छपना है तुझे रचना के लिए, Satire Essay On Hindi Publication, Vyang Rachnayen By Amit Sharma.
किसी लेखक के लिए छपना उतना ही ज़रूरी और स्वाभाविक है जितना कि किसी राजनैतिक पार्टी का टिकट वितरण में धांधली करना। बिना छपे किसी लेखक का वही मूल्य होता है जो मूल्य "श्रीलंका" में "श्री" का या फिर पाकिस्तान में लोकतंत्र का है। किसी भी लेखक के लिए उसकी रचना, जिगर के टुकड़े के समान होती है जिसे वो कागज़ के टुकड़े पर "लैंड"करवाता है।
लेखक भले ही "आज मैं ऊपर, आसमान नीचे" स्टाइल में, दुनिया को सूचित करने के लिए "राष्ट्र के नाम संबोधन" दे की वो केवल अपनी ख़ुशी के लिए लिखता है लेकिन ख़ुशी तब तक उसकी गिरफ्त में नहीं आती है ज़ब तक उसकी मुठभेड़ रचना प्रकाशन की खुशखबरी से नहीं हो जाती है। मतलब केवल हाथी ही नहीं बल्कि ख़ुशी के भी दिखाने और खाने के दांत अलग अलग होते है। जानकर लोग, एकांत और "ऑफ द रिकॉर्ड" का आलिंगन करके बताते है कि लेखक के खाने और दिखाने के दांत अलग हो सकते है लेकिन काटने वाला दांत रखने की हैसियत केवल संपादक और प्रकाशक की ही होती है। ज़ब लेखक को अलग अलग दांतो की रखवाली करनी हो तो, उसके टूथपेस्ट में नमक का बम्पर स्टॉक होना चाहिए ताकि दांतो को ज़ेड श्रेणी की सुरक्षा प्रदान करने के साथ साथ वो संपादक और प्रकाशक के नाम का नमक भी अपने लेखन की माँग में भर सके। लेखक की रचना और ख़ुशी, दोनों प्रकट होने के लिए साहित्यपथ पर धैर्यपूर्वक, संपादक और प्रकाशक के ग्रीन सिग्नल का वेट करती है।
रचना के प्रकाशन के लिए किसी भी लेखक को पहले अपनी बुद्धिमति का उपयोग करते हुए किसी संभावित रचना से खुद को गर्भवती करना होता है, फिर किसी समाचारपत्र या पत्रिका में उसके प्रकाशन के लिए "लेबर पेन" सहना होता है। अपने "पेन" से लिखी हुई रचना के लिए "पेन" (दर्द) सहना, लेखक के लिए प्रसूति सुख जैसा होता है। रचना की सफल डिलीवरी, अख़बार या पत्रिका के किसी सुरक्षित कोने में होने पर जच्चा और बच्चा, मतलब लेखक और रचना दोनों चैन की सांस लेकर सुकुन की बंसी बजा सकते है।
अपनी "छपास" मिटाने के लिए लेखक को सुबह जल्दी उठकर "तपास" (ख़ोज) के हत्थे भी चढ़ना होता है। सुबह उठकर लेखक महोदय नित्यक्रिया करने से भी पहले सभी अख़बारों के ई पेपर के दर्शन निपटाते है। अखबारो में छपी हुई रचना तो ई पेपर के माध्यम से बरामद कर ली जाती है लेकिन पत्रिकाओ में प्रकाशित हुई रचना को देखकर तब तक आप आत्ममुग्धता के शिकार नहीं हो सकते ज़ब तक भारतीय पोस्टल विभाग की कृपा से पत्रिका की प्राण प्रतिष्ठा आपके कर कमलो में ना हो जाए। अपनी कृति की प्रति ना मिलने से बड़ा लेखकीय दुःख दूसरा नहीं होता है।
आपकी रचना ने किस अख़बार के गले में वरमाला डाली है, यह ढूँढना शादी में रूठ कर कही बैठे हुए फूफाजी को ढूँढने जितना मुश्किल होता है। कभी कभी रचना अख़बार के गले पड़कर, आसानी से वरमाला डाल देती है तो कभी कभी संपादक जी, संपादकीय कैंची रूपी "माला-डी" का प्रयोग करके वरमाला कार्यक्रम का निरोध कर देते है।
संपादकजी के रद्द करने के बाद रचना, रद्दी की अमानत हो जाती है। किसी रचना का अप्रकाशित रह जाना लेखक के लिए ठीक वैसा ही है जैसे चुनाव में किसी प्रत्याशी की ज़मानत ज़ब्त हो जाना या फिर किसी बूढ़े बाप की चौखट पर उसकी जवान बेटी की बारात का वापस लौट जाना। हर बाप की बचपन से ख्वाहिश होती है कि उसकी बेटी को अच्छे कारपेट एरिया वाला घर और "कम पेट" वाला खूबसूरत वर मिले, ठीक उसी तरह से हर लेखक भी चाहता है कि उसकी रचना, बाबुल सुप्रियो की धुन पर बाबुल की दुवाएं लेते हुए, किसी अच्छे अख़बार या पत्रिका के साथ अपना घर और गाँव दोनों बसा ले।
कुछ समाचारपत्र और पत्रिकाए, लेखको की रचनाओ को इज़्ज़तपूर्वक स्थान देते है ज़बकि कुछ समाचारपत्र और पत्रिकाए रचनाओ को बड़ी ही सावधानीपूर्वक ठिकाने लगाते है ताकि रचनाओ के मलबे के नीचे पाठक कही दब ना जाए।
केवल छपने पर ही लेखक अपने संघर्ष को छुट्टी नहीं दे सकता है। रचना प्रकाशन के बाद भी संघर्ष को ओवरटाइम और ओवरएक्टिंग दोनों करनी होती है क्योंकि रचना प्रकाशन के बाद उसकी कटिंग फेसबुक की दीवार पर टांग कर लाइक-कमेंट्स की लहलहाती फसल भी काटनी होती है। किसी रचना पर दी गई अच्छी प्रतिक्रिया म्यूच्यूअल फंड्स से भी अच्छा और सुरक्षित निवेश माना जाता है जिस पर रिटर्न गारंटीड होता है। न्यूटन का तीसरा नियम भले ही क्रिया की प्रतिक्रिया में विश्वास रखता है लेकिन फेसबुकिया लेखक इसके झांसे में नहीं आते है। फेसबुक पर दूसरे लेखको की रचना पर दी गई अच्छी प्रतिक्रिया ही आपकी रचना पर अच्छी प्रतिक्रिया को निमंत्रण देती है।
लेखन और प्रकाशन का वही संबंध है जो कांग्रेस और गांधी परिवार या संघ और भाजपा का है। प्रकाशन के लिए क्वालिटी का फ़िल्टर लगाने की मर्यादाए भंग हो चुकी है क्योंकि वैश्विकरण के इस दौर मे एक बार छप जाने पर हर रचना साहित्य की गोदी में बैठने की योग्यता रखती है। साहित्य की फैक्टरी में उत्पादन ज़ारी रहे इसीलिए आवश्यक है कि लेखन से ज़्यादा प्रकाशन को प्रोत्साहन दिया जाए।
वाह शर्मा जी
जवाब देंहटाएंक्या लेखन किया है
पढ़कर बहुत अच्छा लगा इस तरह लिखते रहिए