Lord Shiva Story In Hindi ~ एक अलौकिक प्रेमकथा - सती से पार्वती तक ~ भाग १

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Lord Shiva Story In Hindi ~ एक अलौकिक प्रेमकथा - सती से पार्वती तक ~ भाग १

ॐ गणपतये नम:

भगवान शिव की कथा लिखना ! मुझ जैसे मामूली से इंसान के बस की बात नहीं है। ये मेरी सिर्फ एक छोटी सी कोशिश मात्र है। ये मेरी शिव भक्ति का एक रूप ही है। भगवान शिव के चरणों में मेरे शब्दों के पुष्प समर्पण ! मैं तो सिर्फ प्रस्तुत कर रहा हूँ। सब कुछ तो बहुत पहले से ही पुराणों, शास्त्रोंवेदोंपौराणिक कहानियों में मौजूद है। एक वेबसाइट adhyashakti से बहुत सामग्री मिलीमूल रूप से मैंने शिव महापुराण और स्कन्ध पुराण से कुछ सामग्री ली है . मैंने तो एक रिसर्च की है हमेशा की तरह और प्रिंट और इंटरनेट में छपे हुए साहित्य को अपनी शिव भक्ति की मदद से इस अमर प्रेम कथा को बुना है। और आप सभी के सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ। मैं उन सभी महानुभावों का दिल से आभारी हूँ, कि उन्होंने इतना कुछ लिख रखा है; मैंने उनके लेखन को बस एक नए रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश की है। इसमें मेरा कुछ भी नहीं है, सब कुछ भगवान शिव, माता सती, माता पार्वती और हम सब भक्तों का है ! सारे चित्र गूगल से साभार है। मूल कलाकारों को मेरा प्रणाम ! सारे महान लेखको और पूर्वजो को मेरे प्रणाम !

शिव के बारे में मुझ जैसे तुच्छ इंसान के द्वारा कैसे लिखा जाएइस शंका का समाधान बस मैं इसी मन्त्र से कर रहा हु। ये आचार्य पुष्पदंत जी ने अपने शिवमहिम्न: स्तोत्र में किया है। उसे ही प्रकट कर रहा हु।
महिम्नः पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी।
स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः।।
अथाऽवाच्यः सर्वः स्वमतिपरिणामावधि गृणन्।
ममाप्येष स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः।। १।।
भावार्थ: पुष्पदंत कहते हैं कि हे प्रभु ! बड़े बड़े विद्वान और योगीजन आपके महिमा को नहीं जान पाये तो मैं तो एक साधारण बालक हूँमेरी क्या गिनतीलेकिन क्या आपके महिमा को पूर्णतया जाने बिना आपकी स्तुति नहीं हो सकतीमैं ये नहीं मानता क्योंकि अगर ये सच है तो फिर ब्रह्मा की स्तुति भी व्यर्थ कहलाएगी। मैं तो ये मानता हूँ कि सबको अपनी मति अनुसार स्तुति करने का अधिकार है। इसलिए हे भोलेनाथ! आप कृपया मेरे हृदय के भाव को देखें और मेरी स्तुति का स्वीकार करें।

ॐ नमः शिवाय

देवाधिदेव महादेव भक्तों से सहज ही प्रसन्न होते हैं और उन्हें मनवांक्षित फल प्रदान करते हैं। विभिन्न रूपों में शिव हमारे लिए पूज्य हैं। ज्ञानबलइच्छा और क्रिया-शक्ति में भगवान शिव के समान कोई नहीं है। भगवान की कथा लिखने के पहले उन्हें आह्वान करना अत्यंत आवश्यक होता है।

और ये महादेव आह्वान महामंत्र उनके चरणों में समर्पित है

महादेव आह्वान महामंत्र स्तुति:

कैलासशिखरस्यं च पार्वतीपतिमुर्त्तममि।
यथोक्तरूपिणं शंभुं निर्गुणं गुणरूपिणम्।।
पंचवक्त्र दशभुजं त्रिनेत्रं वृषभध्वजम्।
कर्पूरगौरं दिव्यांग चंद्रमौलि कपर्दिनम्।।
व्याघ्रचर्मोत्तरीयं च गजचर्माम्बरं शुभम्।
वासुक्यादिपरीतांग पिनाकाद्यायुद्यान्वितम्।।
सिद्धयोऽष्टौ च यस्याग्रे नृत्यन्तीहं निरंतरम्।
जयज्योति शब्दैश्च सेवितं भक्तपुंजकै:।।
तेजसादुस्सहेनैव दुर्लक्ष्यं देव सेवितम्।
शरण्यं सर्वसत्वानां प्रसन्न मुखपंकजम्।।
वेदै: शास्त्रैर्ययथागीतं विष्णुब्रह्मनुतं सदा।
भक्तवत्सलमानंदं शिवमावाह्याम्यहम्।।

आइये भगवान शिव की भक्ति में डूब जाए और उनके और माता सती और माता पार्वती के अलौकिक प्रेम कथा का आनंद ले !
  प्रभो शूलपाणे विभो विश्वनाथ
महादेव शंभो महेश त्रिनेत्र
शिवाकान्त शान्त स्मरारे पुरारे
त्वदन्यो वरेण्यो न मान्यो न गण्यः
हे त्रिशूलधारी ! हे विभो विश्वनाथ ! हे महादेव ! हे शंभो ! हे महेश ! हे त्रिनेत्र ! हे पार्वतिवल्लभ ! हे शान्त ! हे स्मरणिय ! हे त्रिपुरारे ! आपके समक्ष  न कोई श्रेष्ठ हैन वरण करने योग्य हैन मान्य है और न गणनीय ही है।
एक अद्भुत प्रेम यात्रा - सती से पार्वती तक !

भगवान शिव

माता सती

भगवान शिव और माता सती

माता सती और भगवान शिव

माता सती

भगवान शिव

माता पार्वती

माता पार्वती और भगवान शिव

भगवान शिव और माता पार्वती विवाह

शंभो महेश करुणामय शूलपाणे
गौरीपते पशुपते पशुपाशनाशिन्
काशीपते करुणया जगदेतदेक-
स्त्वंहंसि पासि विदधासि महेश्वरोऽसि
हे शम्भो! हे महेश ! हे करूणामय ! हे शूलपाणे ! हे गौरीपति! हे पशुपति ! हे काशीपति ! आप ही सभी प्रकार के पशुपाश (मोह माया) का नाश करने वाले हैं। हे करूणामय आप ही इस जगत के उत्तपत्तिपालन एवं संहार के कारण हैं। आप ही इसके एकमात्र स्वामि हैं।
ॐ नमः शिवाय

ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्
उर्वारुकमिव बन्धनानत् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥

हम त्रिनेत्रधारी भगवान शंकर की पूजा करते हैं जो प्रत्येक श्वास में जीवन शक्ति का संचार करते हैंजो सम्पूर्ण जगत का पालन पोषण अपनी शक्ति से कर रहे है, उनसे हमारी प्रार्थना है कि जिस प्रकार एक ककड़ी अपनी बेल में पक जाने के उपरांत उस बेल रुपी संसार के बंधन से मुक्त हो जाती है , उसी प्रकार हम भी इस संसाररुपी बेल मेंपक जाने के उपरांत  जन्म मृत्यो के बन्धनों से सदा के लिए मुक्त हो जाए और आपके चरणों की अमृतधारा का पान करते हुए शरीर को त्यागकर आप ही में  लीं हो जाए और मोक्ष को प्राप्त कर ले !

कर-चरणकृतं वाक्कायजं कर्मजं वा
श्रवणनयनजं वा मानसं वापराधम,
विहितमविहितं वा सर्वमेतत्क्षमस्व,
जय-जय करुणाब्धे श्री महादेव शम्भो॥’

अर्थात - हाथों सेपैरों सेवाणी सेशरीर सेकर्म सेकर्णों सेनेत्रों से अथवा मन से भी हमने जो अपराध किए होंवे विहित हों अथवा अविहितउन सबको क्षमा कीजिए,  हे करुणासागर महादेव शम्भो !   आपकी जय होजय हो । 

तस्मै नम: परमकारणकारणाय , दिप्तोज्ज्वलज्ज्वलित पिङ्गललोचनाय ।
नागेन्द्रहारकृतकुण्डलभूषणाय , ब्रह्मेन्द्रविष्णुवरदाय नम: शिवाय ॥ 1 
जो (शिव) कारणों के भी परम कारण हैं, ( अग्निशिखा के समान) अति दिप्यमान उज्ज्वल एवं पिङ्गल नेत्रोंवाले हैंसर्पों के हार-कुण्डल आदि से भूषित हैं तथा ब्रह्माविष्णुइन्द्रादि को भी वर देने वालें हैं – उन शिव जी को नमस्कार करता हूँ।

भगवान शिव

भगवान शिव तब से है जब से सृष्टि है। सृष्टि के आदिकाल में न सत था न असतन वायु थी न आकाशन मृत्यु थी और न अमरतान रात थी न दिनउस समय केवल वही थाजो वायु रहित स्थिति में भी अपनी शक्ति से सांस ले रहा था। उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं था। वही परमात्मा हैजिसमें से संपूर्ण सृष्टि और आत्माओं की उत्पत्ति हुई है। विश्व की उत्पत्तिस्थिति और विनाश का कारण यही ब्रह्म है। तब वही तत्सदब्रह्म ही था जिसे श्रुति में सत कहा गया है। सत अर्थात अविनाशी परमात्मा। उस अविनाशी पर ब्रह्म (काल) ने कुछ काल के बाद द्वितीय की इच्छा प्रकट की। उसके भीतर एक से अनेक होने का संकल्प हुआ। तब उस निराकार परमात्मा ने अपनी लीला शक्ति से आकार की कल्पना कीजो मूर्ति रहित परम ब्रह्म है। परम ब्रह्म अर्थात एकाक्षर ब्रह्म। परम अक्षर ब्रह्म। वह परम ब्रह्म भगवान सदाशिव है। अर्वाचीन और प्राचीन विद्वान उन्हीं को ईश्वर कहते हैं। उन्हें ही शिव कहते है। उस समय केवल सदा शिव की ही सत्ता थी जो विद्यमानजो अनादि और चिन्मय कही जाती थी। उन्हीं भगवान सदाशिव को वेद पुराण और उपनिषद तथा संत महात्मा; ईश्वर तथा सर्वलोकमहेश्वर कहते हैं। वही हमारी इस कथा के नायक है – भगवान शिव !

भगवान शिव के मन में सृष्टि रचने की इच्छा हुई। उन्होंने सोचा कि में एक से अनेक हो जाऊं। यह विचार आते ही सबसे पहले परमेश्वर शिव ने अपनी परा शक्ति अम्बिका को प्रकट किया तथा उनसे कहा सृष्टि के लिए किसी दूसरे पुरुष का सृजन करना चाहिएजिसके कंधे पर सृष्टि चलन का भार रखकर हम आनंदपूर्ण विचरण कर सकें। शिव और शक्ति एक ही परमात्मा के दो रूप है, इसी कारण भगवान शिव को अर्धनारीश्वर भी कहा जाता है। सृष्टि को रचने का समय आ गया था। और यही शिव का मुख्य कार्य में से एक थाआखिर वो परमात्मा थे।

ऐसा निश्चय करके शक्ति सहित परमेश्वर शिवा ने आपने वाम अण्ड के १० वे भाग पर अमृत मल दिया। वहाँ से तत्काल एक दिव्य पुरुष प्रकट हुआ। उसका सौन्दर्य अतुलनीय था। उसमें सर्वगुण संपन्न की प्रधानता थी। वह परम शांत और सागर की तरह गंभीर था। उसके चार हाथों में शंखचक्रगदा और पध सुशोभित हो रहे थे। उस दिव्य पुरुष ने भगवान शिव को प्रणाम करके कहा ‘भगवन मेरा नाम निश्चित कीजिये और काम बताइये।’ उसकी बात सुनकर भगवान शिव शंकर ने मुस्कराते हुए कहा ‘वत्स! व्यापक होने के कारण तुम्हारा नाम विष्णु होगा। सृष्टि का पालन करना तुम्हारा काम होगा। इस समय तुम उत्तम तप करो’।

भगवान शिव का आदेश प्राप्त कर विष्णु कठोर तपस्या करने लगे। उस तपस्या के श्रम से उनके अंगों से जल धाराएं निकलने लगीजिससे सुना आकाश भर गया। अंततः उन्होंने थककर उसी जल में शयन किया।

तदनंतर सोये हुए नारायण की नाभि से एक उत्तम कमल प्रकट हुआ। उसी समय भगवान शिव ने अपने दाहिने अण्ड से चतुर्मुखः ब्रह्मा को प्रकट करके उस कमल पर बैठा दिया। महेश्वर की माया से मोहित हो जाने के कारण बहुत दिनों तक ब्रह्मा जी उस कमल की नाल में भ्रमण करते रहे। किन्तु उन्हें अपने उत्पक्तिकर्ता का पता नहीं लगा। आकाशवाणी द्वारा तप का आदेश मिलने पर आपने जन्मदाता के दर्शनाथ बारह वर्षों तक कठोर तपस्या की। तत्पश्चात उनके सम्मुख विष्णु प्रकट हुए। श्री परमेश्वर शिव की लीला से उस समय वहाँ श्री विष्णु और ब्रह्मा जी के बीच विवाद हो गया। और ये विवाद उन दोनों के मध्य अपनी श्रेष्ठता को लेकर था, ये विवाद बढ़ते ही गया। कुछ देर बाद उन दोनों के मध्य एक अग्निस्तम्भ प्रकट हुआ। बहुत प्रयास के बाद भी विष्णु एंड ब्रह्मा जी उस अग्निस्तम्भ के आदि – अंत का पता नहीं लगा सके।

अंततः थककर भगवान विष्णु ने प्रार्थना किया, “ हे महाप्रभुहम आपके स्वरूप को नहीं जानते। आप जो कोई भी हैं' हमें दर्शन दीजिये। भगवान विष्णु की स्तुति सुनकर महेश्वर सहसा प्रकट हो गए और बोले,हे सुरश्रेष्ठगण ! मैं तुम दोनों के तप और भक्ति से भलीभांति संतुष्ट हूँ। ब्रम्हा, तुम मेरी आज्ञा से जगत की सृष्टि करो और वत्स विष्णुतुम इस चराचर जगत का पालन करो।‘ तदनंतर भगवान शिव ने अपने हृदय भाग से रुद्र को प्रकट किया और संहार का दायित्व सौंपकर वही अंतर्ध्यान हो गये।

शिव आदि देव है। वे महादेव हैंसभी देवों में सर्वोच्च और महानतम है शिव को ऋग्वेद में रुद्र कहा गया है। पुराणों में उन्हें महादेव के रूप में स्वीकार किया गया है। वे ही इस जगत की सृष्टि करते हैंइसकी रक्षा करते हैं और अंत में इसका संहार करते हैं। ‘रु’ का अर्थ है-दुःख तथा ‘द्र’ का अर्थ है-द्रवित करना या हटाना अर्थात् दुःख को हरने (हटाने) वाला। शिव की सत्ता सर्वव्यापी है। प्रत्येक व्यक्ति में आत्म-रूप में शिव का निवास है.

सब कुछ शिव मय है। शिव से परे कुछ भी नहीं है। इसीलिए कहा गया है- ‘शिवोदाता
शिवोभोक्ता शिवं सर्वमिदं जगत्। शिव ही दाता हैंशिव ही भोक्ता हैं। जो दिखाई पड़ रहा है यह सब शिव ही है। शिव का अर्थ है-जिसे सब चाहते हैं। सब चाहते हैं अखण्ड आनंद को। शिव का अर्थ है आनंद। शिव का अर्थ है-परम मंगलपरम कल्याण।

भगवान शिवमात्र पौराणिक देवता ही नहीं
अपितु वे पंचदेवों में प्रधानअनादि सिद्ध परमेश्वर हैं एवं निगमागम आदि सभी शास्त्रों में महिमामण्डित महादेव हैं। वेदों ने इस परमतत्त्व को अव्यक्तअजन्मासबका कारणविश्वपंच का स्रष्टापालक एवं संहारक कहकर उनका गुणगान किया है। श्रुतियों ने सदा शिव को स्वयम्भूशान्तप्रपंचातीतपरात्परपरमतत्त्वईश्वरों के भी परम महेश्वर कहकर स्तुति की है। परम ब्रह्म के इस कल्याण रूप की उपासना उच्च कोटि के सिद्धोंआत्मकल्याणकामी साधकों एवं सर्वसाधारण आस्तिक जनों-सभी के लिये परम मंगलमयपरम कल्याणकारीसर्वसिद्धिदायक और सर्वश्रेयस्कर है। शास्त्रों में उल्लेख मिलता है कि देवदनुजऋषिमहर्षियोगीन्द्रमुनीन्द्रसिद्धगन्धर्व ही नहींअपितु ब्रह्मा और विष्णु तक इन महादेव की उपासना करते हैं।
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सामान्यतः ब्रह्मा को सृष्टि का रचयिताविष्णु को पालक और शिव को संहारक माना जाता है। परन्तु मूलतः शक्ति तो एक ही हैजो तीन अलग-अलग रूपों में अलग-अलग कार्य करती है। वह मूल शक्ति शिव ही हैं। ब्रह्माविष्णुशंकर (त्रिमूर्ति) की उत्पत्ति महेश्वर अंश से ही होती है। मूल रूप में शिव ही कर्ताभर्ता तथा हर्ता हैं। सृष्टि का आदि कारण शिव है। शिव ही ब्रह्म हैं। ब्रह्म की परिभाषा है - ये भूत जिससे पैदा होते हैंजन्म पाकर जिसके कारण जीवित रहते हैं और नाश होते हुए जिसमें प्रविष्ट हो जाते हैंवही ब्रह्म है। यह परिभाषा शिव की परिभाषा है। शिव आदि तत्त्व हैवह ब्रह्म हैवह अखण्डअभेद्यअच्छेद्यनिराकारनिर्गुण तत्त्व है। वह अपरिभाषेय हैवह नेति-नेति है।

इस तरह से भगवान शिव ने सृष्टि का भार विष्णु और ब्रह्मा को देकर तपस्या में लीन हो गए !

श्रीमत्प्रसन्नशशिपन्नगभूषणाय , शैलेन्द्रजावदनचुम्बितलोचनाय ।
कैलासमन्दरमहेन्द्रनिकेतनाय , लोकत्रयार्तिहरणाय नम: शिवाय ॥ 2 
जो निर्मल चन्द्र कला तथा सर्पों द्वारा ही भुषित एवं शोभायमान हैंगिरिराजग्गुमारी अपने मुख से जिनके लोचनों का चुम्बन करती हैंकैलास एवं महेन्द्रगिरि जिनके निवासस्थान हैं तथा जो त्रिलोकी के दु:ख को दूर करनेवाले हैंउन शिव जी को नमस्कार करता हूँ।
माता सती

इस तरह से सृष्टि का प्रारम्भ हुआ और अन्य देवताओं का उदय हुआ। समय का चक्र बीतते गया और फिर एक बार शिव के पत्नी के लिए ब्रम्हा ने माता सती के जन्म का उपाय सोचा।

भगवान ब्रह्मा के दक्षिणा अंगुष्ठ से प्रजापति दक्ष की उत्पत्ति हुई। दक्ष प्रजापति परमपिता ब्रह्मा के पुत्र थेजो कश्मीर घाटी के हिमालय क्षेत्र में रहते थे। भगवान ब्रह्मा के मानस पुत्रों में से एक प्रजापति दक्ष का पहला विवाह स्वायंभुव मनु और शतरूपा की तीसरी पुत्री प्रसूति से हुआ। प्रजापति दक्ष की दो पत्नियां थीं प्रसूति और वीरणी। दक्ष प्रजापति की कई पुत्रियां थी। सभी पुत्रियां गुणवती थीं। पर दक्ष के मन में संतोष नहीं था।

एक बार ब्रह्मा जी ने अपने पुत्र दक्ष प्रजापति से कहा! “पुत्र मैं तुम्हारे परम कल्याण की बात कह रहा हूँ। भगवान शिव ने 'पूर्णा परा प्रकृति' (देवी आदि शक्ति ) को पत्नी स्वरूप प्राप्त करने हेतु पूर्व में आराधना की थीं। जिसके परिणामस्वरूप देवी आदि शक्ति ने उन्हें वर प्रदान किया, 'वह कहीं उत्पन्न होंगी तथा शिव को पति रूप में वरन करेंगी।तुम उग्र तपस्या कर उन आदि शक्ति को प्रसन्न करो और उन्हें अपनी पुत्री रूप में प्राप्त करोजिसके पश्चात उनका शिव जी से विवाह करना। परम-सौभाग्य से वह आदि शक्ति देवी जिसके यहाँ जन्म लेगी उसका जीवन सफल हो जायेगा।

प्रजापति दक्ष ने ब्रह्मा जी को आश्वासन दिया की वह घोर साधना कर देवी आदि शक्ति को अपने पुत्री रूप में प्राप्त करेंगे। वे चाहते थे उनके घर में एक ऐसी पुत्री का जन्म होजो शक्ति-संपन्न हो। सर्व-विजयिनी हो। दक्ष एक ऐसी पुत्री के लिए तप करने लगे। प्रजापति दक्षदेवी की आराधना हेतु तत्पर हुए तथा उपवासादी नाना व्रतों द्वारा कठोर तपस्या करते हुए उन्होंने देवी आदि शक्ति की आराधना की। दक्ष की तपस्या से संतुष्ट हो देवी आदि शक्तिने उन्हें दर्शन दिया! वे चार भुजाओं से युक्त एवं कृष्ण वर्ण की थीं तथा गले में मुंड-माला धारण किये हुए थीं। नील कमल के समान उनके नेत्र अत्यंत सुन्दर प्रतीत हो रहे थे तथा वे सिंह के पीठ पर विराजमान थीं। देवी आदि शक्ति ने दक्ष प्रजापति से तपस्या का कारण पूछा! साथ ही उन्हें मनोवांछित वर प्रदान करने का आश्वासन दिया। इस प्रकार देवी से आश्वासन पाने दक्ष ने उन्हें अपने यहाँ पुत्री रूप में जन्म धारण करने हेतु निवेदन किया।

देवी आदि शक्ति ने प्रजापति दक्ष से कहा मैं तुम्हारे यहाँ जन्म धारण करूँगी तथा भगवान शिव की पत्नी बनूँगीमैं तुम्हारी तपस्या से संतुष्ट हूँ। मैं तुम्हारे घर में तब तक रहूंगी जब तक की तुम्हारा पुण्य क्षीण न हो और तुम्हारे द्वारा मेरे प्रति अनादर करने पर मैंपुनः अपनी यह आकृति धारण कर वापस अपने धाम को चली जाऊंगी। इस प्रकार देवी दक्ष से कह कर वहां से अंतर्ध्यान हो गई।

फलतः माँ
 भगवती आद्य शक्ति ने सती रूप में दक्ष प्रजापति के यहाँ जन्म लिया। दक्ष पत्नी प्रसूति ने एक कन्या को जन्म दिया तथा दसवें दिन सभी परिवार जनों ने एकत्रित होउस कन्या का नाम ‘सती रखा।
जैसे जैसे सती की आयु बढ़ी, वैसे वैसे ही उसकी सुन्दरता और गुण भी बढने लगे। सती दक्ष की सभी पुत्रियों में अलौकिक थीं। उन्होंने बाल्यकाल में ही कई ऐसे अलौकिक कृत्य कर दिखाए थेजिन्हें देखकर स्वयं दक्ष को भी विस्मय की लहरों में डूब जाना पड़ा।

प्रसूति से दक्ष की 24 कन्याएं थीं और वीरणी से 60 कन्याएं। इस तरह दक्ष की 84 पुत्रियां थीं। समस्त दैत्यगंधर्वअप्सराएंपक्षीपशु सब सृष्टि इन्हीं कन्याओं से उत्पन्न हुई। दक्ष की ये सभी कन्याएंदेवीयक्षिणीपिशाचिनी आदि। दक्ष की ये सभी कन्याएंदेवीयक्षिणीपिशाचिनी आदि कहलाईं। उक्त कन्याओं और इनकी पुत्रियों को ही किसी न किसी रूप में पूजा जाता है। प्रसूति से दक्ष की 24 पुत्रियांश्रद्धालक्ष्मीधृतितुष्टिपुष्टिमेधाक्रियाबुद्धिलज्जावपुशांतिसिद्धिकीर्तिख्यातिसतीसम्भूतिस्मृतिप्रीतिक्षमासन्नतिअनुसूयाऊर्जास्वाहासती और स्वधा। पर्वत राजा दक्ष ने अपनी 13पुत्रियों का विवाह धर्म से किया। ये १३ पुत्रियाँ है श्रद्धा ,लक्ष्मीधृतितुष्टिपुष्टिमेधाक्रियाबुद्धिलज्जावपुशांतिसिद्धि और कीर्ति। इसके बाद ख्याति का विवाह महर्षि भृगु सेसम्भूति का विवाह महर्षि मरीचि सेस्मृति का विवाह महर्षि अंगीरस सेप्रीति का विवाह महर्षि पुलत्स्य सेसन्नति का कृत सेअनुसूया का महर्षि अत्रि सेऊर्जा का महर्षि वशिष्ठ सेस्वाहा का पितृस से हुआ।

अब बची देवी सती, उनका विवाह तो शिव से ही होना था। उनका जन्म ही उनके ही लिए जो हुआ था। यही देवी सती हमारी कथा की नायिका है।
  
पद्मावदातमणिकुण्डलगोवृषाय , कृष्णागरुप्रचुरचन्दनचर्चिताय ।
भस्मानुषक्तविकचोत्पलमल्लिकाय , नीलाब्जकण्ठसदृशाय नम: शिवाय ॥ 3 
जो स्वच्छ पद्मरागमणि के कुण्डलों से किरणों की वर्षा करने वाले हैंअगरू तथा चन्दन से चर्चित तथा भस्मप्रफुल्लित कमल और जूही से सुशोभित हैं ऐसे नीलकमलसदृश कण्ठवाले शिव को नमस्कार है ।

दक्ष और सती

पूर्व काल मेंसमस्त महात्मा मुनि प्रयाग में एकत्रित हुएवहां पर उन्होंने एक बहुत बड़े यज्ञ का आयोजन किया। उस यज्ञ में तीनों लोकों के समस्त ज्ञानी-मुनिजनदेवर्षिसिद्ध गणप्रजापति इत्यादि सभी आयें। भगवान शिव भी उस यज्ञ आयोजन पर पधारे थेउन्हें आया हुए देख वहां पर उपस्थित समस्त गणो ने उन्हें प्रणाम किया। इसके पश्चात वह पर दक्ष प्रजापति आयेंउन दिनों वे तीनों लोकों के अधिपति थे, इस कारण सभी के सम्माननीय थे। परन्तु अपने इस गौरवपूर्ण पद के कारण उन्हें बड़ा अहंकार भी था। उस समय उस अनुष्ठान में उपस्थित सभी ने नतमस्तक होकर उन्हें प्रमाण कियापरन्तु भगवान शिव ने उनके सम्मुख मस्तक नहीं झुकायावे अपने आसन पर बैठे रहे। इस कारण दक्ष मन ही मन उन पर अप्रसन्न हुएउन्हें क्रोध आ गया तथा बोले “सभी देवताअसुरब्राह्मण इत्यादि मेरा सत्कार करते हैंमस्तक झुकाते हैंपरन्तु वह दुष्ट भूत-प्रेतों का स्वामीश्मशान में निवास करने वाला शिवमुझे क्यों नहीं प्रणाम करते ? इसके वेदोक्त कर्म लुप्त हो गए हैंयह भूत और पिशाचों से सेवित हो मतवाला बन गया हैं तथा शास्त्रीय मार्ग को भूल करनीति-मार्ग को सर्वदा कलंकित किया करता हैं। इसके साथ रहने वाले गण पाखंडीदुष्टपापाचारी होते हैंस्वयं यह स्त्री में आसक्त रहनेवाला तथा रति-कर्म में ही दक्ष हैं। यह रुद्र चारों वर्णों से पृथक तथा कुरूप हैंइसे यज्ञ से बहिष्कृत कर दिया जाए। यह श्मशान में वास करने वाला तथा उत्तम कुल और जन्म से हीन हैंदेवताओं के साथ यह यज्ञ का भाग न पाएं।”

दक्ष के कथन का अनुसरण कर भृगु आदि बहुत से महर्षिशिव को दुष्ट मानकर उनकी निंदा करने लगे। दक्ष की बात सुनकर नंदी को बड़ा क्रोध आया तथा दक्ष से कहा! “ दुर्बुद्धि दक्ष ! तूने मेरे स्वामी को यज्ञ से बहिष्कृत क्यों कियाजिनके स्मरण मात्र से यज्ञ सफल और पवित्र हो जाते हैंतूने उन शिव जी को कैसे श्राप दे दियाब्राह्मण जाति की चपलता से प्रेरित हो तूने इन्हें व्यर्थ ही श्राप दे दिया हैंवे सर्वथा ही निर्दोष हैं।"

नंदी द्वारा इस प्रकार कहने पर दक्ष क्रोध के मारे आग-बबूला हो गया तथा उनके नेत्र चंचल हो गए और उन्होंने रुद्र गणो से कहा! “तुम सभी वेदों से बहिष्कृत हो जाओवैदिक मार्ग से भ्रष्ट तथा पाखण्ड में लग जाओ तथा शिष्टाचार से दूर रहोसिर पर जटा और शरीर में भस्म एवं हड्डियों के आभूषण धारण कर मद्यपान में आसक्त रहो।”

इस पर नंदी अत्यंत रोष के वशीभूत हो गए और दक्ष को तत्काल इस प्रकार कहा, “तुझे शिव तत्व का ज्ञान बिलकुल भी नहीं हैंभृगु आदि ऋषियों ने भी महेश्वर का उपहास किया हैं। भगवान रुद्र से विमुख तेरे जैसे दुष्ट ब्राह्मणों को मैं श्राप देता हूँ! सभी वेद के तत्व ज्ञान से शून्य हो जायेब्राह्मण सर्वदा भोगो में तन्मय रहें तथा क्रोधलोभ और मद से युक्त हो निर्लज्ज भिक्षुक बने रहेंदरिद्र रहें। सर्वदा दान लेने में ही लगे रहेदूषित दान ग्रहण करने के कारण वे सभी नरक-गामी होउनमें से कुछ ब्राह्मण ब्रह्म-राक्षस हो। शिव को सामान्य समझने वाला दुष्ट दक्ष तत्व ज्ञान से विमुख हो जाये। यह आत्मज्ञान को भूल कर पशु के समान हो  जाये तथा दक्ष धर्म-भ्रष्ट हो शीघ्र ही बकरे के मुख से युक्त हो जाये।"

क्रोध युक्त नंदी को भगवान शिव ने समझाया, “तुम तो परम ज्ञानी होतुम्हें क्रोध नहीं करना चाहियेतुमने व्यर्थ ही ब्राह्मण कुल को श्राप दे डाला। वास्तव में मुझे किसी का श्राप छु नहीं सकता हैंतुम्हें व्यर्थ उत्तेजित नहीं होना चाहिये। वेद मंत्राक्षरमय और सूक्तमय हैंउसके प्रत्येक सूक्त में देहधारियों के आत्मा प्रतिष्ठित हैंकिसी की बुद्धि कितनी भी दूषित क्यों न हो वह कभी वेदों को श्राप नहीं दे सकता हैं। तुम सनकादिक सिद्धो को तत्व-ज्ञान का उपदेश देने वाले होशांत हो जाओ।‘

इस के पश्चात एक और ऐसी घटना घटी जिसके कारण दक्ष के हृदय में भगवान शिव के प्रति बैर और विरोध पैदा हो गया। जिसने दक्ष को और दुःखी कर दिया। कल्प के आदि में शिव जी के द्वारादक्ष के पिता ब्रह्मा जी का एक मस्तक कट गया थावे पांच मस्तकों से युक्त थेअतः शिव जी को दक्ष ब्रह्म हत्या का दोषी मानते थे। ये भी एक कष्ट देने वाली बात थी दक्ष के लिए !

यज्ञ शाला से आने के पश्चात प्रजापति दक्ष शिव द्वारा अपने पिता ब्रह्म देव का मुख काटकर किये गए अपमान और यज्ञ शाला में स्वयं के हुवे अपमान को याद कर ईर्ष्या और वैमनस्य भाव से मन ही मन भगवान शिव को नीचा दिखाकर अपमानित करने पर विचार करने लगे।

और जब बाकी सारी कन्याओं का विवाह हुआ तो दक्ष को सती के विवाह की चिंता शुरू हुई। उन्हें ध्यान आया कि यह साक्षात् भगवती आदि शक्ति हैं इन्होंने पूर्व से ही किसी और को पति बनाने का निश्चय कर रखा हैं। परन्तु दक्ष ने सोचा कि शिव जी के अंश से उत्पन्न रुद्र उनके आज्ञाकारी हैंउन्हें ससम्मान बुलाकर मैं अपनी इस सुन्दर कन्या को कैसे दे सकता हूँ।

इस बीच दक्ष के महल में तुलसी विवाह उत्सव पर तुलसी और भगवान सालिगराम के विवाह का आयोजन किया जाता है। जिसमें सती रंगोली में शिव की आकृति बना देती है और उसमे खो जाती  है; जिसे देख प्रजापति दक्ष झल्ला उठते है। राजकुमारी सती को उनकी शिव भक्त दासी शिव की महिमा के बारे में बताती है। सती द्वारा फेंका गया रुद्राक्ष पुनः महल के कक्ष में मिलता है। सती उसे फल समझ अपने पास रख लेती है। असुर सम्राट के आदेश पर राक्षस सती को मरने का हर सम्भव प्रयास करते है। देवताओं के आग्रह पर भगवान शिव सती की रक्षा के लिए सती के समक्ष प्रकट होते है दैत्यों से सती की रक्षा करते है। शिव को देख सती शिवमय हो जाती है। सती शिव से जुड़ाव सा महसूस करने लगती है। भगवान शिव अंतर्ध्यान हो गए। सती महल में आ अपनी शिव भक्त दासी से भगवान शिव से उनके मिलने की बात कहती है।

इस तरह से माता सतीभगवान शिव के प्रेम में आसक्त हो कर उचित समय की प्रतीक्षा करने लगती है।

लम्बत्स पिङ्गल जटा मुकुटोत्कटाय , दंष्ट्राकरालविकटोत्कटभैरवाय ।
व्याघ्राजिनाम्बरधराय मनोहराय , त्रिलोकनाथनमिताय नम: शिवाय ॥ 4 
जो लटकती हुई पिङ्गवर्ण जटाओंके सहित मुकुट धारण करने से जो उत्कट जान पड़ते हैं तीक्ष्ण दाढ़ों के कारण जो अति विकट और भयानक प्रतीत होते हैंसाथ ही व्याघ्रचर्म धारण किए हुए हैं तथा अति मनोहर हैंतथा तीनों लोकों के अधिश्वर भी जिनके चरणों में झुकते हैंउन शिव जी को नमस्कार करता हूँ।
सती और शिव विवाह

एक दिन सती भ्रमण के लिए निकलती है। सती को देख ऋषि दधीचि उन्हें दंडवत प्रणाम कराते है। महल में जाकर सती शिव से विवाह की अपनी इच्छा जाहिर करती है जिस पर प्रजापति दक्ष क्रोधित हो उठते है। सती दक्ष के महल और सुख सुविधाओं का त्याग कर मन में शिव से विवाह की इच्छा ले वन में तपस्या के लिए जाती है। सती के आवाहन पर शिव प्रकट हो सती को दक्ष के पास लौटने की सलाह देते है।

उधर महल में प्रसूति के कहने पर दक्ष सती के लिए उचित वर खोजने लगते है। सती के विवाह हेतु दक्ष स्वयंवर का आयोजन करते है। दक्ष ने इस प्रकार सोच करएक सभा का आयोजन किया जिसमें सभी देवतादैत्यगन्धर्वकिन्नर इत्यादि को निमंत्रित किया गयापरन्तु त्रिशूल धारी शिव को नहींजिससे उस सभा में शिव न आ पायें। शिव को अपमानित करने के उद्देश्य से प्रजापति दक्ष स्वयंवर में द्वारपाल की जगह सिर झुकाये शिव की प्रतिमा विराजित करते है।

दक्ष प्रजापति ने अपने सुन्दर भवन में सती के निमित्त स्वयं-वर आयोजित किया! उस सभा में सभी देवदैत्यमुनि इत्यादि आयें। सभी अतिथि-गण वहां नाना प्रकार के दिव्य वस्त्र तथा रत्नमय अलंकार धारण किये हुए थेवे नाना प्रकार के रथ तथा हाथियों पर आयें थे। इस विशेष अवसर पर भेरी (नागड़ा)मृदंग और ढोल बज रहें थेसभा में गन्धर्वों द्वारा सु-ललित गायन प्रस्तुत किया जा रहा था। सभी अतिथियों के आने पर दक्ष प्रजापति ने अपनी त्रैलोक्य-सुंदरी कन्या सती को सभा में बुलवाया। इस अवसर पर शिव जी भी अपने वाहन वृषभ में सवार होकर वहां आयेंसर्वप्रथम उन्होंने आकाश से ही उस सभा का अवलोकन किया।

सभा को
 शिव विहीन देख करदक्ष ने अपनी कन्या सती से कहा, “पुत्री यहाँ एक से एक सुन्दर देवतादैत्यऋषिमुनि एकत्रित हैंतुम इनमें से जिसे भी अपने अनुरूप गुण-सम्पन्न युक्त समझोउस दिव्य पुरुष के गले में माला पहना करउसको अपने पति रूप में वरन कर लो।” सती देवी ने आकाश में उपस्थित भगवान शिव को प्रणाम कर वर माला को भूमि पर रख दिया तथा उनके द्वारा भूमि पर रखी हुई वह माला शिव जी ने अपने गले में डाल लियाभगवान शिव अकस्मात् ही उस सभा में प्रकट हो गए। उस समय शिव जी का शरीर दिव्य रूप-धारी थावे नाना प्रकार के अलंकारों से सुशोभित थेउनकी शारीरिक आभा करोड़ों चन्द्रमाओं के कांति के समान थीं। सुगन्धित द्रव्यों का लेपन करने वालेकमल के समान तीन नेत्रों से युक्त भगवान शिव देखते-देखते प्रसन्न मन युक्त हो वहां से अंतर्ध्यान हो गए।

इस तरह से स्वयंवर में सती शिव से अपने आत्मिक प्रेम को आधार बना शिव का आवाहन कर शिव प्रतिमा को वरमाला डाल भगवान शिव का पति रूप में वरन करती है। शिव प्रकट हो सती को अपनी भार्या के रूप में स्वीकार करते है किन्तु प्रजापति दक्ष इस विवाह को नहीं मानने पर ब्रह्म देव और दक्ष के आराध्य देव भगवान विष्णु दक्ष को शिव सती विवाह को अपनी स्वीकृति प्रदान करने को कहते है। अपने आराध्य का मान रख दक्ष विवाह को अपनी स्वीकृति प्रदान करते है। शिव सती के मिलन से चारों दिशाओं में हर्ष दौड़ उठता है। इस विवाह से शिव सती दोनों पुनः सम्पूर्णता को प्राप्त करते है। सती दक्ष के महल से विदा हो शिव के साथ कैलाश पर्वत पर जा रहने लगती है। 

  

दक्षप्रजापतिमहाखनाशनाय , क्षिप्रं महात्रिपुरदानवघातनाय ।
ब्रह्मोर्जितोर्ध्वगक्रोटिनिकृंतनाय , योगाय योगनमिताय नम: शिवाय ॥ 5 
जो दक्षप्रजापति के महायज्ञ को ध्वंस करने वाले हैंजिन्होने परंविकट त्रिपुरासुर का तत्कल अन्त कर दिया था तथा जिन्होंने दर्पयुक्त ब्रह्मा के ऊर्ध्वमुख (पञ्च्म शिर) को काट दिया थाउन शिव जी को नमस्कार करता हूँ।
दक्ष प्रजापति

सती और शिव का विवाह तो दक्ष ने करा दियालेकिन दक्ष अपने अपमान और अपने मन से शिव के प्रति वैमनस्य भाव को नहीं मिटा पाते है। सती द्वारा भगवान शिव का वरन करने के परिणामस्वरूपदक्ष प्रजापति के मन में सती के प्रति आदर कुछ कम हो गया था।

सती के चले जाने के पश्चात दक्ष प्रजापतिशिव तथा सती की निंदा करते हुए रुदन करने लगेइस पर उन्हें दधीचि मुनि ने समझाया, "तुम्हारा भाग्य पुण्य-मय थाजिसके परिणामस्वरूप सती ने तुम्हारे यहाँ जन्म धारण कियातुम शिव तथा सती के वास्तविकता को नहीं जानते हो। सती ही आद्या शक्ति मूल प्रकृतितथा जन्म-मरण से रहित हैंभगवान शिव भी साक्षात् आदि पुरुष हैंइसमें कोई संदेह नहीं हैं। देवतादैत्य इत्यादिजिन्हें कठोर से कठोर तपस्या से संतुष्ट नहीं कर सकते उन्हें तुमने संतुष्ट किया तथा पुत्री रूप में प्राप्त किया। अब किस मोह में पड़ कर तुम उनके विषय में कुछ नहीं जानने की बात कर रहे होंउनकी निंदा करते हो?

इस पर दक्ष ने अपने ही पुत्र मरीचि से कहा, “आप ही बताएं कि यदि शिव आदि-पुरुष हैं एवं इस चराचर जगत के स्वामी हैंतो उन्हें श्मशान भूमि क्यों प्रिय हैंवे विरूपाक्ष तथा त्रिलोचन क्यों हैंवे भिक्षा-वृति क्यों स्वीकार किये हुए हैंवे अपने शरीर में चिता भस्म क्यों लगते हैं?”

इस पर मुनि ने अपने पिता को उत्तर दिया, “भगवान शिव पूर्ण एवं नित्य आनंदमय हैं तथा सभी ईश्वरों के भी ईश्वर हैंउनके आश्रय में जाने वालो को दुःख तो है ही नहीं। आपकी विपरीत बुद्धि उन्हें कैसे भिक्षुक कह रही हैंउनकी वास्तविकता जाने बिना आप उनकी निंदा क्यों कर रहे होवे सर्वत्र गति हैं और वे ही सर्वत्र व्याप्त हैं। उनके निमित्त श्मशान या रमणीय नगर दोनों एक ही हैंशिव लोक तो बहुत ही अपूर्व हैंजिसे ब्रह्मा जी तथा श्री हरी विष्णु भी प्राप्त करने की आकांशा करते हैंदेवताओं के लिए कैलाश में वास करना दुर्लभ हैं। देवराज इंद्र का स्वर्गकैलाश के सोलहवें अंश के बराबर भी नहीं हैं। इस मृत्यु लोक में वाराणसी नाम की रमणीय नगरी भगवान शिव की ही हैंवह परमात्मा मुक्ति क्षेत्र हैंजहाँ ब्रह्मा जी आदि देवता भी मृत्यु की कामना करते हैं। यह तुम्हारी मिथ्या भ्रम ही हैं कि श्मशान के अतिरिक्त उनका कोई वास स्थान नहीं हैं। आपको  व्यर्थ मोह में पड़कर शिव तथा सती की निंदा नहीं करनी चाहिये।‘

इस प्रकार मुनि दधीचि द्वारा समझाने पर भी दक्ष प्रजापति के मन से उन दंपति शिव तथा सती के प्रति हीन भावना नहीं गई तथा उनके बारे में निन्दात्मक कटुवचन बोलते रहें। वे अपनी पुत्री सती की निंदा करते हुए विलाप करते थे, “हे सतीहे पुत्री! तुम मुझे मेरे प्राणों से भी अधिक प्रिय थींमुझे शोक सागर में छोड़-कर तुम कहाँ चली गई। तुम दिव्य मनोहर अंग वाली होतुम्हें मनोहर शय्या पर सोना चाहियेआज तुम उस कुरूप पति के संग श्मशान में कैसे वास कर रहीं हो?”

इस पर दधीचि मुनि ने दक्ष को पुनः समझाया, “आप तो ज्ञानियों में श्रेष्ठ हैंक्या आप यह नहीं जानते हैं कि उस स्वयंवर में इस पृथ्वीसमुद्रआकाशपाताल से जितने भी दिव्य स्त्री-पुरुष आयें थेवे सब इन्हीं दोनों आदि पुरुष-स्त्री के ही रूप हैं। तुम उस पुरुष (भगवान शिव) को यथार्थतः अनादि (प्रथम) पुरुष जान लो तथा त्रिगुणात्मिका परा भगवती तथा चिदात्मरूपा प्रकृति के विषय में अभी अच्छी तरह समझ लो। यह तुम्हारा दुर्भाग्य ही हैं की तुम आदि-विश्वेश्वर भगवान तथा उनकी पत्नी परा भगवती सती को महत्व नहीं दे रहे हो। तुम शोक-मग्न होयह समझ लो की हमारे शास्त्रों में जिन्हें प्रकृति एवं पुरुष कहा गया हैंवे दोनों सती तथा शिव ही हैं।”

पुनः दक्ष ने कहा, “आप उन दोनों के सम्बन्ध में ठीक ही कह रहें होंगेपरन्तु मुझे नहीं लगता हैं कि शिव से बढ़कर कोई और श्रेष्ठ देवता नहीं हैं। यद्यपि ऋषिजन सत्य बोलते हैंउनकी सत्यता पर कोई संदेह नहीं होना चाहियेपरन्तु मैं यह मानने को सन्नद्ध नहीं हूँ कि शिव ही सर्वोत्कृष्ट हैं। इसका मूल करण हैंजब मेरे पिता ब्रह्मा जी ने इस सृष्टि की रचना की थींतभी रुद्र भी उत्पन्न हुए थेजो शिव समान शरीर तथा भयानक बल वाले थे। वे अति-साहसी एवं विशाल आकर वाले थेनिरंतर क्रोध के कारण उनके नेत्र सर्वदा लाल रहते थेवे चीते का चर्म पहनते थेसर पर लम्बी-लम्बी जटाएं रखते थे। एक बार दुष्ट रूद्र ब्रह्मा जी द्वारा निर्मित इस सृष्टि को नष्ट करने उद्यत हुएब्रह्मा जी ने उन्हें कठोर आदेश देकर शांत कियासाथ ही मुझे आदेश दिया की भविष्य में ये प्रबल पराक्रमी रुद्र ऐसा उपद्रव न कर पायें तथा आज वे सभी मेरे वश में हैं। ब्रह्मा जी की आज्ञा से ही ये रौद्र-कर्मा रुद्र भयभीत हो मेरे वश में रहते हैंरुद्र अपना आश्रय स्थल एवं बल छोड़ कर मेरे अधीन हो गए हैं। अब में पूछता हूँ! जिनके अंश से संभूत ये रुद्र मेरे अधीन हैं तो इनका जन्म दाता मुझ से कैसे श्रेष्ठ हो सकता हैंसत्पात्र को अधिकृत कर दिया गया दान ही पुण्यप्रद एवं यश प्रदान करने वाला होता हैंमेरी इतनी गुणवान और सुन्दर पुत्री को क्या मेरी आज्ञा में न रहने वाला वह शिव ही मिला थामैंने अपनी पुत्री का दान उसे कर दिया। जब तक रुद्र मेरी आज्ञा के अधीन हैंतब तक मेरी ईर्ष्या शिव में बनी रहेंगी।”

इस तरह से दक्ष अपने मन में उत्पन्न हुए भावो को छुपा नहीं पाते है और शिव के प्रति उदासीन ही  रहते है साथ ही अपनी पुत्री सती के प्रति भी उनका क्रोध बढ़ते ही जाता है।

संसारसृष्टिघटनापरिवर्तनाय , रक्ष: पिशाचगणसिद्धसमाकुलाय ।
सिद्धोरगग्रहगणेन्द्रनिषेविताय , शार्दूलचर्मवसनाय नम: शिवाय ॥ 6 
जो संसार मे घटित होने वाले सम्सत घटनाओं में परिवर्तन करने में सक्षम हैंजो राक्षसपिशाच से ले कर सिद्धगणों द्वरा घिरे रहते हैं (जिनके बुरे एवं अच्छे सभि अनुयायी हैं)सिद्धसर्पग्रह-गण एवं इन्द्रादिसे सेवित हैं तथा जो बाघम्बर धारण किये हुए हैंउन शिव जी को नमस्कार करता हूँ।  

माता सती और भगवान शिव

सती-शिवविवाह पश्चात हिमालय शिखर कैलाश में वास करने हेतु गएजहाँ सभी देवतामहर्षिनागों के प्रमुखगन्धर्वकिन्नरप्रजापति इत्यादि उत्सव मनाने हेतु गये। उनके साथ हिमालय-पत्नी मैना भी अपनी सखियों के संग गई। इस प्रमोद के अवसर पर सभी ने वहां उत्सव मनायासभी ने उन ‘शिव-सती’ दम्पती को प्रणाम कियाउन्होंने मनोहर नित्य प्रस्तुत किये तथा विशेष गाना-बजाना किया। अंततः शिव तथा सती ने वहां उत्सव मनाने वाले सभी गणो को प्रसन्नतापूर्वक विदाई दीतत्पश्चात सभी वहाँ से चले गए।

हिमालय पत्नी मैना जब अपने निवास स्थान को लौटने लगीतो उन्होंने उन परम सुंदरी मनोहर अंगों वाली सती को देख कर सोचा! “सती को जन्म देने वाली माता धन्य हैंमैं भी आज से प्रतिदिन इन देवी से प्रार्थना करूँगी कि अगले जन्म में ये मेरी पुत्री बने।" ऐसा विचार करहिमालय पत्नी मैना ने सती की प्रतिदिन पूजा और आराधना करने लगी।

हिमालय पत्नी मैना ने महाष्टमी से उपवास आरंभ कर वर्ष पर्यंत भगवती सती के निमित्त व्रत प्रारंभ कर दियावे सती को पुत्री रूप में प्राप्त करना चाहती थीं। अंततः मैना के तपस्या से संतुष्ट हो देवी आदि-शक्ति ने उन्हें अगले जन्म में पुत्री होने का आशीर्वाद दिया।

एक दिन बुद्धिमान नंदी नाम के वृषभ भगवान शिव के पास कैलाश गएवैसे वे दक्ष के सेवक थे परन्तु दधीचि मुनि के शिष्य होने के कारण परम शिव भक्त थे। उन्होंने भूमि पर लेट कर शिव जी को दंडवत प्रणाम किया तथा बोले, “महादेव! मैं दक्ष का सेवक हूँपरन्तु महर्षि मरीचि के शिष्य होने के कारण आप के सामर्थ्य को भली-भांति जनता हूँ। मैं आपको साक्षात ‘आदि-पुरुष तथा माता सती को मूल प्रकृति आदि शक्ति’ के रूप में इस चराचर जगत की सृष्टि-स्थिति-प्रलय कर्ता मानता हूँ।" इस प्रकार नंदी ने शिव-भक्ति युक्त गदगद वाणी से स्तुति कर भगवान शिव को संतुष्ट तथा प्रसन्न किया।

नंदी द्वारा स्तुति करने पर प्रसन्न हो भगवान शिव उस से बोले,“तुम्हारी मनोकामना क्या हैंमुझे स्पष्ट बताओमैं उसे अवश्य पूर्ण करूँगा।”

नंदी ने भगवान शिव से कहा! “में चाहता हूँ कि आप की सेवा करता हुआ निरंतर आप के समीप रहूँमें जहाँ भी रहूँ आप के दर्शन करता रहूँ।”

तदनंतरभगवान शिव ने उन्हें अपना प्रधान अनुचर तथा प्रमथ-गणो का प्रधान नियुक्त कर दिया। भगवान शिव ने नंदी को आज्ञा दी किमेरे निवास स्थान से कुछ दूर रहकर तुम सभी गणो के साथ पहरा दोजब भी में तुम्हारा स्मरण करूँ तुम मरे पास आना तथा बिना आज्ञा के कोई भी मेरे पास ना आ पावें। इस प्रकार सभी प्रमथगण शिव जी के निवास स्थान से कुछ दूर चले गए और पहरा देने लगे।

वहांभगवती आदि शक्ति ने विचार किया कि कभी हिमालय पत्नी मैना ने भी उन्हें अपनी पुत्री रूप में प्राप्त करने का वचन माँगा था तथा उन्होंने उन्हें मनोवांछित वर प्रदान भी किया था। आब शीघ्र ही उनके पुत्री रूप में वे जन्म लेंगी इसमें कोई संशय नहीं हैं। दक्ष के पुण्य क्षीण होने के कारण देवी भगवती का उसके प्रति आदर भी कम हो गया था। उन्होंने अपनी लीला कर प्रजापति द्वारा उत्पन्न देह तथा स्थान को छोड़ने का निश्चय कर लिया तथा हिमालय राज के घर जन्म लेपुनः शिव को पति स्वरूप में प्राप्त करने का निश्चय किया एवं उचित समय की प्रतीक्षा करने लगी।

भगवान शिव, माता सती के साथ कैलाश में २५ वर्षों तक रहे और एक अद्भुत जीवन को जिया।

एक बार शिव की रामकथा सुनने की इच्छा हुई तो उन्होंने सती से कहा चलो कुंभज ऋषि के आश्रम में चलते हैं। कुंभज ऋषि के आश्रम में पति-पत्नी पहुंचे। उन्होंने कहा मैं आपसे रामकथा सुनना चाहता हूं। शिव आए तो कुंभज ऋषि खड़े हो गए उन्होंने शिव को प्रणाम किया और बोले बैठिए मैं सुनाता हूं। सती ने सोचा ये क्या बात हुई जो वक्ता हैं वो श्रोता को प्रणाम कर रहा है। श्रोता वक्ता को करता है ये तो समझ में आता है। तो जो खुद ही प्रणाम कर रहा है वो क्या रामकथा सुनाएगा। सती ने सोचा शिव तो ऐसे ही भोलेनाथ हैं किसी के भी साथ बैठ जाते हैं। यहां से सती के दिमाग में विचारों का क्रम तर्कों के साथ चालू हो गया। ऋषि ने इतनी सुंदर रामकथा सुनाई कि शिव को आनंद हो गया। पर सती कथा नहीं सुन रही थीं। शिव ने कथा सुनीअपनी पत्नी को देखा कि वे कथा नहीं सुन रही थीं। वे इधर-उधर देख रही थीं।

जब दोनों पति- पत्नी कुंभज ऋषि के आश्रम से रामकथा सुनकर लौट रहे थे तब भगवान श्री रामचंद्र की विरह लीला चल रही थी। रावण ने सीता का हरण कर लिया था और श्रीराम और लक्ष्मण उनकी खोज में दर दर भटक रहे थे। राम सीता के विरह में सामान्य व्यक्तियों की भाती रो रहे थे।

यह देखकर शिव ने कहा जिनकी कथा सुनकर हम आ रहे हैं उनकी लीला चल रही है। शिव ने उन्हें दूर से ही प्रणाम कियाजय सच्चिदानंद। और जैसे ही उनको प्रणाम किया तो सती का माथा और ठनक गया कि ये पहले तो कथा सुनकर आए एक ऐसे ऋषि से जो वक्ता होकर श्रोता को प्रणाम कर रहे थे और अब ये मेरे पति देव इनको प्रणाम कर रहे हैं रोते हुए राजकुमार को।

शिव ने ये देख कर कहा, ‘सती आप समझ नहीं रही हैं, ये श्रीराम हैं जिनकी कथा हम सुनकर आए उनका अवतार हो चुका है और ये लीला चल रही है मैं प्रणाम कर रहा हूं आप भी करिए।‘ सती ने बोला, ‘मैं तो नहीं कर सकती प्रणाम। ये ब्रह्म हैं, मैं कैसे मान लूं मैं तो परीक्षा लूंगी।‘ वे सोचने लगींअयोध्या के नृपति दशरथ के पुत्र राम आदि पुरुष के अवतार कैसे हो सकते हैंवे तो आजकल अपनी पत्नी सीता के वियोग में दंडक वन में उन्मत्त की भांति विचरण कर रहे हैं। वृक्ष और लताओं से उनका पता पूछते फिर रहे हैं। यदि वे आदि पुरुष के अवतार होतेतो क्या इस प्रकार आचरण करतेसती के मन में राम की परीक्षा लेने का विचार उत्पन्न हो चुका था। सती ने शिव से कहा कि वो श्रीराम की परीक्षा लेना चाहती है। शिव ने उन्हें मना किया कि ये उचित नहीं है लेकिन सती नहीं मानी। सती ने सोचा कि अगर मैंने सीता का वेश धर लिया तब ये जो राजकुमार हैं सीता- सीता चिल्ला रहे हैं मुझे पहचान नहीं पाएंगे। सती ने सीता का रूप धरा और जाकर वन में ठीक उस जगह बैठ गयी जहाँ से श्रीराम और लक्ष्मण आने वाले थे। जैसे ही दोनों वहां से गुजरे तो उन्होंने सीता के रूप में सती को देखा। लक्ष्मण सती की इस माया में आ गए और सीता रूपी सती को देख कर प्रसन्न हो गए। उन्होंने जल्दी से आगे बढ़कर उन्हें प्रणाम किया। तभी अचानक श्रीराम ने भी आकर सती को दंडवत प्रणाम किया। ये देख कर लक्ष्मण के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। इससे पहले वे कुछ समझ पातेश्रीराम ने हाथ जोड़ कर सीता रूपी सती से कहा कि ‘माता आप इस वन में क्या कर रही हैक्या आज महादेव ने आपको अकेले ही विचरने के लिए छोड़ दिया हैअगर अपने इस पुत्र के लायक कोई सेवा हो तो बताइए।‘ सती ने जब ऐसा सुना तो सती से कुछ उत्तर देते न बना। वे अदृश्य हो गई और मन ही मन पश्चाताप करने लगीं कि उन्होंने व्यर्थ ही राम पर संदेह किया। राम सचमुच आदि पुरुष के अवतार हैं।

सती लौटकर आई और अपने पति के पास आकर बैठ गईं। शिव ने पूछा देवी परीक्षा ले लीसती ने कुछ उत्तर नहीं दियाझूठ बोल दिया।

"कछु न परीछा लीन्हि गोसाईंकीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाईं।"

इतना झूठ बोला कि मैंने कोई परीक्षा नहीं ली मैंने तो आप ही की तरह प्रणाम किया। सती झूठ बोल गईं अपने पति से।

शिव से क्या छुपा था। उन्हें तुरंत पता चल गया कि सती ने सीता का रूप धर कर श्रीराम की परीक्षा ली थी। उन्होंने सोचा कि इन्होंने सबसे बड़ी गलती यह की कि ये सीता बन गईमेरी मां का रूप धर लिया तो अब मेरा इनसे दाम्पत्य नहीं चलेगा। मैं इनका मानसिक त्याग करता हूं। अब उनके लिए सती को एक पत्नी के रूप में देख पाना संभव ही नहीं था। उसी क्षण से शिव मन ही मन सती से विरक्त हो गए। उनके व्यवहार में आये परिवर्तन को देख कर थोड़े दिन तो सती सोचती रहीं कि ये तो रूठ गएलंबे रूठ गएदो-तीन दिन तो रूठते थे पहले भीतो मना लेती थी पर इस बार तो स्थायी हो गया। तब चिंता होने लगी। ये तो सुन ही नहीं रहे हैंध्यान में चले गए। सती ने अपने पितामह ब्रह्मा जी से इसका कारण पूछा तो उन्होंने सती को उनकी गलती का एहसास कराया। ब्रह्मा जी ने कहा कि इस जन्म में तो अब शिव किसी भी परिस्थिति में तुम्हें अपनी पत्नी के रूप में नहीं देख सकेंगे। सती दुख और पश्चाताप की लहरों में डूबने उतारने लगीं।

सती ने सीता जी का वेश धारण कियायह जानकर शिवजी के मन में विषाद उत्पन्न हो गया। उन्होंने सोचा कि यदि अब वे सती से प्रेम करते हैं तो यह धर्म विरुद्ध होगा क्योंकि सीता जी को वे माता के समान मानते थे परंतु वे सती से बहुत प्रेम करते थेइसलिए उन्हें त्याग भी नहीं सकते थे। तब उन्होंने मन ही मन प्रतिज्ञा की कि अब पति-पत्नी के रूप में उनका और सती का मिलन नहीं हो सकता परन्तु इस बारे में उन्होंने सती से प्रत्यक्ष में कुछ नहीं कहा। तत्पश्चात वे कैलाश लौट आए।

ये जानकार सती अत्यधिक दुखी हुईंपर अब क्या हो सकता था। शिव जी के मुख से निकली हुई बात असत्य कैसे हो सकती थीशिव जी समाधिस्थ हो गए। सती दुख और पश्चाताप की लहरों में डूबने उतारने लगीं।

भगवान शिव और सती का अद्भुत प्रेम शास्त्रों में वर्णित है। इसका प्रमाण है सती के यज्ञ कुण्ड में कूदकर आत्मदाह करना और ‌सती के शव को उठाए क्रोधित शिव का तांडव करना। हालांकि यह भी शिव की लीला थी क्योंकि इस बहाने शिव 51 शक्ति पीठों की स्थापना करना चाहते थे।

शिव ने सती को पहले ही बता दिया था कि उन्हें यह शरीर त्याग करना है। इसी समय उन्होंने सती को अपने गले में मौजूद मुंडों की माला का रहस्य भी बताया था।

एक बार नारद जी के उकसाने पर सती भगवान शिव से जिद करने लगी कि आपके गले में जो मुंड की माला है उसका रहस्य क्या है। जब काफी समझाने पर भी सती न मानी तो भगवान शिव ने राज खोल ही दिया। शिव ने पार्वती से कहा कि इस मुंड की माला में जितने भी मुंड यानी सिर हैं वह सभी आपके हैं। सती इस बात का सुनकर हैरान रह गयी।

सती ने भगवान शिव से पूछायह भला कैसे संभव है कि सभी मुंड मेरे हैं। इस पर शिव बोले यह आपका 108 वां जन्म है। इससे पहले आप 107 बार जन्म लेकर शरीर त्याग चुकी हैं और ये सभी मुंड उन पूर्व जन्मो की निशानी है। इस माला में अभी एक मुंड की कमी है इसके बाद यह माला पूर्ण हो जाएगी। शिव की इस बात को सुनकर सती ने शिव से कहा ‘मैं बार – बार जन्म लेकर शरीर त्याग करती हूं लेकिन आप शरीर त्याग नहीं करते।’

शिव हंसते हुए बोले 'मैं अमर कथा जानता हूं इसलिए मुझे शरीर का त्याग नहीं करना पड़ता।इस पर सती ने भी अमर कथा जानने की इच्छा प्रकट की। शिव जब सती को कथा सुनाने लगे तो उन्हें नींद आ गयी और वह कथा सुन नहीं पायी।

[ इसलिए उन्हें दक्ष के यज्ञ कुंड में कूदकर अपने शरीर का त्याग करना पड़ा। उसके पश्चात शिव ने सती के मुंड को भी माला में गूंथ लिया। इस प्रकार 108 मुंड की माला तैयार हो गयी। सती ने अगला जन्म पार्वती के रूप में हुआ। इस जन्म में पार्वती को अमरत्व प्राप्त हुआ और फिर उन्हें शरीर त्याग नहीं करना पड़ा। ]
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भस्माङ्गरागकृतरूपमनोहराय , सौम्यावदातवनमाश्रितमाश्रिताय ।
गौरीकटाक्षनयनार्धनिरीक्षणाय , गोक्षीरधारधवलाय नम: शिवाय ॥ 7 
जिन्होंने भस्म लेप द्वरा सृंगार किया हुआ हैजो अति शांत एवं सुन्दर वन का आश्रय करने वालों (ऋषिभक्तगण) के आश्रित (वश में) हैंजिनका श्री पार्वतीजी कटाक्ष नेत्रों द्वरा निरिक्षण करती हैंतथा जिनका गोदुग्ध की धारा के समान श्वेत वर्ण हैउन शिव जी को नमस्कार करता हूँ।
दक्ष प्रजापति


उधर दक्ष प्रजापति अपने दुर्भाग्य के कारण प्रतिदिन शिव-सती की निंदा करते रहते थेवे भगवान शिव को सम्मान नहीं देते थे तथा उन दोनों का द्वेष परस्पर बढ़ता ही गया। एक बार नारद जीदक्ष प्रजापति के पास गए और उनसे कहा, “तुम सर्वदा भगवान शिव की निंदा करते रहते होइस निन्दात्मक व्यवहार के प्रतिफल में जो कुछ होने वाला हैं, उसे भी सुन लो। भगवान शिव शीघ्र ही अपने गणो के साथ यहाँ आकर सब कुछ भस्म कर देंगेहड्डियाँ बिखेर देंगेतुम्हारा कुल सहित विनाश कर देंगे। मैंने तुम्हें यह स्नेह वश बता रहा हूँतुम अपने मंत्रियों से भाली-भाती विचार-विमर्श कर लोयह कह नारद जी वहाँ से चले गए। तदनंतरदक्ष ने अपने मंत्रियों को बुलवा करइस सन्दर्भ में अपने भय को प्रकट किया तथा कैसे इसका प्रतिरोध होइसका उपाय विचार करने हेतु कहा।

दक्ष की चिंता से अवगत होसभी मंत्री भयभीत हो गए। उन्होंने दक्ष को परामर्श दिया की! “शिव के साथ हम विरोध नहीं कर सकते हैं तथा इस संकट के निवारण हेतु हमें और कोई उपाय नहीं सूझ रहा हैं। आप परम बुद्धिमान हैं तथा सब शास्त्रों के ज्ञाता हैंआप ही इस समस्या के निवारण हेतु कोई प्रतिकारात्मक उपाय सोचेंहम सभी उसे सफल करने का प्रयास करेंगे।”

इस पर दक्ष ने संकल्प किया कि मैं सभी देवताओं को आमंत्रित कर 'बृहस्पति श्रवायज्ञ करूँगा! जिसके संरक्षक सर्व-विघ्न-निवारक यज्ञाधिपति भगवान विष्णु स्वयं होंगेजहाँ श्मशान वासी शिव को नहीं बुलाया जायेगा। दक्ष यह देखना चाहते थे कि भूतपति शिव इस पुण्य कार्य में कैसे विघ्न डालेंगे। इस तथ्य में दक्ष के सभी मंत्रियों का भी मत थातदनंतर वे क्षीरसागर के तट पर जाकरअपने यज्ञ के संरक्षण हेतु भगवान विष्णु से प्रार्थना करने लगे। दक्ष के प्रार्थना को स्वीकार करते हुएभगवान विष्णु उस यज्ञ के संरक्षण हेतु दक्ष की नगरी में आयें। दक्ष ने इन्द्रादि समस्त देवताओं सहितदेवर्षियोंब्रह्म-ऋषियोंयक्षोंगन्धर्वोंकिन्नरोंपितरोंग्रहनक्षत्र दैत्योंदानवोंमनुष्यों इत्यादि सभी को निमंत्रण किया परन्तु भगवान शिव तथा उनकी पत्नी सती को निमंत्रित नहीं किया और न ही उनसे सम्बन्ध रखने वाले किसी अन्य को। अगस्त्यकश्यपअत्रिवामदेवभृगुदधीचिव्यास जीभारद्वाजगौतमपैलपाराशरगर्गभार्गवककुपसितसुमन्तुत्रिककंक तथा वैशम्पायन ऋषि एवं और भी दूसरे मुनि सपरिवार दक्ष के यज्ञ अनुष्ठान में पधारे थे। दक्ष ने विश्वकर्मा से अनेक विशाल तथा दिव्य भवन का निर्माण करवा करअतिथियों के ठहरने हेतु प्रदान कियाअतिथियों का उन्होंने बहुत सत्कार किया। दक्ष का वह यज्ञ कनखल नामक स्थान में हो रहा था। 

यज्ञ अनुष्ठान में उपस्थित समस्त लोगों से दक्ष ने निवेदन किया, “मैंने अपने इस यज्ञ महोत्सव में शिव तथा सती को निमंत्रित नहीं किया हैंउन्हें यज्ञ का भाग नहीं प्राप्त होगापरमपुरुष भगवान विष्णु इस यज्ञ में उपस्थित हैं तथा स्वयं इस यज्ञ की रक्षा करेंगे। आप सभी किसी का भी भय न मान कर इस यज्ञ में सम्मिलित रहें।” इस पर भी वहां उपस्थित देवता आदि आमंत्रित लोगों को भय हो रहा थापरन्तु जब उन्होंने सुना कि इस यज्ञ की रक्षा हेतु स्वयं यज्ञ-पुरुष भगवान श्री विष्णु आये हैं तो उनका भय दूर हो गया।

प्रजापति दक्ष ने यज्ञ में सती को छोड़ अपनी सभी कन्याओं को बुलवाया तथा वस्त्र-आभूषण इत्यादि आदि देकर उनका यथोचित सम्मान किया। उस यज्ञ में किसी भी पदार्थ की कमी नहीं थींतदनंतर दक्ष ने यज्ञ प्रारंभ कियाउस समय स्वयं पृथ्वी देवी यज्ञ-वेदी बनी तथा साक्षात् अग्निदेव यज्ञकुंड में विराजमान हुए।

स्वयं यज्ञ-भगवान श्री विष्णु उस यज्ञ में उपस्थित हैंवहां दधीचि मुनि ने भगवान शिव को न देखकरप्रजापति दक्ष से पूछा, “आप के यज्ञ में सभी देवता अपने-अपने भाग को लेने हेतु साक्षात उपस्थित हैंऐसा यज्ञ न कभी हुआ हैं और न कभी होगा। यहाँ सभी देवता आयें हैंपरन्तु भगवान शिव नहीं दिखाई देते हैं?”

प्रजापति दक्ष ने मुनिवर से कहा! “हे मुनिमैंने इस शुभ अवसर पर शिव को निमंत्रित नहीं किया हैंमेरी मान्यता हैं कि ऐसे पुण्य-कार्यों में शिव की उपस्थिति उचित नहीं हैं।”

इस पर दधीचि मुनि ने कहा, “यह यज्ञ उन शिव के बिना श्मशान तुल्य हैं।” इस पर दक्ष को बड़ा क्रोध हुआ तथा उन्होंने दधीचि मुनि को अपशब्द कहेमुनिराज ने उन्हें पुनः शिव जी को ससम्मान बुला लेने का आग्रह कियाकई प्रकार के उदाहरण देकर उन्होंने शिव जी के बिना सब निरर्थक हैंसमझाने का बहुत प्रयत्न किया। दधीचि मुनि ने कहा! “जिस देश में नदी न होजिस यज्ञ में शिव न होजिस नारी का कोई पति न होजिस गृहस्थ का कोई पुत्र न हो सब निरर्थक ही हैं। कुश के बिना संध्या तथा तिल के बिना पित्र-तर्पणहवि के बिना होम पूर्ण नहीं हैंउसी प्रकार शिव के बिना कोई यज्ञ पूर्ण नहीं हो सकता हैं। जो विष्णु हैं वही शिव हैं और शिव हैं वही विष्णु हैंइन दोनों में कोई भेद नहीं हैंइन दोनों से किसी एक के प्रति भी द्वेष रखता हैं तो वह द्वेष दोनों के ही प्रति हैंऐसा समझना चाहिये। शिव के अपमान हेतु तुमने जो ये यज्ञ का आयोजन किया हैंइस से तुम नष्ट हो जाओगे।"

इस पर दक्ष ने कहा "सम्पूर्ण जगत के पालक यज्ञ-पुरुष जनार्दन श्री विष्णु जिसके रक्षक होवहां श्मशान में रहने वाला शिव मेरा कुछ अहित नहीं कर सकता हैं। अगर वह यहाँ अपने भूत-प्रेतों के साथ यहाँ आते हैं तो भगवान विष्णु का चक्र उनके ही विनाश का कारण बनेगा।" इस पर दधीचि मुनि ने दक्ष से कहा "अविनाशी विष्णु तुम्हारी तरह मूर्ख नहीं हैंजो तुम्हारे लिए युद्ध करेंयह कुछ समय पश्चात तुम्हें स्वतः ही ज्ञात हो जायेगा।”

यह सुनकर दक्ष और अधिक क्रोधित हो गए और अपने अनुचरों से कहा! “इस ब्राह्मण को दूर भगा दो।” इस पर मुनिराज ने दक्ष से कहा ! “तू क्या मुझे भगा रहा हैंतेरा भाग्य तो पहले से ही तुझसे रूठ गया हैंअब शीघ्र ही तेरा विनाश होगाइस में कोई संदेह नहीं हैं।” उस यज्ञ अनुष्ठान से दधीचि मुनि क्रोधित हो चेले गएउनके साथ दुर्वासावामदेवच्यवन एवं गौतम आदि ऋषि भी उस अनुष्ठान से चल दिएक्योंकि वे शिव तत्त्व के उपासक थे। इन सभी ऋषियों के जाने के पश्चातउपस्थित ऋषियों से ही यज्ञ को पूर्ण करने का दक्ष ने निश्चय कर यज्ञ आरंभ किया। परिवार के सदस्यों द्वारा कहने पर भी दक्ष ने सती का अपनाम करना बंद नहीं कियाउसका पुण्य क्षीण हो चूका था परिणामस्वरूपवह भगवती आदि शक्ति रूपा 'सतीअपमान करता ही जा रहा था।

आदित्य सोम वरुणानिलसेविताय , यज्ञाग्निहोत्रवरधूमनिकेतनाय ।
ऋक्सामवेदमुनिभि: स्तुतिसंयुताय , गोपाय गोपनमिताय नम: शिवाय ॥ 8 
जो सूर्यचन्द्रवरूण और पवन द्वार सेवित हैंयज्ञ एवं अग्निहोत्र धूममें जिनका निवास हैऋक-सामादिवेद तथा मुनिजन जिनकी स्तुति करते हैंउन नन्दीश्वरपूजित गौओं का पालन करने वाले शिव जी को नमस्कार करता हूँ।

माता सती
उधर सभी देवर्षि गण बड़े उत्साह तथा हर्ष के साथ दक्ष के यज्ञ में जा रहें थेसती देवी गंधमादन पर्वत पर अपनी सखियों के संग क्रीड़ाएँ कर रहीं थीं। उन्होंने रोहिणी के संग चंद्रमा को आकाश मार्ग से जाते हुए देखा तथा अपनी सखी विजया से कहा, “जल्दी जाकर पूछ तो आये चन्द्र देव रोहिणी के साथ कहा जा रहे हैं?” तदनंतर विजयाचन्द्र देव के पास गईचन्द्र देव ने उन्हें दक्ष के महा-यज्ञ का सारा वृतांत सुनाया। विजयामाता सती के पास आई और चन्द्र देव द्वारा जो कुछ कहा गयावह सब कह सुनाया। यह सुनकर देवी सती को बड़ा विस्मय हुआ और वे अपने पति भगवान शिव के पास आयें।

इधरयज्ञ अनुष्ठान से देवर्षि नारदभगवान शिव के पास आयेंउन्होंने शिव जी को बताया कि “दक्ष ने अपने यज्ञ अनुष्ठान में सभी को निमंत्रित किया हैंकेवल मात्र आप दोनों को छोड़ दिया हैं। उस अनुष्ठान में आपको न देख कर मैं दुःखी हुआ तथा आपको बताने आया हूँ कि आप लोगों का वह जाना उचित हैंअविलम्ब आप वहां जाये।

भगवान शिव ने नारद से कहा, “हम दोनों के वह जाने से कोई विशेष प्रयोजन सिद्ध नहीं होने वाला हैंप्रजापति जैसे चाहें अपना यज्ञ सम्पन्न करें।”

इस पर नारद ने कहा, “आप का अपमान करके यदि वह यह यज्ञ पूर्ण कर लेगा तो इसमें आप की अवमानना होगी। यह समझते हुए कृपा कर आप वहाँ चल कर अपना यज्ञ भाग ग्रहण करेंअन्यथा आप उस यज्ञ में विघ्न उत्पन्न करें।" 

भगवान शिव ने कहा, “नारद! न ही मैं वहां जाऊंगा और न ही सती वहाँ जाएगीवहाँ जाने पर भी दक्ष हमें हमारा यज्ञ भाग नहीं देगा।”

भगवान शिव से इस प्रकार उत्तर पाकर नारद जी ने सती से कहा “जगन्माता, आप को वहां जाना चाहियेकोई कन्या अपने पितृ गृह में किसी विशेष आयोजन के बारे में सुन कर कैसे वहाँ नहीं जा सकती हैंआप की अन्य जितनी बहनें हैंसभी अपने-अपने पतियों के साथ उस आयोजन में आई हैं। उस दक्ष ने आपको अभिमान वश नहीं बुलाया हैंआप उनके इस अभिमान के नाश हेतु कोई उपाय करें। आपके पति-देव शिव तो परम योगी हैंइन्हें अपने मान या अपमान की कोई चिंता नहीं हैंवे तो उस यज्ञ में जायेंगे नहीं और न ही कोई विघ्न उत्पन्न करेंगे।” इतना कहकर नारद जी पुनः यज्ञ सभा में वापस आ गए।

नारद मुनि के वचन सुनकरसती ने अपने पति भगवान शिव से कहा! “मेरे पिता प्रजापति दक्ष विशाल यज्ञ का आयोजन किये हुए हैंहम दोनों का उस में जाना उचित ही हैंयदि हम वहाँ गए तो वे हमारा सम्मान ही करेंगे।”

इस पर भगवान शिव ने कहा, “तुम्हें ऐसे अहितकर बात मन में नहीं सोचना चाहियेबिन निमंत्रण के जाना मरण के समान ही हैं। तुम्हारे पिता को मेरा विद्याधर कुलो में स्वछंद विचरण करना अच्छा नहीं लगता हैंमेरे अपमान के निमित्त उन्होंने इस यज्ञ का आयोजन किया हैं। मैं जाऊं या तुम, हम दोनों का वहाँ पर कोई सम्मान नहीं होगायह तुम समझ लो। श्वसुर गृह में जामाता अधिक से अधिक सम्मान की आशा रखता हैंयदि वहां जाने से अपमान होता हैं तो वह मृत्यु से भी बढ़ कर कष्टदायक होगा। अतः मैं तुम्हारे पिता के यहाँ नहीं जाऊंगावहां मेरा जाना तुम्हारे पिता को प्रिय नहीं लगेगातुम्हारे पिता मुझे दिन-रातदिन-हीन तथा दरिद्र और दुःखी कहते रहते हैंबिन बुलाये वहाँ जाने पर वे और अधिक कटु-वचन कहने लगेंगे। अपमान हेतु कौन बुद्धिमान श्वसुर गृह जाना उचित समझता हैंबिना निमंत्रण के हम दोनों का वहां जाना कदापि उचित नहीं हैं।"

भगवान शिव द्वारा समझाने पर भी सती नहीं मानी और कहने लगी, “आप ने जो भी कहाँ वह सब सत्य हैंपरन्तु ऐसा भी तो हो सकता हैं कि वहां हमारे जाने पर वे हमारा यथोचित सम्मान करें।”

भगवान शिव ने सती से कहा, “तुम्हारे पिता ऐसे नहीं हैंवे हमारा सम्मान नहीं करेंगेमेरा स्मरण आते ही दिन-रात वे मेरी निंदा करते हैंयह केवल मात्र तुम्हारा भ्रम ही हैं।”

सती ने कहा, “आप जाये या न जाये यह आपकी रुचि हैंआप मुझे आज्ञा दीजिये मैं अपने पिता के घर जाऊंगीपिता के घर जाने हेतु कन्या को आमंत्रण-निमंत्रण की आवश्यकता नहीं होती हैं। वहां यदि मेरा सम्मान हुआ तो मैं पिताजी से कहकर आप को भी यज्ञ भाग दिलाऊँगी और यदि पिता जी ने मेरे सनमुख आप की निंदा की तो उस यज्ञ का विध्वंस कर दूंगी।”

शिव जी ने पुनः सती से कहा, “तुम्हारा वहां जाना उचित नहीं हैंवहां तुम्हारा सम्मान नहीं होगापिता द्वारा की गई निंदा तुम सहन नहीं कर पाओगीजिसके कारण तुम्हें प्राण त्याग करना पड़ेगातुम अपने पिता का क्या अनिष्ट करोगी?”

इस पर सती ने क्रोध युक्त होअपने पति भगवान शिव से कहा “अब आप मेरी भी सुन लीजियेमैं अपने पिता के घर जरूर जाऊंगीफिर आप मुझे आज्ञा दे या न दे। जिस से भगवान शिव भी क्रुद्ध हो गए और उन्होंने सती के अपने पिता के यहाँ जाने का वास्तविक प्रयोजन पुछा, ‘अगर उन्हें अपने पति की निंदा सुनने का कोई प्रयोजन नहीं हैं तो वे क्यों ऐसे पुरुष के गृह जा रही हैंजहाँ उनकी सर्वथा निंदा होती हो।‘

इस पर सती ने कहा “मुझे आपकी निंदा सुनने में कोई रुचि नहीं हैं और न ही मैं आपके निंदा करने वाले के घर जाना चाहती हूँ। वास्तविकता तो यह हैंयदि आपका प्रकार अपमान करमेरे पिताजी इस यज्ञ को सम्पूर्ण कर लेते हैं तो भविष्य में हमारे ऊपर कोई श्रद्धा नहीं रखेगा और न ही हमारे निमित्त आहुति ही डालेगा। आप आज्ञा दे या न देमें वहां जा कर यथोचित सम्मान न पाने पर यज्ञ का विध्वंस कर दूंगी।

भगवान शिव ने कहा “मेरे इतने समझाने पर भी आप आज्ञा से बाहर होती जा रही हैंआप की जो इच्छा हो वही करेंआप मेरे आदेश की प्रतीक्षा क्यों कर रहीं हैं?

शिव जी के ऐसा कहने पर दक्ष-पुत्री सती देवी अत्यंत क्रुद्ध हो गईउन्होंने सोचा, “जिन्होंने कठिन तपस्या करने के पश्चात मुझे प्राप्त किया था आज वो मेरा ही अपमान कर रहें हैंअब मैं इन्हें अपना वास्तविक प्रभाव दिखाऊंगी।"

भगवान शिव ने देखा कि सती के होंठ क्रोध से फड़क रहे हैं तथा नेत्र प्रलयाग्नि के समान लाल हो गए हैंजिसे देखकर भयभीत होकर उन्होंने अपने नेत्रों को मूंद लिया। सती ने सहसा घोर अट्टहास कियाजिसके कारण उनके मुंह में लंबी-लम्बी दाढ़े दिखने लगीजिसे सुनकर शिव जी अत्यंत हतप्रभ हो गए। कुछ समय पश्चात उन्होंने जब अपनी आंखों को खोला तोसामने देवी का भीम आकृति युक्त भयानक रूप दिखाई दे रहा थादेवी वृद्धावस्था के समान वर्ण वाली हो गई थींउनके केश खुले हुए थेजिह्वा मुख से बहार लपलपा रहीं थींउनकी चार भुजाएं थीं। उनके देह से प्रलयाग्नि के समान ज्वालाएँ निकल रही थींउनके रोम-रोम से स्वेद निकल रहा थाभयंकर डरावनी चीत्कार कर रहीं थीं तथा आभूषणों के रूप में केवल मुंड-मालाएं धारण किये हुए थीं। उनके मस्तक पर अर्ध चन्द्र शोभित थाशरीर से करोड़ों प्रचंड आभाएँ निकल रहीं थींउन्होंने चमकता हुआ मुकुट धारण कर रखा था। इस प्रकार के घोर भीमाकार भयानक रूप मेंअट्टहास करते हुए देवीभगवान शिव के सम्मुख खड़ी हुई।

उन्हें इस प्रकार देख कर भगवान शंकर ने भयभीत हो भागने का मन बनायावे हतप्रभ हो इधर उधर दौड़ने लगे। सती देवी ने भयानक अट्टहास करते हुएनिरुद्देश्य भागते हुए भगवान शिव से कहा, ‘ आप मुझसे डरिये नहीं!’ परन्तु भगवान शिव डर के मारे इधर उधर भागते रहें। इस प्रकार भागते हुए अपने पति को देखकरदसो दिशाओं में देवी अपने ही दस अवतारों में खड़ी हो गई। शिव जी जिस भी दिशा की ओर भागतेवे अपने एक अवतार में उनके सम्मुख खड़ी हो जाती। इस तरह भागते-भागते जब भगवान शिव को कोई स्थान नहीं मिला तो वे एक स्थान पर खड़े हो गए। इसके पश्चात उन्होंने जब अपनी आंखें खोली तो अपने सामने मनोहर मुख वाली श्यामा देवी को देखा। उनका मुख कमल के समान खिला हुआ थादोनों पयोधर स्थूल तथा आंखें भयंकर एवं कमल के समान थीं। उनके केश खुले हुए थेदेवी करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान थींउनकी चार भुजाएं थींवे दक्षिण दिशा में सामने खड़ी थीं।

अत्यंत भयभीत हो भगवान शिव ने उन देवी से पुछा, “आप कौन हैंमेरी प्रिय सती कहा हैं?”

सती ने शिव जी से कहा “आप मुझ सती को नहीं पहचान रहें हैये सारे रूप जो आप देख रहे हैकालीतारात्रिपुरसुंदरीभुवनेश्वरीछिन्नमस्ताबगलामुखीधूमावतीमातंगी एवं कमलाये सब मेरे ही नाना नाम हैं।" भगवान शिव द्वारा उन नाना देवियों का परिचय पूछने पर देवी ने कहा, “ये जो आप के सम्मुख भीमाकार देवी हैं इनका नाम ‘काली’ हैंऊपर की ओर जो श्याम-वर्ना देवी खड़ी हैं वह ‘तारा’ हैंआपके दक्षिण में जो मस्तक-विहीन अति भयंकर देवी खड़ी हैं वह ‘छिन्नमस्ता’ हैंआपके उत्तर में जो देवी खड़ी हैं वह ‘भुवनेश्वरी’ हैंआपके पश्चिम दिशा में जो देवी खड़ी हैं वह शत्रु विनाशिनी ‘बगलामुखी’ देवी हैंविधवा रूप में आपके आग्नेय कोण में ‘धूमावती’ देवी खड़ी हैंआपके नैऋत्य कोण में देवी 'त्रिपुरसुंदरीखड़ी हैंआप के वायव्य कोण में जो देवी हैं वह 'मातंगीहैंआपके ईशान कोण में जो देवी खड़ी हैं वह ‘कमला’ हैं तथा आपके सामने भयंकर आकृति वाली जो मैं ‘भैरवी’ खड़ी हूँ। अतः आप इनमें किसी से भी न डरें। यह सभी देवियाँ महाविद्याओं की श्रेणी में आती हैंइनके साधक या उपासक पुरुषों को चतुर्वर्ग (धर्मअर्थकाम तथा मोक्षतथा मनोकामनाएँ पूर्ण करने वाली हैं। आज मैं अपने पिता का अभिमान चूर्ण करने हेतु जाना चाहती हूँयदि आप न जाना चाहें तो मुझे ही आज्ञा दें।"

भगवान शिव ने सती से कहा, “मैं अब आप को पूर्ण रूप से जान पाया हूँअतः पूर्व में प्रमाद या अज्ञान वश मैंने आपके विषय में जो भी कुछ अनुचित कहा होउसे क्षमा करें। आप आद्या परा विद्या हैंसभी प्राणियों में आप व्याप्त हैं तथा स्वतंत्र परा-शक्ति हैंआप का नियन्ता तथा निषेधक कौन हो सकता हैंआप को रोक सकूँ मुझमें ऐसा सामर्थ्य नहीं हैंइस विषय में आपको जो अनुचित लगे आप वही करें।

इस प्रकार भगवान शिव के कहने पर देवी उनसे बोली, “हे महेश्वर! सभी प्रमथ गणो के साथ आप यही कैलाश में ठहरेमैं अपने पिता के यहाँ जा रही हूँ। शिव जी को यह कह वह ऊपर खड़ी हुई तारा अकस्मात् एक रूप हो गई तथा अन्य अवतार अंतर्ध्यान हो गएदेवी ने प्रमथों को रथ लाने का आदेश दिया। वायु वेग से सहस्रों सिंहों से जुती हुई मनोरम देवी-रथजिसमें नाना प्रकार के अलंकार तथा रत्न जुड़े हुए थेप्रमथ प्रधान द्वारा लाया गया। वह भयंकर रूप वाली काली देवी उस विशाल रथ में बैठ कर आपने पितृ गृह को चलीनंदी उस रथ के सारथी थेइस कारण भगवान शिव को सहसा धक्का सा लगा।

दक्ष यज्ञ मंडप में उस भयंकर रूप वाली देवी को देख कर सभी चंचल हो उठेसभी भय से व्याकुल हो गए। सर्वप्रथम भयंकर रूप वाली देवी अपनी माता के पास गईबहुत काल पश्चात आई हुई अपनी पुत्री को देख कर दक्ष-पत्नी प्रसूति बहुत प्रसन्न हुई तथा देवी से बोलीं “तुम्हें आज इस घर में देख कर मेरा शोक समाप्त हो गया हैंतुम स्वयं आद्या शक्ति हो। तुम्हारे दुर्बुद्धि पिता ने तुम्हारे पति शिव की महिमा को न समझते हुएउनसे द्वेष करयहाँ यज्ञ का योजन कर रहें हैं जिसमें तुम्हें तथा तुम्हारे पति को निमंत्रित नहीं किया गया हैं। इस विषय में हम सभी परिवार वालों तथा बुद्धिमान ऋषियों ने उन्हें बहुत समझायापरन्तु वे किसी की न माने।"

सती ने अपनी माता से कहा! “मेरे पति भगवान शिव का अनादर करने के निमित्त उन्होंने ये यज्ञ तो प्रारंभ कर लिया हैंपरन्तु मुझे यह नहीं लगता हैं की यह यज्ञ निर्विघ्न समाप्त होगा।" उनकी माता ने भी उन्हें ब्रह्म मुहूर्त में आयें हुए स्वप्न से अवगत करायाजिसमें उन्होंने देखा की इस यज्ञ का विध्वंसशिव गणो द्वारा हो गया हैं। इसके पश्चात सती अपनी माता को प्रणाम करअपने पिता के पास यज्ञ स्थल पर गई।

उन भयंकर काली देवी को देख कर दक्ष सोचने लगा “यह कैसी अद्भुत बात हैं पहले तो सती स्वर्ण के वर्ण वाली गौर शरीरसौम्य तथा सुन्दर थींआज वह श्याम वर्ण वाली कैसी हो गए हैं! सती इतनी भयंकर क्यों लग रही हैंइसके केश क्यों खुले हैंक्रोध से इसके नेत्र लाल क्यों हैंइसकी दाड़ें इतनी भयंकर क्यों लग रहीं हैंइसने अपने शरीर में चीते का चर्म क्यों लपेट रखा हैंइसकी चार भुजाएँ क्यों हो गई हैंइस भयानक रूप में वह इस देव सभा में कैसे आ गईसती ऐसे क्रुद्ध लग रही थीं मानो वह क्षण भर में समस्त जगत का भक्षण कर लेगी। इसका अपमान कर हमने यह यज्ञ आयोजन किया हैंमानो वह इसी का दंड देने हेतु यहाँ आई हो। प्रलय-काल में जो इन ब्रह्मा जी एवं विष्णु का भी संहार करती हैंवह इस साधारण यज्ञ का विध्वंस कर दे तो ब्रह्मा जी तथा विष्णु क्या कर पाएंगे?”

सती की इस भयंकर रूप को देख कर सभी यज्ञ-सभा में भय से कांप उठेउन्हें देख कर सभी अपने कार्यों को छोड़ते हुए स्तब्ध हो गए। वहाँ बैठे अन्य देवतादक्ष प्रजापति के भय से उन्हें प्रणाम नहीं कर पायें। समस्त देवताओं की ऐसी स्थिति देखकरक्रोध से जलते नेत्रों वाली काली देवी से दक्ष ने कहा, “तू कौन हैं निर्लज्जकिसकी पुत्री हैंकिसकी पत्नी हैंयहाँ किस उद्देश्य से आई हैंतू सती की तरह दिख रही हैं क्या तू वास्तव में शिव के घर आई मेरी कन्या सती हैं ?”

इस पर सती ने कहा! “अरे पिताजीआपको क्या हुआ हैंआप मुझे क्यों नहीं पहचान पा रहें हैंआप मेरे पिता हैं और मैं आपकी पुत्री सती हूँमैं आपको प्रणाम करती हूँ।”

दक्ष ने सती से कहा! “पुत्री, तुम्हारी यह क्या अवस्था हो गई हैंतुम तो गौर वर्ण की थींदिव्य वस्त्र धारण करती थीं और आज तुम चीते का चर्म पहने भरी सभा में क्यों आई होतुम्हारे केश क्यों खुले हैंतुम्हारे नेत्र इतने भयंकर क्यों प्रतीत हो रहें हैंक्या शिव जैसे अयोग्य पति को पाकर तुम्हारी यह दशा हो गई हैंया तुम्हें मैंने इस यज्ञ अनुष्ठान में नहीं आमंत्रित किया इसके कारण तुम अप्रसन्न होकेवल शिव पत्नी होने के कारण मैंने तुम्हें इस यज्ञ में निमंत्रित नहीं किया हैंऐसा नहीं हैं की तुमसे मेरा स्नेह नहीं हैंतुमने अच्छा ही किया जो तुम स्वयं चली आई। तुम्हारे निमित्त नाना अलंकार-वस्त्र इत्यादि रखे हुए हैंइन्हें तुम स्वीकार करो! तुम तो मुझे अपने प्राणों की तरह प्रिय हो। कही तुम शिव जैसे अयोग्य पति पाकर दुःखी तो नहीं हो?”

इस पर शिव जी के सम्बन्ध में कटुवचन सुनकर सती के सभी अंग प्रज्वलित हो उठे और उन्होंने सोचा; “सभी देवताओं के साथ अपने पिता को यज्ञ सहित भस्म करने का मुझ में पर्याप्त सामर्थ्य हैंपरन्तु पितृ हत्या के भय से मैं ऐसा नहीं कर पा रहीं हूँपरन्तु इन्हें सम्मोहित तो कर सकती हूँ।”

ऐसा सोचकर सर्वप्रथम उन्होंने अपने समान आकृति वाली छाया-सती का निर्माण किया तथा उनसे कहा “तू इस यज्ञ का विनाश कर दे। मेरे पिता के मुंह से शिव निंदा की बातें सुनकरउन्हें नाना प्रकार की बातें कहना तथा अंततः इस प्रज्वलित अग्नि कुंड में अपने शरीर की आहुति दे देना। तुम पिताजी के अभिमान का इसी क्षण मर्दन कर दोइसका समाचार जब भगवान शिव को प्राप्त होगा तो वे अवश्य ही यहाँ आकर इस यज्ञ का विध्वंस कर देंगे।” छाया सती से इस प्रकार कहकरआदि शक्ति देवी स्वयं वहां से अंतर्ध्यान हो आकाश में चली गई।


छाया सती ने दक्ष को चेतावनी दी कि वह देव सभा में बैठ कर शिव निंदा न करें नहीं तो वह उनकी जिह्वा हो काट कर फेंक देंगी। 

दक्ष ने अपनी कन्या से कहा, “मेरे सनमुख कभी उस शिव की प्रशंसा न करनामें उस दुराचारी श्मशान में रहने वालीभूत-पति एवं बुद्धि-विहीन तेरे पति को अच्छी तरह जनता हूँ। तू अगर उसी के पास रहने में अपना सब सुख मानती हैंतो तू वही रह! तू मेरे सामने उस भूत-पति भिक्षुक की स्तुति क्यों कर रही हैं?”

छाया-सती ने कहा! “मैं आप को पुनः समझा रहीं हूँअगर अपना हित चाहते हो तो यह पाप-बुद्धि का त्याग करें तथा भगवान शिव की सेवा में लग जाए। यदि प्रमाद-वश अभी भी भगवान शंकर की निंदा करते रहें तो वह यहाँ आकर इस यज्ञ सहित आप को विध्वस्त कर देंगे।”

इस पर दक्ष ने कहा, “कुपुत्रीतू दुष्ट हैं! तू मेरे सामने से दूर हट जा। तेरी मृत्यु तो मेरे लिए उसी दिन हो गई थींजिस दिन तूने शिव का वरन किया थाअब बार-बार मुझे अपने पति का स्मरण क्यों करा रही हैंतेरा दुर्भाग्य हैं की तुझे निकृष्ट पति मिला हैंतुझे देख कर मेरा शरीर शोकाग्नि से संतप्त हो रहा हैं। हे दुरात्मिके! तू मेरी आंखों के सामने से दूर हो जा और अपने पति का व्यर्थ गुणगान न कर।”

दक्ष के इस प्रकार कहने पर छाया सती क्रुद्ध हो कर भयानक रूप में परिवर्तित हो गई। उनका शरीर प्रलय के मेघों के समान काला पड़ गया थातीन नेत्र क्रोध के मारे लाल अंगारों के समान लग रहे थे। उन्होंने अपना मुख पूर्णतः खोल दिया थाकेश खुले पैरो तक लटक रहें थे। घोर क्रोध युक्त उस प्रदीप्त शरीर वाली सती ने अट्टहास करते हुए दक्ष से गंभीर वाणी में कहा! “अब मैं आप से दूर नहीं जाऊंगीअपितु आप से उत्पन्न इस शरीर को शीघ्र ही नष्ट कर दूंगी।” देखते ही देखते वह छाया-सती क्रोध से लाल नेत्र करउस प्रज्वलित यज्ञकुंड में कूद गई। उस क्षण पृथ्वी कांपने लगी तथा वायु भयंकर वेग से बहने लगीपृथ्वी पर उल्का-पात होने लगा। यज्ञ अग्नि की अग्नि बुझ गईवह उपस्थित ब्राह्मणों ने नाना प्रयास कर पुनः जैसे-तैसे यज्ञ को आरंभ किया।

जैसे ही शिव जी के ६० हजार प्रमथों ने देखा की सती ने यज्ञ कुंड में अपने प्राणों की आहुति दे दीवे सभी अत्यंत रोष से भर गए। २० हजार प्रमथ गणो ने सती के साथ ही प्राण त्याग दिएबाकी बचे हुए प्रमथ गणो ने दक्ष को मरने हेतु अपने अस्त्र-शास्त्र उठायें। उन आक्रमणकारी प्रमथों को देख कर भृगु ने यज्ञ में विघ्न उत्पन्न करने वालों के विनाश हेतु यजुर्मंत्र से दक्षिणाग्नि में आहुति दी। जिस से यज्ञ से 'ऋभु नामके सहस्रों देवता प्रकट हुएउन सब के हाथों में जलती हुई लकड़ियाँ थीं। उन ऋभुयों के संग प्रमथ गणो का भयंकर युद्ध हुआजिसमें उन प्रमथ गणो की हार हुई।

यह सब देख वहां पर उपस्थित सभी देवताऋषिमरुद्गणाविश्वेदेवलोकपाल इत्यादि सभी चुप रहें। वहां उपस्थित सभी को यह आभास हो गया था कीवहां कोई विकट विघ्न उत्पन्न होने वाला हैंउनमें से कुछ एक ने भगवान विष्णु से विघ्न के समाधान करने हेतु कोई उपाय करने हेतु कहा। इस पर वहाँ उपस्थित सभी अत्यधिक भयभीत हो गए और शिव द्वारा उत्पन्न होने वाले विध्वंसात्मक प्रलय स्थित की कल्पना करने लगे।


पशूनां पतिं पापनाशं परेशं
गजेन्द्रस्य कृत्तिं वसानं वरेण्यम्
जटाजूटमध्ये स्फुरद्गाङ्गवारिं
महादेवमेकं स्मरामि स्मरारिम्
(हे शिव आप) जो प्राणिमात्र के स्वामी एवं रक्षक हैंपाप का नाश करने वाले परमेश्वर हैंगजराज का चर्म धारण करने वाले हैंश्रेष्ठ एवं वरण करने योग्य हैंजिनकी जटाजूट में गंगा जी खेलती हैंउन एक मात्र महादेव को बारम्बार स्मरण करता हूँ|

भगवान शिव
मुनिराज नारद ने कैलाश जाकर भगवान से कहा, “महेश्वर आप को प्रणाम हैं! आप की प्राणप्रिय सती ने अपने पिता के घर आप की निंदा सुनकर क्रोध-युक्त हो यज्ञकुंड में अपने देह का त्याग कर दिया तथा यज्ञ पुनः आरंभ हो गया हैंदेवताओं ने आहुति लेना प्रारंभ कर दिया हैं।” भृगु के मन्त्र बल के प्रताप से जो प्रमथ बच गए थेवे सभी भगवान शिव के पास गए और उन्होंने उन्हें उपस्थित परिस्थिति से अवगत करवाया।


नारद तथा प्रमथ गणो से यह समाचार सुनकर भगवान शिव शोक प्रकट करते हुए रुदन करने लगेवे घोर विलाप करने लगे तथा मन ही मन सोचने लगे, “मुझे इस शोक-सागर में निमग्न कर तुम कहा चली गईअब मैं कैसे अपना जीवन धारण करूँगाइसी कारण मैंने तुम्हें वहाँ जाने हेतु मना किया थापरन्तु तुम अपना क्रोध प्रकट करते हुए वहाँ गई तथा अंततः तुमने देह त्याग कर दिया।” 

इस प्रकार के नाना विलाप करते हुए उन शिव के मुख तथा नेत्र क्रोध से लाल हो गए तथा उन्होंने रौद्र रूप धारण कर लिया। उनके रुद्र रूप से पृथ्वी के जीव ही क्या स्वयं पृथ्वी भी भयभीत हो गई। भगवान रुद्र ने अपने सर से एक जटा उखड़ी और उसे रोष पूर्वक पर्वत के ऊपर दे माराइसके साथ ही उनके ऊपर के नेत्रों से एक बहुत चमकने वाली अग्नि प्रकट हुई। उनके जटा के पूर्व भाग से महा-भयंकर,‘वीरभद्र’ प्रकट हुए तथा जटा के दूसरे भाग से ‘महाकाली’ उत्पन्न हुईजो घोर भयंकर दिखाई दे रहीं थीं।

'वीरभद्रमें प्रलय-काल के मृत्यु के समान विकराल रूप धारण कियाजिससे तीन नेत्रों से जलते हुए अंगारे निकल रहे थेउनके समस्त शरीर से भस्म लिपटी हुई थींमस्तक पर जटाएं शोभित हो रहीं थीं।

उसने भगवान शिव को प्रणाम कर तीन बार उनकी प्रदक्षिणा की तथा हाथ जोड़ कर बोला “मैं क्या करूँ आज्ञा दीजियेआप अगर आज्ञा दे तो मैं इंद्र को भी आप के सामने ले आऊँफिर भले ही भगवान विष्णु उनकी सहायतार्थ क्यों न आयें।”

भगवान शिव ने वीरभद्र को अपने प्रमथों का प्रधान नियुक्त करशीघ्र ही दक्ष पुरी जाकर यज्ञ विध्वंस तथा साथ ही दक्ष का वध करने की भी आज्ञा दी। भगवान शिव ने उस वीरभद्रको यह आदेश देकरअपने निश्वास से हजारों गण प्रकट किये। वे सभी भयंकर कृत्य वाले तथा युद्ध में निपुण थेकिसी के हाथ में तलवार थीं तो किसी के हाथ में गदाकोई मूसलभालाशूल इत्यादि अस्त्र उठाये हुए थे। वे सभी भगवान शिव को प्रणाम कर वीरभद्र तथा महा-काली के साथ चल दिए और शीघ्र ही दक्ष-पुरी पहुँच गए।

इस तरह से भगवान शिव ने  वीरभद्र तथा महा-काली को प्रकट कर उन्हें दक्ष के यज्ञ का विध्वंस कर उनकी वध करने की आज्ञा दी।

कालीकात्यायनीईशानीचामुंडामुंडनर्दिनीभद्र-कालीभद्रत्वरिता तथा वैष्णवीइन नौ-दुर्गाओं के संग महाकालीदक्ष के विनाश करने हेतु चली। उनके संग नाना डाकिनियाँशकिनियाँभूतप्रमथगुह्यककुष्मांडपर्पटचटकब्रह्म-राक्षसभैरव तथा क्षेत्र-पाल आदि सभी वीर भगवान शिव की आज्ञानुसार दक्ष यज्ञ के विनाश हेतु चले। इस प्रकार जब वीरभद्रमहाकाली के संग इन समस्त वीरों ने प्रस्थान कियातब दक्ष के यह देवताओं को नाना प्रकार के विविध उत्पात तथा अपशकुन होने लगे। वीरभद्र के दक्ष यज्ञ स्थल में पहुँच कर समस्त प्रमथों को आज्ञा दी ! “यज्ञ को तत्काल विध्वस्त कर समस्त देवताओं को यहाँ से भगा दो"इसके पश्चात सभी प्रमथ गण यज्ञ विध्वंसक कार्य में लग गए।

इस कारण दक्ष बहुत भयभीत हो गए और उन्होंने यज्ञ संरक्षक भगवान विष्णु से यज्ञ की रक्षा हेतु कुछ उपाय करने का निवेदन किया। भगवान विष्णु ने दक्ष को बताया कि उससे बहुत बड़ी भूल हो गई हैंउन्हें तत्व का ज्ञान नहीं हैंइस प्रकार उन्हें देवाधिदेव की अवहेलना नहीं करनी चाहिये थीं। उपस्थित संकट को टालने में कोई भी सक्षम नहीं हैं। शत्रु-मर्दक वीरभद्रभगवान रुद्र के क्रोधाग्नि से प्रकट हुए हैंइस समय वे सभी रुद्र गणो के नायक हैं एवं अवश्य ही इस यज्ञ का विध्वंस कर देंगे। इस प्रकार भगवान विष्णु के वचन सुनकर दक्ष घोर चिंता में डूब गए। तदनंतरशिव गणो के साथ देवताओं का घोर युद्ध प्रारंभ हुआउस युद्ध में देवता पराजित हो भाग गए। शिव गणो ने यज्ञ स्तूपों को उखाड़ कर दसों दिशाओं में फेंका और हव्य पात्रों को फोड़ दियाप्रमथों ने देवताओं को प्रताड़ित करना प्रारंभ कर दिया तथा उन्होंने देखते ही देखते उस यज्ञ को पूर्णतः विध्वस्त कर दिया।

इस पर भगवान विष्णु ने प्रमथों से कहा! “आप लोग यहाँ क्यों आयें हैंआप लोग कौन हैंशीघ्र बताइये।"

इस पर वीरभद्र ने कहा, “हम लोग भगवान शिव की अवमानना करने के कारण इस यज्ञ को विध्वंस करने हेतु भेजे गए हैं।” वीरभद्र ने प्रमथों को आदेश दिया कि! कही से भी उस दुराचारी शिव से द्वेष करने वाले दक्ष को पकड़ लायें। इस पर प्रमथ गण दक्ष को इधर उधर ढूंढने लगेउनके रास्ते में जो भी आया उन्होंने उसे पकड़ कर मारा-पिटा। प्रमथों ने पूषाको पकड़ कर उसके दांत तोड़ दिए और अग्नि-देवता को बलपूर्वक पकड़ कर जिह्वा काट डालीअर्यमा की बाहु काट दी गईअंगीरा ऋषि के ओष्ट काट डालेभृगु ऋषि की दाड़ी नोच ली। उन प्रमथों ने वेद-पाठी ब्राह्मणों को कहा! आप लोग डरे नहीं और यहाँ से चले जाइएअपने आप को अधिक बुद्धिमान समझने वाला देवराज इंद्र मोर का भेष बदल उड़कर वह से एक पर्वत पर जा छिप बैठ गया और वही से सब घटनाएँ देखने लगा।

उन प्रमथ गणो द्वारा इस प्रकार उत्पात मचने पर भगवान विष्णु ने विचार किया, “मंदबुद्धि दक्ष ने शिव से द्वेष वश इस यज्ञ का आयोजन कियाउसे अगर इसका फल न मिला तो वेद-वचन निष्फल हो जायेगा। शिव से द्वेष होने पर मेरे साथ भी द्वेष हो जाता हैंमैं ही विष्णु हूँ और मैं ही शिवहम दोनों में कोई भेद नहीं हैं। शिव का निंदक मेरा निंदक हैंविष्णु रूप में मैं इसका रक्षक बनूँगा तथा शिव रूप में इसका नाशक। अतः मैं कृत्रिम भाव से दिखने मात्र के लिए युद्ध करूँगा और अन्तः में हार मान कर रुद्र रूप में उसका संहार करूँगा।यह संकल्प कर उन शंख चक्र धारी भगवान विष्णु ने प्रमथों द्वारा किये जा रहे कार्य को रोकाइस पर वीरभद्र ने विष्णु से कहा! “सुना हैं आप इस महा-यज्ञ के रक्षक हैंआप ही बताये वह दुराचारीशिव निंदक दक्ष इस समय कहाँ छिपा बैठा हैंया तो आप स्वयं उसे लाकर मुझे सौंप दीजिये या मुझ से युद्ध करें। आप तो परम शिव भक्त हैंपरन्तु आज आप भी शिव के द्वेषी से मिल गए हैं।

भगवान विष्णु ने वीरभद्र से कहा! “आज मैं तुम से युद्ध करूँगामुझे युद्ध में जीतकर तुम दक्ष को ले जा सकते होआज मैं तुम्हारा बल देखूंगा। यह कहा कर भगवान विष्णु ने गणो पर धनुष से बाणों की वर्षा की जिसके कारण बहुत से गण क्षत-विक्षत होकर मूर्छित हो गिर पड़े। इसके पश्चात भगवान विष्णु तथा वीरभद्र में युद्ध हुआदोनों ने एक दूसरे पर गदा से प्रहार कियादोनों में नाना अस्त्र-शस्त्रों से महा घोर युद्ध हुआ। वीरभद्र तथा विष्णु के घोर युद्ध के समय आकाशवाणी हुई “वीरभद्र! युद्ध में क्रुद्ध हो तुम आपने आप को क्यों भूल रहे होतुम जानते नहीं हो की जो विष्णु है वही शिव हैंइनमें किसी प्रकार का भेद नहीं हैं।"

तदनंतरवीरभद्र ने भगवान विष्णु को प्रणाम किया तथा दक्ष को पकड़ कर बोला, “ प्रजापति जिस मुख से तुमने भगवान शिव की निंदा की हैं मैं उस मुख पर ही प्रहार करूँगा। वीरभद्र ने दक्ष के मस्तक को उसके देह से अलग कर दिया तथा अग्नि में मस्तक की आहुति दे दी एवं जो शिव निंदा सुनकर प्रसन्न होते थे उनके भी जिह्वा और कान कट डाले।

भगवान शिव प्रचंड आंधी की भांति कनखल जा पहुंचे। सती के जले हुए शरीर को देखकर भगवान शिव ने अपने आपको भूल गए। सती के प्रेम और उनकी भक्ति ने शंकर के मन को व्याकुल कर दिया। उन शंकर के मन को व्याकुल कर दियाजिन्होंने काम पर भी विजय प्राप्त की थी और जो सारी सृष्टि को नष्ट करने की क्षमता रखते थे। वे सती के प्रेम में खो गएबेसुध हो गए।

भगवान शिव ने उन्मत की भांति सती के जले हिए शरीर को कंधे पर रख लिया। वे सभी दिशाओं में भ्रमण करने लगे। शिव ने सती का शव बाँहों में उठा लिया और दूसरी बार तीव्र अभिलाषा से भर उठेपहली बार अभिलाषा तब जगी जब सती मर गयी थी और फिर जब सती मरी नहीं थी। सती की ढीली बाँहें इधर-उधर लटक रही थीं। उनके पीछे और नीचे टकराती हुई। शिव की आँखों से आग और तेजाब के आँसू बह रहे थे।

देवता दहल गये - अगर आग और तेजाब के ये आँसू इसी तरह गिरते रहे तो स्वर्ग की दूसरी मंजिल और धरती जल जाएगी और हम सूअरों की तरह भुन जाएँगे। सो उन्होंने शनि से विनती की कि शनि देवता शिव के इस क्रोध को अपने प्याले में ग्रहण करें।

सती का शव अनश्वर हैइसलिए हमें उनके अंगों का विच्छेद कर देना चाहिए! देवताओं ने राय की।
शनि का पात्र बहुत छोटा थाउसमें शिव के अग्निअश्रु नहीं समा सके। वे आँसू धरती के सागरों में गिरे और वैतरणी में चले गये।

शिव और सती के इस अलौकिक प्रेम को देखकर पृथ्वी रुक गईहवा रूक गईजल का प्रवाह ठहर गया और रुक गईं देवताओं की सांसे। सृष्टि व्याकुल हो उठीसृष्टि के प्राणी पाहिमाम पाहिमाम पुकारने लगे। इस भयानक संकट को देखकर पालक के रूप में भगवान विष्णु आगे बढे, वे भगवान शिव की बेसुधी में अपने चक्र से सती के एक एक अंग को काट कर गिराने लगेकट कट कर सती के अंग पृथ्वी पर इक्यावन स्थानों पर गिरे। इस तरह से सती का पूरा शरीर बिखर गया। शिव एक बार फिर जोगी हो गये। अपनी खाली बाँहें देखकर और इधर-उधर ब्रह्माण्ड घूमते रहे।

धरती पर जिन इक्यावन स्थानों में सती के अंग कर कर गिरे थेवे ही स्थान आज शक्ति के पीठ स्थान माने जाते हैं। आज भी उन स्थानों में सती का पूजन होता हैंउपासना होती है। धन्य था शिव और सती का प्रेम। शिव और सती के प्रेम ने उन्हें अमर बना दिया हैवंदनीय बना दिया है।


कैलाश में जाकर ब्रह्मा जी ने शिव जी को समझाया कि यह केवल उनका भ्रम ही हैं किसती का देह-पात हो गया हैंजगन्माता ब्रह्मा-स्वरूपा देवी इस जगत में विद्यमान हैं। सती ने तो छाया सती को उस यज्ञ में खड़ा किया थाछाया सती यज्ञ में प्रविष्ट हुईवास्तविक रूप से उस समय देवी सती आकाश में उपस्थित थीं। आप तो विधि के संरक्षक हैंकृपा कर आप वहां उपस्थित हो यज्ञ को समाप्त करवाएं।

अंततः शिव जीब्रह्मा जी के साथ दक्ष के निवास स्थान गएजहाँ पर यज्ञ अनुष्ठान हो रहा था। तदनंतरब्रह्मा जी ने शिव जी से यज्ञ को पुनः आरंभ करने की अनुमति मांगीइस पर शिव जी ने वीरभद्र को आज्ञा दी की वह यज्ञ को पुनः प्रारंभ करने की व्यवस्था करें। इस प्रकार शिव जी से आज्ञा पाकर वीरभद्र ने अपने गणो को हटने की आज्ञा दी तथा बंदी देवताओं को भी मुक्त कर दिया गया। ब्रह्मा जी ने पुनः शिव जी से दक्ष को भी जीवन दान देने का अनुरोध किया। शिव जीने यज्ञ पशुओं में से एक बकरे का मस्तक मंगवाया तथा उसे दक्ष के धड़ के साथ जोड़ दिया गयाजिससे वह पुनः जीवित हो गया। (इसी विद्या के कारण उन्हें वैध-नाथ भी कहा जाता हैंशिव जी ने दक्ष के देह के संग बकरे का मस्तक तथा गणेश के देह के संग हाथी का मस्तक जोड़ा थाजो आज तक कोई भी नहीं कर पाया हैं। ) ब्रह्मा जी के कहने परयज्ञ छोड़ कर भागे हुए यजमान निर्भीक होकर पुनः उस यज्ञ अनुष्ठान में आयें तथा उसमें शिव जी को भी यज्ञ भाग देकर यज्ञ को निर्विघ्न समाप्त किया गया।

इसके पश्चात बकरे के मस्तक से युक्त दक्ष ने भगवान शिव से क्षमा याचना की तथा नाना प्रकार से उनकी स्तुति कीअंततः उन्होंने शिव-तत्व को ससम्मान स्वीकार किया।

शिव अब पूर्ण रूप से तपस्वियों के पूर्ण अवतार थे। कुछ वर्ष बाद वे दिगम्बरों के समाज में पहुँचे। शिव वहाँ भिक्षाटन करतेपर दिगम्बरों की पत्नियाँ उनके प्रति आसक्त हो गयीं। अपनी पत्नियों का यह हाल देखकर दिगम्बर देवताओं ने शाप दिया - इस व्यक्ति का लिंगम् धरती पर गिर जाए! शिव लिंगम धरती पर गिर गया। प्रेम तत्काल नपुंसक हो गया - पर देवताओं ने यह नहीं चाहा था। उन्होंने शिव से प्रार्थना की कि वे लिंगम् को धारण करें। शिव ने कहा, ‘अगर नश्वर और अनश्वर मेरे लिंगम् की पूजा करना स्वीकार करेंतो मैं इसे धारण करूँगा अन्यथा नहीं!”

दोनों प्रजातियों ने ये स्वीकार नहीं कियायद्यपि प्रजनन का वह एक मात्र माध्यम थाइसलिए वह वहीं बर्फ में पड़ा रहा और शिव ने दुख की अन्तिम श्रृंखला पार की और उस पार चले गये।

और तब धरती पर 3,600 वर्षों के लिए शान्ति और अत्याकुल युग का अवतरण हुआ - जोकि शायद इस युग तक चलताअगर तारक नाम का आत्मसंयमी कट्टर राक्षस पैदा न हुआ होता। क्योंकि उसका आत्मनिषेध देवताओं के लिए खतरा बन गया। जरूरत थी दुनिया को पवित्र रखने कीदूसरे शब्दों में अपने लिए सुरक्षित रखने की।

भविष्यवाणी यह थी कि तारक का वध एक सात दिवसीय शिशु द्वारा किया जा सकता हैजो शिव और देवी के सम्मिलन से होगाजो एक वन में जन्म लेगा और कार्तिकेय नाम से जाना जाएगा। कार्तिकेय यानी मंगलग्रह अर्थात् युद्ध का देवता - वह ग्रह जो सब देशों को दिशा देता है।

अब एक नई प्रेमकथा का प्रारम्भ होना था !
महेशं सुरेशं सुरारातिनाशं
विभुं विश्वनाथं विभूत्यङ्गभूषम्
विरूपाक्षमिन्द्वर्कवह्नित्रिनेत्रं
सदानन्दमीडे प्रभुं पञ्चवक्त्रम्
हे महेश्वरसुरेश्वरदेवों (के भी) दु:खों का नाश करने वाले विभुं विश्वनाथ (आप) विभुति धारण करने वाले हैंसूर्यचन्द्र एवं अग्नि आपके तीन नेत्र के सामान हैं। ऎसे सदा आनन्द प्रदान करने वाले पञ्चमुख वाले महादेव मैं आपकी स्तुति करता हूँ।
~ विजय कुमार सप्पत्ति


इस कथा की अगली कड़ी पढ़ें:

Story Of Lord Shiva In Hindi ~ एक अलौकिक प्रेमकथा - सती से पार्वती तक ~ भाग 2



संक्षिप्त लेखकीय परिचय
मैं तेलुगु भाषी हूँ और हिंदी में ही लिखता हूँ।  मैं कविता और कहानी के साथ आलेख भी लिख लेता हूँ।  अब तक मेरी दो किताबे प्रकाशित हुई है। एक कविता की है और एक कहानी की है ।  
कईं पत्रिकाओ में मेरी कविता और कहानी प्रकाशित भी हुई है।  हंससोच-विचार, कादम्बिनीतथा कई और पत्रिकाये में, मेरा साहित्य प्रकाशित हुआ हूँ . मैं मुख्यतः अंतरजाल पर ज्यादा सक्रीय हूँ।  
मैं एक अहिन्दी भाषी लेखक हूँ जो कि हिंदी में लिखने में गर्व महसूस करता है.

ईश्वर की असीम कृपा से अब तक मुझे करीब ४० से ज्यादा सम्मान और पुरस्कार प्राप्त हो चुके है .

मेरा अब तक का प्रकाशन इस तरह का है :
कविता संग्रह / Poetry Collection:  “ उजले चाँद की बेचैनी ”

कहानी संग्रह / Story Collection : “ एक थी माया ”

COMMENTS

BLOGGER: 9
  1. भगवान् शिव जी के बारेमें पढ़कर और भी ज्ञान प्राप्त हुआ

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  2. bhagvan shivji aur parvati ki pauranik kahaniya ham sabane bahut bar suni hain aur padhi hain, bhagvan shiv ji ek aur kahani padhakar achcha laga.
    har har mahadev

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  3. शिवजी की महिमा और कथा पढकर बहुत आनंद आया ।

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  7. ॐ हौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ॐ स्वः भुवः भूः ॐ सः जूं हौं ॐ।

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  8. बेनामी9/17/2023 10:17 pm

    very well compiled and written

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