो यह कि मै तुम सबको बारी-बारी सें कविता लिखकर देने लग जाऊं - ताकि तुम लोग मैदाने इष्क में कामयाब हो जाओ !....’’
’’जाहिर है !....... जाहिर है !.......’’सभी मित्र महाषयों ने एकसाथ दोहराया ।
’’मगर तुम लोग तो मुझे षायर मानने को तैयार ही न थे - हमेषा मेरे साथ तुकबन्दियों का मुकाबला करते रहते हो - मगर अब तुम लोग कैसे तैयार हो गये !......’’ रवि की इस बात पर मित्र-मण्डली में खामोषी छा गई ।
रवि के होठों पर थिरक उठी घायल सी मुस्कुराहट-वह खामोषी से सब की तरफ देखता रहा फिर बोला, ’’देखो !..... तुम में से कोई षायर बन जाये-इससे बड़ी खुषी की बात मेरे लिये कोई और क्या हो सकती है !.....मगर तुम लोग कहते हो ना कि हम तो तुकबन्दियां मजाक में करते है । षायरी मजाक नहीं है मेरे दोस्तों !...... वो क्या है ! इस रवि से पूछो-कितनी ...... बर्बादियां - कितनी तबाहियां !
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कितनी जिल्लतें - कितनी ठोकरें हैं इसमें !....... पूछो इस सिसकते हुए दिल से हर लम्हा कितना जला है ये !........ मगर तुम लोग नहीं समझोगे ! मै भी कैसा बेवकूफ हूँ - यह जानते हुए भी कि तुक मिलाना अब तुम्हारी लाचारी बन गई है - एक एसी आदत जिसें अब अगर तुम चाहो तो भी नहीं छोड़ सकते !.........’’
’’वाह-वाह !...... क्या भाशण है !......’’ प्रकाश ने प्रवेष करते हुए कहा ।
’’आओ प्रकाश !....... मै तुम्हारा ही इन्तजार कर रहा था !.....’’ रवि ने प्रकाश की तरफ देखते हुए कहा ।
फिर विनोद की तरफ देखते हुए बोला, ’’माफ करना विनोद !....... बहुत कुछ बोल गया हूँ - झोंक में !....... अबकी दफा आऊंगा तब तुम्हारे लियें रचना जरूर लाऊंगा !....’’
’’नहीं ऐसी बात नहीं है रवि !........ यह तो अपन लोगों का रोज का लफड़ा हो गया है !........ इसमें बुरा क्या मानना !......’’ विनोद ने कहा ।
’’अच्छा तो आओ प्रकाश चलें !.......’’
रवि तथा प्रकाश कमरे से बाहर निकलने ही वाले थे कि किषोर गम्भीर मुख मुद्रा बनाकर अपनी आदतानुसार गा उठा ’’ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना !.......’’ बाहर निकलते हुए रवि व प्रकाश तथा अन्दर बैठे राकेष के होठों पर मुस्कुराहट थिरकने लगी ।
राकेष के घर से निकल कर रवि तथा प्रकाश पार्क में आ बैठे थे । सुनहली हसीन ढ़लती षाम का समय था - रवि कुदरत के हसीन नजारों को निहारने में खोया था । वह सोच रहा था - साथ में कि क्या जिन्दगी सचमुच सुन्दर है ? .......या उसकी तरहा नीरस या अन्धेरी ! यकायक उसने प्रकाश की ओर देखा जो उसें ही निहार रहा था । वो कुछ मुस्कुराता हुआ बोला,
’’यार प्रकाश !....... तू तो छुपा रूस्तम निकला रे !.... हां अब ये बता वो सुन्दर लड़की कौन थी - और उस जगह पर क्यों थी ?.....तू उसे कैसे जानता है !....... और मुझे वहां क्यों ले गया था ? ........’’
’’बाप-रे !..... इतने सवाल एक साथ !..... अम्मां-यार रवि !....... एक-एक करके पूछ ना !......’’ प्रकाश रवि के प्रष्नों की बोछार से घबराता हुआ सा बोला ।
’’चल तंू एक - एक करके ही बता ना !.....’’ रवि कुछ हंसता हुआ बोला ।
’’दरअसल रवि उस दिन जब तुमने मुझसे कहा - कि तुम अपना उपन्यास छपवाना चाहते हो !........ तो एकाएक मुझे नीलम का ख्याल आया ! ......... वो ही नीलम जिसके बारे में तुम जानना चाहते हो !....’’
’’अच्छा तो उसका नाम नीलम है भई वाह ! जैसे गुण वैसा नाम !.......’’ रवि की नीगाहों में वो हसीन लड़की कोंध उठी ।
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’’क्यों ? पसंद आ गयी क्या ?.........’’ प्रकाश ने हंस-कर कहा ।
’’ये लो !....... अजीब जमाना है - किसी की तारीफ करने का ये मतलब तो नहीं कि .....’’
’’छोड़ो ना यार !...... हां तो मै तुम्हें नीलम के बारे में बता रहा था - ’’नीलम षहर के जाने माने सेठ दीनदयाल की इकलौती सन्तान !.....’’
’’इकलौती हो या पांच - दस इससें अपन को क्या ....? अपने काम की बात कर ना यार !..........’’
’’वो ही तो बता रहा हूँ - जैसा कि मैनें तुमको बताया पैसों की कोई कमी नहीं है - नीलम के पास उसका सिर्फ एक ही सपना है नाम कमाना !.....’’
’’ये तो हर उस आदमी का सपना होता है - जिसका पेट भरा होता है !....... खेर !......... अब आगे बोल !......’’ रवि आदतानुसार बीच में फिर बोल पड़ा ।
’’नाम कमाने के भी बहुत से रास्ते होते हैं रवि !.....नीलम को पढ़ने का बहुत षोक है - इतना षोक कि उसके बंगले में दो-चार कमरे तो पुस्तकों से भरे पड़े हैं!....... देषी-विदेषी अनेक लेखकों को पढ़ चुकी है और उसकी हसरत कि वह ....’’
’’कि वह लेखिका बने !....’’ रवि ने प्रकाश की बात को पूरा किया । कुछ ठहर कर फिर बोला, ’’मगर यार !........ यह जंगल के मकान वाला चक्कर साला समझ में नहीं आया !........’’
’’अरे वो !.......’’ प्रकाश ठहठाकर हंस पड़ा ।
’’वास्तव में वो मकान जंगल में नहीं है !.......’’
’’जंगल में नहीं है !...... अरे वाह यार कमाल करते हो !....... मेरे पैर कम्बख्त दो रोज तक दर्द करते रहे है - उसके बावजूद जनाब फरमाँ रहे हैं कि ......’’
’’तुम सुनो तो सही - वाकई वो मकान जंगल में नहीं है रवि ! वो हमारे षहर के करीब दो मील दूर जो गांव है ना - वह उसी के किनारे बना है !........ दरअसल वो नीलम की ही जिद के कारण बनाया गया है !......’’
’’ओ !......... समझा !........एकान्त के लिए !......... भई वाह ! तुम्हारी इस नीलम की सनक की भी दाद देनी पड़ती है !......’’
’’वो कैसे रवि ?....... मै समझा नहीं !......’’
’’अब्बे तूँ मुझे समझा रहा है या मुझसे समझ रहा है !..... खैर सुन षायद नीलम की इस सनक में उस बात का हाथ होगा जिसके बारे में मैने भी सुना है !...’’
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’’किस बारे में ?............’’
’’यही कि कई लेखक षहर के षोर-षराबे से दूर षहर या किसी गांव के किनारे पर मकान बनवाते हैं जिससें उनकी कल्पना की दुनियां में कोई बाधा ना पड़े!.... वाह्! यह तुम्हारी नीलम भूमिका तो लेखिका जैसी ही निभा रही है-मगर यार हमारे इस छोटे से षहर में इतना षोर-षराबा कहां-जो महानगरों में होता है !......’’
’’यह तो वो ही बेहतर जान सकती है - अबकी दफा मिलो तो पूछ लेना !....’’
’’चलो कई सावाल तो हल हो गये - मगर एक सवाल बाकी है । जो बड़ा अहम् सवाल है!....’’
’’वो क्या ?......’’
’’वो ये कि न तो तुमने पहले मुझे बताया कि तुम किसी लड़की से मिलवाने ले जा रहे हो !..... और फिर नीलम से तो षहर के बंगले में भी तो मुलाकात हो सकती थी - फिर यह साली रात को जंगल में भटकाने में क्या तुक थी ?.....’’
’’वो दरअसल रवि !....... मै नीलम से प्रेम करता हूँ - और फिर नीलम षहर में किसी से मिलना बहुत ही कम पसंद करती है ।’’
’’तो क्या वह रातों को ही जंगल के मकान मे किसी से मिलना पसंद करती है ?.......’’ रवि ने कहा ।
’’किसी और से नहीं सिर्फ मुझसे - तुम पहले ऐसे व्यक्ति हो जो मेरे बाद उससें मिले !.......’’
’’यार ! यह लड़की है काफी दिलचस्प ....खैर अब उससें कब मिलवा रहे हो ?...’’
’’जल्द ही मै तुम्हें बता दूंगा !.....’’ कहने के साथ ही प्रकाश उठ खड़ा हुआ ।
परीक्षाऐं करीब आ रही थी - और रवि चाहकर भी अब तक कुछ भी तैयारी ना कर सका था । रवि प्रथम वर्श (आर्ट्स) की परीक्षा स्वयं पाठी छात्र के रूप में देना चाहता था । वर्श भर अपने हालात से जूझता रवि अध्ययन कब करता ?...... अक्सर जब वह अपने लफड़ों से कुछ फारिग होता तो अपने दोस्तों से मिल लिया करता था।
दोस्तों में सभी छात्र थे - कोई उसके साथ तथा कोई उससे आगे - या पीछे की क्लासों में थे । प्रायः सभी हम उम्र थे ।
ये युवाकाल भी कम्बख्त क्या काल (समय) होता है । ख्वाबों का काल कह दें या सपनों का काल - बात एक ही है । रवि की मित्र-मण्डली इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण थी ।
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केाई वकील बनने का दम भरता था - तो कोई बहुत बड़ा गायक । कोई क्या आजकल तो सभी यार दोस्त षायर होने की षेखी बधारने लगे थे - तुक में तुक जो मिलाने लगे थे बेचारे !...... खैर !....... यह समय ही ऐसा होता है - बचपन के जाते-जाते जब यौवन आता है-तो अपना नषीला-हठीला प्रभाव लेकर ही आता है।
दुनियाँ का हर युवक अपने भविश्य की विभिन्न कल्पनाऐं करता है !......’’ वह यह बनेगा !........ वह वो बनेगा !...’’ आदि-आदि ।
यह बात अलग है कि जिन्दगी की वास्तविकता जिसें यथार्थ भी कहा जाता है- से पाला पड़ता है तो ये स्वप्नों के महल किस तरहा चकनाचूर हो जाते हैं ।
सपने किस-किस के पूरे हुए हैं इस दुनियाँ में ? फिर भी इस काल (यौवन काल) में स्वप्न बनते रहे हैं ! बनते रहेंगे !...... स्वप्न बनाने वाले अन्जाम का स्वप्न तो बनाने से रहे ।
’’अच्छा रवि !.... मै जरा नीचे जाकर आता हूँ !......’’कहकर राकेष नीचे चला गया ।
रवि किताब में डूब सा गया । यकायक उसकी निगाहों ने खिड़की के पार जो देखा तो उसकी निगाहें जैसे जम कर रह गई ।
राकेष का मकान दो-मंजिला था और उसके सामने वाला एक मंजिला । रवि इस समय दूसरी मंजिल के कमरे में बैठा पढ़ रहा था । रवि जिस कमरे में बैठा था उसकी अध्ययन टेबिल के समान ऊंचाई पर एक खिड़की थी । यानि उसें सामने वाले मकान की छत स्पश्ट नजर आ रही थी । उस छत पर एक स्त्री अपने बच्चे को इस तरहा स्तनपान करवा रही थी - कि रवि की नजर जैसे जमकर रह गई थी ।
षाम का समय था सूर्य पष्चिम में पूरी तरहा डूब चुका था । अंधेरा आने को जैसे दस्तक दे रहा था - पड़ौस की अन्य छतों पें इस समय कोई नजर नहीं आ रहा था ।
रवि ने देखा वह स्त्री चारपाई पर लेटी थी तथा उसके दोनों उन्नत स्तन किसी भी जवां मर्द की तबीयत को बहकाने में सक्षम थे । और उसका पेटीकोट सिमट कर पेट तक पहुंचा था - जिससें उसकी गोरी मांसल जांघे स्पश्ट दीख रही थी । रवि का हलक सूखने लगा - उसने अपने जिस्म में कहीं तनाव महसूस किया।
इतने करीब किसी जवान जिस्म को देखने का उसका ये पहला मौका था । उसका चेहरा तमतमा उठा व होठ कंपकंपाने लगे ।
’’ये क्या कर रहे हो रवि - ये पाप है !’’ उसकी अन्तर्रात्मा से आवाज आई । रवि ने सोचा इस स्त्री को मालुम नहीं है षायद - कि उसे इस अवस्था में कोई देख रहा है ।
उसने खंकार कर गला साफ करने का अभिनय किया - मगर उसके आष्चर्य का ठिकाना न रहा यह देखकर कि अपनी अवस्था को ठीक करने की बजाय वो स्त्री बड़ी ही मादक मुस्कुराहट के साथ उसे निहारने लगी । अपनी अवस्था को ठीक उसने नहीं किया तो निगाहें रवि भी नहीं हटा सका ।
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अब उसने पास लेटे हुए बच्चे को अपने ऊपर लिटा लिया तथा उत्तेजक अन्दाज में उसे चूमने लगी ।
रवि को लगा कि वो जल जायेगा - उत्तेजना के मारे उसकी हालत खराब हो गई । ये लड़कियों को देखकर लड़कियों से जियादा षर्माने वाले रवि को न जाने क्या हो गया था आज ! अचानक उसे न जाने क्या सूझा उसने हाथ बढ़ाकर ’’भड़ाक’’ से खिड़की को बन्द कर दिया और रूमाल निकालने के लिये जेब की तरफ हाथ बढ़ा दिया ।
रवि ने खाने के लिए पहला निवाला मुंह की तरफ बढ़ाया ही था कि यकायक उसका हाथ रूक गया - बगल वाले कमरे से मामी का वही चिरपरिचित स्वर सुनायी दिया - वो षायद मामा के साथ झगड़ रही थी ।
मामा का गंभीर स्वर सुनाई दिया, ’’अरे भागवान ! इस तरहा चीखकर मत बोला करो - तुम्हें कितनी दफा समझाया है !...’’
प्रत्युत्तर में मामी की आवाज और तेज हो गई - जिसे सुन कर रवि के कान खड़े हो गये । ’’हां ! तुम तो मुझे ही दोश दोगे -अपनी बहन की तरहा !!...... मगर मैं चुप रहने वाली नहीं !..... अरे सहने की भी कोई हद होती है ........ वो मुस्टण्डा रवि इतना बड़ा हो गया - कमाकर एक पैसा लाता नहीं !......... कभी कुछ करता है तो कभी कुछ !........ एक धंधा तो जम कर करता नहीं !...... ये क्या खाक कमा कर खायेगा !..... और एक तुम हो कि कोई परवाह नहीं करते - अरे मेरा बस चलता तो धक्के मार कर निकाल देती - अब तक दोनों मां - बेटे को !.....’’
’’हां !....... तुम और लगाओ धक्के उन गरीबों को !....... ऐसे ही उन्होनें अब तक क्या कम धक्के खायें हैं !.........
मामा के इन षब्दों ने रवि तथा-उसके सामने बैठी मां को रूला ही तो दिया!.. और रवि तथा उसकी मां का इस घर में रहने का सबसे बड़ा कारण भी यही था। षान्ता (रवि की मां) अपने देवता जैसे भाई को बदनाम करना नहीं चाहती थी। जिन्होनें अपनी तरफ सें कोई कमी नहीं छोड़ी थी - उन लोगों की परवरिष के लिये। मगर षान्ता के भाई की किस्मत ने भी क्या रंग दिखाया था - देवता जैसे व्यक्ति को सावित्री जैसी पत्नी मिली थी ।
षान्ता सोचा करती थी कि वह अपनी कड़ी मेहनत से अपनी भाभी का दिल जीत लेगी - मगर अब तक सारे घर का काम करते चले आने के बावजूद भी वह तथा उसका रवि उसकी भाभाी की नजर में अब भी उसके घर पर थे - तो सिर्फ एक बोझ ।
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अब तक मामी का उच्च स्वर बन्द हो चुका था । वो कितनी देर और मामा से झगड़ती रही थी - इसका अहसास ना रवि को हो सका ना षान्ता को - दोनों अपने-अपने ख्यालों में न जाने कब तक डूबे रहे । सोचते-सोचते अकस्मात् षान्ता की नजर रवि पर पड़ी तो वो चैंक उठी-अब भी रवि के हाथ में मौजूद था वो पहला निवाला ।
’’रवि बेटे !...... खाना तो खा लो !......’’
’’आँ !...े... े... े... े....’’ जैसे नींद से जागा रवि । वह जैसे-तैसे खाने लगा । षांता फिर अपनी जिन्दगी के उस अतीत में पहुंच गई जहां सें वह यहां तक पहुंची थी । यद्यपि उसकी आंखे रवि की तरफ उठी थी - मगर दिमाग में अतीत की परछाईयां तैर रही थी । कितनी हसीन कितनी मधुर जिन्दगी थी वो - जब षान्ता की षादी हुई थी । उसकी नषीली आखों में कितने सुन्दर - सुन्दर सपने थे - अपने घर के लिये । मगर सब सपने वक्त के साथ बिखरते चले गये थे ।
उसके ससुराल पर बिमारी व दरिद्रता का षिकंजा इतना कसा हुआ था कि वो सब छटपटाने के अलावा कुछ भी ना कर पाते थे । उसके सास-ष्वसुर की बिमारी जैसे उनकी तकदीर बन गई थी-कर्ज निरन्तर बढ़ता जा रहा था । इस बीच षान्ता चार दफा मां बन चुकी थी । मगर वाह रे विधाता ! एक भी बच्चा जियादा नहीं जी पाया था ! और उस बदनसीब की ममता जैसे सिसकने के लिए बनी थी ।
और इस बार फिर एक बार षान्ता मां बनने वाली थी !...... अपने इस बच्चे की सलामती के लिए उसने ढ़ेरों मन्नतें मांगी - और रो-रो कर विधाता से प्रार्थनाऐं की थी, वह उस बदनसीब पर रहम करें - उसकी गोद ना उजाड़े !........
मगर दुर्भाग्य ने अब भी उसका पीछा नहीं छोड़ा था । अभी रवि उसके पेट में थ - कि उसकी जिन्दगी की वो सबसें मनहूस घड़ी आयी - जिसमें उसके जन्म-जन्म साथ निभाने वाले पति न जाने कहां गायब हो गये थे ।
’’क्या सोच रही हो मां !.....’’ रवि हाथ धोते हुए बोला ।
’’आँ-आँ !..... कुछ नहीं !..........’’ षांता जैसे नींद से जागी ।
रवि समझ गया था - मां किस बारे में सोच रही है !..........ओर उन लोगों की तकदीर में लिखा ही क्या है, सोचने के सिवा !
’’अच्छा मां ! मैं राकेष के यहां जाता हूँ तुम खाना खा लेना !......’’
षान्ता ने कोई जवाब नहीं दिया वह बस रवि को हाथ में किताब लिये जाते हुए एकटक देखती रही ।
’’ओ !........... रविन्द्र ठाकुर ! पढ़ने चलें क्या ?..........’’
मामी का व्यंग्यात्मक तीर रवि के दिल में उतर गया । मामी षायद किसी काम से कमरे से बाहर आयी थी उसने रवि को किताब लेकर जाते देखकर अपना प्रहार करही तो दिया ।
रवि कसमसा - सा उठा उसने कोई जवाब नहीं दिया - वह सर झुकाकर निकल गया ।
रवि तो चला गया था - अब षांता कमरे में अकेली रह गई थी ।
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उससें जितना खाया गया - खाना खाकर बत्ती बन्द कर चारपाई पर लेट गई । अब फिर अतीत की परछाईयां उसके मस्तिश्क पर दस्तक देने लगी । षान्ता ही जानती थी - उसने वो मनहूस रात कैसे काटी थी । मगर उसके पति को नहीं आना था नहीं आये - मानो वो मनहूस तूफानी रात निगल गई थी उन्हे !....... इस तरहा दो चार दिन से महीनों गुजर गये - मगर उसके पति का कहीं पता न था ।
इस बीच रवि का जन्म हुआ - तो उसें कुछ जीने का सहारा मिला !........ वक्त अपनी रफ्तार से चलता रहा - इस तरहा षान्ता के पति को गायब हुए चार वर्श हो चुके थे । षांता का जीना दुष्वार हो गया था न जाने क्या-क्या बातें बनाते थे लोग उनके बारे में । कोई कहता ’’कर्ज चुकाने के डर से भाग गया !.....’’ कोई कहता, ’’अरे अब तक जिन्दा थोड़े ही है वो न जाने कब का मर-खप गया । जितने मुंह उतनी बातें ।
इस बीच बूढ़े ष्वसुर परलोक सिधार चुके थे । सास मृत्यु-षय्या पर पड़ी थी । उसके पति जिन सेठ जी के यहां नौकरी करते थे - उनका षिकंजा सख्त होता जा रहा था । मकान उनके पास गिरवी था - उस समय क्या होगा उनका - जब ये मकान उनसे छीन लिया जायेगा !..... इस कल्पना मात्र से ही कंाप उठती थी षांता ।
षान्ता के देवर ने अपने भाई साहब की जगह काम करने की कोषिष की । मगर सेठ जी की नीयत में फर्क आ चुका था - वो इसके लिए तैयार ना हुए ।
वो बेचारा काम की तलाष में नेपाल चला गया था । अपनी बूढ़ी मां तथा षान्ता को रोता छोड़ कर ।
इस बीच दो वर्श और गुजर गये थे । मनोज के (षांता का देवर) कुछ पैसे कभी कभार आ जाते थे - जिनसे उनका गुजारा होना बहुत ही मुष्किल था । फाकों की नोबत तक रही थी उनके यहां - और एक दिन षंाता की सास भी चल बसी अपने बेटों का नाम लेते-लेते ।
अब प्रकृति और निर्दयी हो उठी थी षांता के लिये - अभी उसकी सास की चिता ठण्डी भी ना हुई थी कि उसे मनोज का पत्र प्राप्त हुआ - ज्यों-ज्यों षांता पत्र पढ़ती गई - उसकी हालत खराब होती गई । आंखो के आगे अंधेरा छा गया । और उसके मुंह से चीख निकल गई । मगर वहां उस बदनसीब की चीख सुनने वाला कौन था ? पत्र बहुत ही संक्षिप्त था - मगर उसमें लिखा एक - एक षब्द उसके लिए मृत्यू दण्ड से भी भंयकर सजा लेकर आया था ।
मनोज ने उसे लिखा था कि भैया वहां मिल गये थे - मगर एक लाष के रूप में - और उसने उनका अन्तिम संस्कार कर दिया था । षांता के हाथ से पत्र छुट कर गिर गया । वह दहाड़े मार कर रोने लगी - जैसे पागल हो गई थी वो दिवारों से अपना सर फोड़ने लगी ।
सामने वाले पड़ौसी घनष्यामदास जी ने उसकी चीखें सुनी । उनका माथा ठनका - वह दौड़े-दौड़े आये । अब घर के वीराने में अकेली रोती षांता घनष्यामदास जी को देख कर जैसे फट पड़ी - उसकी चीखें तेज हो गई
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उसने अपना सिर दिवार पर दे मारा तथा माथे से खून की धारा बहने लगी ।
’’क्या बात है बेटी ?.......’’घनष्यामदास जी ने षंकित दिल से प्रष्न किया ।
षान्ता ने नीचे फर्ष पर गिरे पत्र की ओर हाथ से ईषारा कर दिया - उसकी चीखें जैसे रूकने का नाम नहीं ले रही थी ।
घनष्यामदास जी ने जल्दी से पत्र उठाया ओर पढ़ते ही सब समझ गये । अब तक मोहल्ले की दो-चार औरतें आ चुकी थी । घनष्यामदास जी ने उन्हे कुछ समझाया और वे षान्ता को ढ़ाढ़स बंधाने की कोषिष करने लगी ।
मगर षान्ता पर तो जैसे जुनून सवार था । वो अपने आप को जैसे मिटाने पर तुली थी । रोते-रोते बेहोष हो गयी थी षान्ता ! फिर उसे जब कुछ होष आया तो उसके सामने उसके बड़े भैया सुधीर रवि के पास खड़े थे । सुधीर को अपनी इकलौती बहन के लड़के से बेहद प्यार था । वो अभी उसें बाहर से ही लाये थे । उनकी आंखे नम थी - रवि विस्मित-सा सभी की ओर देख रहा था । वो जब से कुछ-कुछ समझने लगा था उसने तो ऐसा ही वातावरण देखा था - आंसुओं का वातावरण ।
वह अपनी मां की तरफ बढ़ा तो षान्ता उसें झंझोड़ कर चीखने लगी ’’अरे अभागे !...... और क्या-क्या दिखायेगा !....’’कहने के साथ ही वह फिर रोने लगी ।
सुधीर ने रवि को छुड़ाया । रवि अपनी मां के इस रूप पर हक्का-बक्का रह गया - वह भी रोने लगा । सुधीर ने रवि को अपनी गोद में उठा लिया बोले, ’’इस मासूम को क्यों कोसती हो बहन !.....ये सब तो अपने नसीब के खेल है !...... भाग्य के आगे किसका जोर चला है !...’’ अब षांता के लिए इस धर में रखा ही क्या था - जिसका इन्तजार था वो आने से पहले बहुत दूर जा चुका था - बहुत दूर !
सुधीर भैया उसें तथा रवि को अपने साथ ले आये थे । और जब से वो लोग यहां आये थे - तब से लेकर आज तक षान्ता ने यही महसूस किया था - इस घर में भी दुर्भाग्य ने उनका पीछा नहीं छोड़ा था । सुधीर भैया के सिवाय और किसी को भी वो लोग रास नहीं आये थे । अब तक रात काफी गहरा चुकी थी । रवि पढ़ कर लौटा नहीं था । ’’षायद वहीं सोयेगा !.....’’षान्ता ने सोचा । अब उसें भी नींद ने आ घेरा था और कुछ ही देर बाद वो निद्रा देवी के आगोष में पहुंच चुकी थी ।
’’तो मिस्टर आषिक !........ कोई मुलाकात की सूरत बनी या नहीं ? .....’’ रवि ने कुछ मुस्कुराते हुए पूछा ।
’’हां कल चलेंगे !......’’
’’उसी तरह चोरों की भांति ?.........’’
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’’हां ! मगर इस दफा दोनों साथ चलेंगे !....... ’’ प्रकाश ने उत्तर दिया ।
’’मगर यार !...... ये तुम्हारी मोहब्बत भी बड़ी अजीब है !......’’
’’वो कैसे ?.........’’
’’वो तो साफ जाहिर है !........ मुझे तो ये मुहब्बत नहीं बल्कि मुहब्बत के नाम पर षारीरिक सम्बन्ध बनाने का खेल मालुम पड़ता है !.....’’ रवि ने अपने षक को प्रकट कर ही दिया ।
’’रवि !!.......’’ प्रकाश चीख सा उठा ।
’’देखो दोस्त !...... तुम्हें बुरा लगा । इसका मुझे अफसोस है - मगर तुम खुद सोचों क्या तुम्हारा जंगल बल्कि गांव के किनारे बने एकांत मकान में किसी अकेली लड़की से चोरों की तरहा मिलना तुम्हारी समझ के अनुसार मुहोब्बत हो सकती है । मगर कोई भी आदमी इस बात को स्वीकार नहीं करेगा !......’’
’’मुझे पता है ! मगर रवि -कम से कम तुम तो मुझे इतना घटिया आदमी मत समझो !.....’’
’’तूं चाहे कुछ भी कहे प्रकाश !..... इस हालात में तो किसी फरिष्ते पर भी षक किया जा सकता है !....’’
’’चलो दुनियां कुछ भी समझे मगर तुझे कल अवष्य पता चल जायेगा !...’’ इस बार विरोध करने की बजाय प्रकाश ने गोलमाल सा उत्तर दिया ।
’’कल क्यों ?. ...... आज ही बता दो ना !...’’
’’कोई फायदा नहीं - तुझे विष्वास तो होगा नहीं इसलिए आज के लिए यह प्रसंग समाप्त !....’’ प्रकाश ने टका - सा जवाब दे दिया ।
’’वो रहे दोनों !..... अरे पकड़ो जाने न पाये !....’’ रमेष ने इस अन्दाज में कहा मानो कोई पुलिस इन्सपैक्टर अपराधियों को देखकर कांस्टेबिलों को हिदायत दे रहा हो ।
रमेष की इस बात पर पार्क में प्रवेष करते हुए षेखर, विनोद तथा राकेष हंसने लगे । सिर्फ किषोर ने बुरा-सा मुंह बनाया - जिसें देखकर षेखर से रहा ना गया । वो बोला, ’’मिस्टर नालायक !...’’
’’मै नालायक नहीं गायक हूँ !.....’’
’’कोई बात नहीं - कोई बात नहीं पर कानून की नजर में सब बराबर है, क्या अमीर क्या गरीब !..... क्या नेता क्या अभिनेता, क्या गायक और क्या नालायक !......’’ षेखर अपनी वकालत की झोंक में बहने लगा ।
अब तक वो झगड़ते हुए रवि तथा प्रकाश के करीब पहुंच चुके थे और सब उनकी तरहा दूब पर बैठ गये ।
’’अम्माँ-यार !......’’ तुम लोग झगड़ते ही आये हो !..... अपनी इस आदत को छोड़ नहीं सकते तुम लोग !....’’ रवि ने आदत के अनुसार डांट पिलाई ।
इस कड़ी का दूसरा भाग पढ़ें :
नमस्कार सर , आपका उपन्यास बहुत अच्छा लगा इसके अगले भाग की बैचेनी से प्रतीक्षा है
जवाब देंहटाएं- रवि कान्त कर्वा
नमस्कार सर, दिल को छुने वाला है आपका यह उपन्यास अगला भाग कब दे रहे है -
जवाब देंहटाएंनमस्कार सर, ऐसी रचना पढ़कर फिर से किताबो में डूबने को जी चाहता है-
जवाब देंहटाएंRafi Sahab,
जवाब देंहटाएंAt the very outset, I would like to congratulate you for your maiden effort to pen down the novel. The theme of the novel reflects your subjectivity, You are an artist and you have portrayed the life sketch of a struggling artist. This artist is struggling not only as an artist but also as a youth who has to cork up feelings at a time. This struggle is normally typical for an Indian artist, be it the field of writing, music, painting or poetry. The words have been used as they are normally used by the semi-literate or so. The background drawn verbally adds to the effect of the novel.
Yours is a praiseworthy effort and I wish you all the best. I hope that day is not too far when you will shine out in your endeavour.
Congrats and best wishes,
Youra lovingly
P.K.Pandia
Asst Professor
email pkpandia2015@gmail.com
ज़नाब रफी साहब!सरल सहज भाषा,दिल को छूने वाला विषय इत्यादि खूबियों वाला उपन्यास पढ़ कर मन को सकून मिला।तहे दिल से मुबारकबाद।कामयाबी की दुआ करते हुए अगली पेशकश के इंतज़ार मे-मदन सोनी
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