भारतीय संस्कृति में शास्त्रीय संगीत का विशेष महत्व है। शास्त्रीय संगीत को ही क्लासिकल म्यूजिक के नाम से भी जाना जाता है। जिसे वाद यंत्र के माध्यम से शब्द रहित, ध्वनि के उतार चढ़ाव से उत्पन्न किया जाता है। संगीत एक विशेष साधना है, यह कलाकार की लगन, रियाज, जोश पर निर्भर करता है कि वह अपनी प्रतिभा से देश का नाम कैसे रोशन करे।
एक कलाकार वास्तव में ईश्वर की सच्ची नियामत होती है। जो कि धर्म जात-पात से ऊपर उठकर मानवता वादी विचार धारा का समर्थन कर, आगामी पीढिय़ों के लिए एक मिशाल कायम करें। लेखक आज ऐसे ही महान व्यक्तित्व, की चर्चा करने जा रहा है। जिन्होंने शहनाई वाद यंत्र, जिसे किसी भी व्यक्ति ने कोई महत्व नहीं दिया था, को बुलंदियों पर पहुंचा कर स्वयं की प्रतिष्ठा व देश का गौरव चाहूँ ओर बढ़ा दिया।
शहनाई का पुराना नाम शह हन्या था किंतु अब उसे उस्ताद बिस्मिल्ला खां के नाम से भी जाना जाता है। यह भी एक ईश्वर का संयोग ही कहे, शहनाई को मंगल कारी कार्यक्रम के दौरान ही बजाया जाता है।
बिस्मिल्ला शब्द, कुरान की एक आयत है- बिस्मिल्लाह अर-रहमान अर रहीम का संक्षिप्त रूप है। अर्थात हे ईश्वर दयालु करुणानिधान मैं आपका नाम लेकर अमुक कार्य आरंभ करता हूँ।
बिस्मिल्ला खां सांप्रदायिक सौहार्द के पोषक रहे। उन्होंने सदैव शास्त्रीय संगीत के द्वारा ही भारत की अखंडता को सुदृढ़ बनाने में अपनी अहम भूमिका अदा की। बिस्मिल्ला खां का जन्म, बिहार के एक गांव-डुमरांव के, ऐसे परिवार में हुआ जिनकी पीढिय़ां ने शास्त्रीय संगीत के संस्कारों को सहजता से संजोया रखा। उनके पूर्वज भी पांच पीढिय़ों से राज दरबारों में संगीतकार थे। उनके परदादा हुसैन बख्श व रसूल बख्स भी दम्रराव पैलेस में संगीतकार के पद पर कार्यरत थे।
उनके पिता का नाम पैगम्बर बख्स था, जो कि वहां की रियासत के राजा के यहां पर संगीतकार थे। उनकी माता का नाम मिट्ठन बाई था। 21 मार्च 1916 को प्रात: जब उनके पिता किसी संगीत प्रस्तुति के लिए जा रहे थे। जैसे ही बहार निकलने लगे, तो पत्नि की चीखने की आवाज के साथ-साथ, उन्हें बच्चे की किलकारी भी सुनाई दी। पैगम्बर बख्स के मुख से बिस्मिल्ला शब्द निकला, तभी से नवजात शिशु का नाम बिस्मिल्ला खां रख दिया गया। वैसे उनके बचपन का नाम कमरूद्दीन था। बिस्मिल्ला खां 6 वर्ष की आयु में ही अपने मामा अली बख्स विलायती के यहां बनारस पहुंच गये।
उनके मामा विलायती की जीविका विश्वनाथ मंदिर में शहनाई वादन से चलती थी। बनारस के विश्वनाथ मंदिर में या फिर गंगा जी से, इतना लगाव हो गया कि घंटो बैठ कर शहनाई का रियाज किया करते। बनारस में ही उन्होंने अपने मामा से शहनाई बजाना सीखा। बताया जाता है कि, एक बार बिस्मिल्ला खां अपने मामा के साथ इलाहाबाद की संगीत परिषद में प्रस्तुति देने गये। वहां उन्होंने ऐसी प्रस्तुति दी, कि उनकी कलाकारी से प्रसन्न होकर, उन्हें उपहार के रूप में चांदी का तमगा मिला। तब से मरते दम तक उन्होंने जीवन में पीछे मुड़ कर नहीं देखा।
बिस्मिल्ला खां का निकाह 16 वर्ष की कम उम्र में मुग्गन खानम के साथ हुआ। वो अपनी बेगम को बेहद लगाव करते थे। उतना ही लगाव वे अपनी शहनाई को भी करते थे। क्योंकि शहनाई को वे अपनी दूसरी बेगम कहते थे। मुस्लिम होने के बावजूद वो अन्य संगीतकारों की भांति सरस्वती देवी के भी परम उपासक थे।
एक रोज जब बिस्मिल्ला खां मंदिर में रियाज कर रहे थे। तब एक मौलवी ने उन्हें उर्दू में कहा कि यह क्या शैतान का कार्य कर रहे हो। तब उन्होंने संगीत के माध्यम से ऐसा जवाब दिया कि (अल्लाह ही अल्लाह अल्लाह ही चल श्याम अल्लाह....रिम झिम बरसो......) वह शर्म से पानी, पानी हो गया।
बिस्मिल्ला खां ने अपने सफल जीवन की शुरूआत आकाशवाणी लखनऊ से की। जब खां साहब पहली बार आकाशवाणी पहुंचे तो सभी ने खां साहब का मजाक बनाया, ये क्या प्रस्तुति देंगे। उस समय आकाशवाणी का कार्य भार मुख्य: भट्टाचार्य व धर्मानंद कंधों पर था। जब प्रस्तुति के दौरान तौहरी बजा कर मौजूद व्यक्तियों को आश्चर्यचकित कर दिया तो खां साहब को आकाशवाणी नेे मुलाजिम के तौर पर रखने का प्रस्ताव दिया। लेकिन खां साहब ने कहा हम तो, आजाद परिंदे है हमसे बंदिशों में नहीं रहा जायेगा।
बिस्मिल्ला खां जी कहते थे, संगीत व कुश्ती एक दूसरे के पूरक है, जैसे कुश्ती में ध्यान, पवित्रता, संयम रखना पड़ता है, वैसे ही संगीत में। यदि आकाशवाणी से खबर आ जाये तो उन्हें चाहे अन्य कार्यक्रम, जो कितने भी कीमती क्यों ना हो रद्द कर, आकाशवाणी अवश्य पहुंचना था। आकाशवाणी के माध्यम से ही उन्हें देश विदेशों में पहचान मिली। उस्ताद बिस्मिल्ला खां ने आकाशवाणी व दूरदर्शन को सिग्रेचर धुन भी दी। बिस्मिल्ला खां ने शहनाई के माध्यम से देश विदेश में एक प्रतिष्ठित छवि स्थापित की। जिसको सुनने के लिए एशिया क्या पश्चिम देशों के लोग भी उत्सुक रहते थे।
एक बार खां साहब अमेरिका में किसी खास कार्यक्रम में प्रस्तुति पेश करने गये हुये थे। जब कार्यक्रम पूर्ण हुआ तो आयोजक महाशय ने उस्ताद बिस्मिल्ला खां को अमेरिका में ही निवास करने का मशवरा दे दिया। लेकिन उस्ताद खां साहब ने भी ऐसे ही मजाकिया अंदाज में जवाब दिया, साहब मेरा बनारस, यहां बसा दीजिए वहीं शिवाला...... वहीं सीढिय़ां..... श्री मान, आयोजक बोले यह तो संभव नहीं ..नो , नो.... फिर क्या था, बिस्मिल्ला खां ने भी कह दिया नो ...नो..., मैं अपनों को त्याग कर, यहां नहीं रह सकता....अर्थात हमारा अमेरिका में रहना नामुमकिन है।
सन 1947 में , आजाद भारत की पूर्व संध्या पर जवाहर लाल नेहरू ने उस्ताद बिस्मिल्ला खां को आजाद देश की सुबह के स्वागत में, मंगलकारी धुन बजाने के लिए निमंत्रण दिया।
जब लाल किले पर देश का झंडा फहरा रहा था, उधर उस्ताद बिस्मिल्ला खां अपनी शहनाई के माध्यम से भारत की आजादी का शुभ संदेश देश के जन-जन तक पहुंचा रहे थे। इसी वजह से उन्हें एक विशेष पहचान ओर मिल गई। जिसके चलते उन्होंने कुछ फिल्मों में भी संगीत दिया (गूंज उठी शहनाई,जल सागर ,सन्नादा अपन्ना में अपनी शहनाई की धुन दी)।
उन्हें कई सम्मानों से सम्मानित किया गया।
1930-ऑल इंडिया म्यूजिक कांफ्रेस में बेस्ट पर फॉमर पुरस्कार,
1956-संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार,
1961-पदम श्री,
1980- पद्म विभूषण,
2001-भारत रतन से सम्मानित किया गया,
मध्यप्रदेश सरकार द्वारा तान सेन पुरस्कार
बिस्मिल्ला खां को अचानक तेज बुखार हुआ ओर उन्हें वाराणसी के होरिटेज हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया। उन्हें एकाएक दिल का दौरा पड़ा और उनकी मृत्यु 21 अगस्त 2006 को हो गई।
अंतिम दिनों में बिस्मिल्ला खां की इच्छा थी की वे दिल्ली के इंडिया गेट पर शहनाई बजाये। यह इच्छा भी उनकी अधूरी रह गई। उन्हें राजकीय सम्मान से, शहनाई के साथ दफनाया गया और एक दिन का राष्ट्रीय शौक भी घोषित किया गया।
पंडित जसराज हो या फिर हरिप्रसाद चौरसिया जैसे सभी बुद्धि जीवियों का मानना था, कि वे ऐसे व्यक्तित्व थे, जिन्हें एक संत संगीतकार कहा जाये तो कुछ गलत नहीं होगा। वास्तव में हमने एक ऐसी हस्ति को खो दिया था, जिन्होंने अपनी शहनाई से, देश में एकता का संदेश फैलाने के अथक प्रयास किये। जो देश के लिए अपूर्णिय क्षति से कम नहीं थी। उन्हेें युगों-युगों तक संगीत शिक्षक के रूप में सदैव, स्मरण रखा जायेगा।
~ अंकेश धीमान
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