कोटी,-कोटी बलि जाऊं, देश प्यारे, हिंद पर ।
समस्त सुख, समृद्धि, अर्पित, सर्वत्र वतन तुझ पर।।
अंतिम आरजू, सर्वोपरि, राष्ट्र भक्ति, अहले वतन की।।
उक्त पंक्तियां, ऐसे महापुरुषों के व्यक्तित्व पर सटीक साबित होती है, जिन्होंने अपने ऐश्वर्य को त्याग कर, पर हित के लिए अपना जीवन एक सन्यासियों की मानिंद जीवन यापन करते हुये, राष्ट्र सेवा को पूर्ण: समर्पित कर दिया। ताकि देश की भावी पीढिय़ां उनके व्यक्तित्व का अनु शरण करते हुये, देश हित में बढ़-चढ़ कर नये भारत का निर्माण करने में अपना बहुमूल्य सहयोग देे।
जी हां हम, ऐेसे ही, महापुरुष डा. भगवान दास, जो कि भारत रत्न से सम्मानित है, के जीवन चरित्र पर चर्चा करने जहां रहे है। ताकि उन्हें संपूर्ण मानव जाती के अंर्त हृदय में जीवित रखा जा सके। डा. भगवान दास जी ने स्वतंत्रता संग्राम में सहयोग देने के साथ-साथ भारतीय संस्कृति व महापुरुषों की परम्पराओं को भावी पीढिय़ों तक संचारित करने में अपनी अहम भूमिका अदा की। उन्होंने दर्शन, धर्म, शिक्षा के माध्यम से भावी पीढिय़ों को जागरूक करने का अथक प्रयास किया।
प्रारंभिक जीवन-
डा. भगवान दास का जन्म 12 जनवरी, 1869 को, वाराणसी में हुआ। इनके पिता जी का नाम साह माधव दास था, जो कि चुनिंदा प्रतिष्ठित और धनी व्यक्तियों में गिने जाते थे। ऐश्वर्य, धन संपदा के वारिस होने के बावजूद, उनके रोम रोम में, देश भक्ति, दान दक्षिणा जैसे संस्कार, पूर्ण: समाहित थे। जो कि उन्हें अपने पूर्वजों से प्रदत्त थे, जिनका वो सद उपयोग देश सेवा कर, करना चाहते थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा वाराणसी से ही आरंभ हुई, तीव्र बुद्धि क्षमता के कारण ही, इन्होंने 12 वर्ष की अल्प आयु में, हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की। अध्ययन के दौरान भगवान दास जी ने संस्कृत हिन्दी, अरबी, उर्दू, फारसी जैसी कई भाषाओं में अ'छी पकड़ बना ली थी। तत्पश्चात वाराणसी के ही क्वींस कॉलेज से इण्टरमीडिएट और बी.ए. की परीक्षा संस्कृत, दर्शन शास्त्र, मनोविज्ञान और अंग्रेजी विषयों में प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की। डा. साहब के पिता जी चाहते थे, कि उनका पुत्र डिप्टी पद पर तैनात हो जाये, इसी अधूरी इ'छा से उन्होंने डा. भगवान दास जी को आगे की शिक्षा ग्रहण करने हेतु, कोलकत्ता भेजा दिया। 18 वर्ष की आयु में ही, वहाँ से उन्होंने दर्शन शास्त्र में एम.ए. की उपाधि प्राप्त कर ली। डा. भगवान दास, डा. सर्वपगी राधा कृषण के जीवन चरित्र व गांधी जी की विचार धारा से काफी प्रभावित थे। कुछ दिनों के बाद ना चाहते हुये भी, डा. भगवान दास डिप्टी पद पर नियुक्त हो गये। लेकिन उक्त पद पर कार्यरत होने के बावजूद भी, उनका ध्यान अध्ययन और लेखन कार्य में जारी रहा। कुछ वर्षों के उपरांत पिता जी की मृत्यु हो जाने पर, उन्होंने उक्त पद से त्याग पत्र दे दिया। उसके बाद वे 1899 से 1914 तक सेंट्रल हिंदू कालेज के संस्थापक-सदस्य और अवैतनिक मंत्री रहे।
राष्ट्र सेवा, नेता संघर्ष-
गांधी जी की, प्रेरणा के चलते उन्होंने सन 1921 में सविनय अवज्ञा आन्दोलन में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। आंदोलन कारी होने के कारण, उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। असहयोग आन्दोलन में भी उन्होंने अपनी सहभागिता बढ़ चढ़ कर दर्ज कराई। उक्त कारणों के चलते ही वे जनता के समक्ष, कांग्रेसी नेता व स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के रूप में उभरे। असहयोग आन्दोलन के समय डॉ. भगवान दास काशी विश्वविद्यालय के कुलपति थे। 1922 में डा. भगवान दास को वाराणसी के म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन के चुनावों में कांग्रेस को भारी मतों से विजय दिलायी और म्यूनिसिपल कमेटी के अध्यक्ष चुने गये। इस पद पर रहते हुए उन्होंने अनेक सुधार कार्य कराये। साथ ही वह अध्ययन और अध्यापन कार्य से भी जुड़े रहे, विशेष रूप से हिन्दी भाषा के उत्थान और विकास में उनका योगदान विशेष रूप से उगेखनीय रहा। हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष, रूप में उन्होंने महत्वपूर्ण कार्य किये। सन् 1935 के कॉंसिल के चुनाव में वे कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में विधानसभा के सदस्य निर्वाचित हुए। कालांतर में वे सक्रिय राजनीति से दूर रहने लगे और भारतीय दर्शन और धर्म अध्ययन और लेखन कार्य में व्यस्त हो गये ।
शिक्षा क्षेत्र में अहम योगदान-
डॉक्टर भगवानदास शिक्षा शास्त्री, स्वतंत्रता सेनानी, दार्शनिक व कई संस्थाओं के संस्थापक रहे। उन्होंने डॉक्टर एनी बेसेंट को व्यवसायी सहयोग भी दिया। जो बाद मे सेंट्रल हिंदू कॉलेज की स्थापना का मुख्य कारण बना।
परतंत्र होने के कारण भारतीय भाषा, सभ्यता और संस्कृति नष्ट-भ्रष्ट हो रही थी और हमारे महापुरुषों द्वारा उसे बचाने के गंभीर प्रयास किये जा रहे थे। प्रसिद्ध समाज सेविका एनी बेसेंट वाराणसी में एक ऐसे विद्यालय की स्थापना करना चाहती थी जो अंग्रेजों के प्रभाव से पूर्ण: मुक्त हो। जैसे ही डॉ. भगवान दास को उक्त विषय की सूचना मिली, तो उन्होंने उक्त उद्देश्य को पूर्ण करने के प्रयत्न में, अपना दिन रात एक कर दिया। उन्हीं के सार्थक प्रयासों के फलस्वरूप वाराणसी में सैंट्रल हिन्दू कॉलेज की स्थापना की जा सकी। इसके बाद पं. मदनमोहन मालवीय ने वाराणसी में हिन्दू विश्वविद्यालय स्थापित करने का विचार किया, तब डॉ. भगवान दास ने उनके साथ भी, काशी हिन्दू विद्यापीठ की स्थापना में अपना अहम योगदान दिया और पूर्व में स्थापित सैंट्रल हिन्दू कॉलेज का उसमें विलय कर दिया। डॉ. भगवान दास काशी विद्यापीठ के संस्थापक सदस्य ही नहीं, उसके प्रथम कुलपति भी बने।
गांधी वादी, विचार धारा-
जब देश स्वतंत्र हुआ, तब मौजूदा सरकार द्वारा, डॉ. भगवान दास की राष्ट्रहित गतिविधियों के चलते, उन्हें सरकार में महत्वपूर्ण पद ग्रहण का अनुरोध किया गया, किंतु प्रबल गाँधीवादी विचारधारा के धनी व्यक्तित्व ने उन्हें विनय पूर्वक, उक्त पद को अस्वीकार कर दिया। उन्होंने दर्शन, धर्म और शिक्षा के क्षेत्र को ही, राष्ट्र सेवा, समाज सेवा के लिए सर्वोपरि समझा। डॉ. भगवान दास ने 30 से भी अधिक पुस्तकों को हिंदी व संस्कृत भाषा में लिखी। सन् 1953 में भारतीय दर्शन पर उनकी अंतिम पुस्तक प्रकाशित हुई। भारत के राष्ट्र पति ने सन 1955 में उन्हें, उक्त कार्य हेतु, भारतरत्न की सर्वो'च उपाधि से विभूषित किया। भारत रत्न मिलने के कुछ वर्षों बाद 18 सितम्बर 1958 में लगभग 90 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया।
वास्तव में उस दिन हमने एक ऐसी हस्ति को खो दिया था, जिसके जाने से देश को एक अपूर्णनीय क्षति पहुंची, जिसकी कमी को कभी भी पूरा नहीं किया जा सकता था। आज भले ही डॉ. भगवान दास हमारे बीच में ना हो, ङ्क्षकतु वे भारतीय दर्शन, धर्म और शिक्षा क्षेत्र में उनके द्वारा किये गये, सराहनीय सहयोग से हमेशा लोगों के दिलों में जीवत रहेंगे।
अंकेश धीमान
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