Essay on elections 2019 in Hindi, Achar sanhita election 2019 in hindi, Hindi lekhs chunav 2019
विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक राज्य को देश की सत्ताधारी पक्ष या विपक्ष ने आये दिन ऐसा कुश्ती का अखाड़ा बना दिया है, कि दोनों की जद्दोजहद के चलते बेचारी जनता के मुद्दो पर ग्रहण सा लग चुका है। कहने को तो, हम आज भी आजाद भारत की जनता है, लेकिन कुछ तथाकथित नेताओं ने देश में ऐसा खरपतवार के बीज बो दिये है जिन पर समय रहते कीट नाशक का प्रयोग ना किया गया तो आने वाली नस्लों के अंर्र्त हृदय में देश भक्ति, देश प्रेम, राष्ट्रवाद के संस्कार रोपना एक टेढ़ी खीर साबित हो जायेगा। आज की राजनैतिक पार्टियों व पाश्चात्य सभ्यता के वर्चस्व ने, हमें पूर्ण: अपनी वैचारिक प्रवृति का गुलाम बना लिया है। जब भी देश में चुनाव की आचार संहिता लागू करने की घोषणा होती है, तो सभी दलों के अंदर एक अजीब सी उटक पटक सत्ता पर काबिज होने के लिए पैदा हो जाती है।
नेता, धर्म-कर्म अथवा राष्ट्र धर्म
इसी होड़ के लिए उक्त नेता न जाने कैसे-कैसे हथकंडे अपना कर, जनता को दिन में ही, कोई अमीर बनने का सपना दिखाता है, तो कोई रोजगार की लालसा देकर, बखूबी से वोटों को दोनो हाथों से बटोरना चाहते है। जो नेता गत योजना के दौरान नास्तिक थे, वो भी अचानक आस्तिक बनकर धर्म कर्म कर, मलिन हो चुकी राजनीति में ईश्वर को भी घसीटने से बाज नहीं आते। अपने आप को सदी का श्रेष्ठ भक्त घोषित कर, आगामी योजना हेतु सत्ता पर काबिज होना चाहते हैं। चुनाव से पूर्व नेताओं द्वारा, जनता के लिए एक ऐसा वातावरण तैयार किया जाता है, ताकि अधिक संख्या में वोट उक्त प्रत्याशी के पक्ष में आ जाये। जो व्यक्ति अपने कार्यकाल अथवा पांच वर्षों के दौरान गंगा जी के तट पर एक बार भी नहीं पहुंचा, वो भी गंगा घाट पर मस्का लगाने में मशगूल हो जाता है। ताकि गंगा के माध्यम से जनता की वोटों का, अमुक पार्टी दल के लिए धु्रवीकरण किया जा सके।
राष्ट्र सुरक्षा अथवा कुर्सी की होड़
यदि किसी भी सरकार के दौरान पक्ष द्वारा कोई भी योजना चलाई जाये, तो विपक्ष का दायित्व बनता की उसकी आलोचना अवश्य करें, ताकि उक्त योजना में भूल-सुधार जनता हित में किया जा सके, और जनता को किसी भी समस्या से रूबरू ना होना पड़े। लेकिन धर्म नीति के अनुसार जब बात राष्ट्र पर बन आये तो राष्ट्रीय सुरक्षा के मद्देनजर पक्ष-विपक्ष को एक सुर ताल में बोलना होगा। वास्तव में गत माह विपक्ष पक्ष के नेताओं द्वारा की गई बयान बाजी ने तो चुम्बकीय सिद्धांत को भी पूर्ण: लज्जित कर दिया।
अभी गत माह 14 फरवरी को पुलवामा में हुये आतंकवादी हमले ने समस्त देश को झक झौर कर रख दिया। यह एक ऐसा मौका था, जब संपूर्ण राष्ट्र, राष्ट्रीय सुरक्षा, अखंडता के लिए प्रतिबद्ध था। ओर हो भी क्यों ना? जब देश सुरक्षा का विषय बन जाये तो, हमारी जिम्मेवारी कई गुणा बढ़ जाती है। जिसका एक मात्र उद्देश्य राष्ट्रीयता की भावना को महत्व देना है। यदि जनता के प्रतिनिधि या देश के एक नेता (पक्ष या विपक्ष) की बात करे तो उसका तो दायित्व हमसे भी कई गुणा बढ़ जाता है। लेकिन हमारे लिए यह शर्मनाक विषय तब बन गया जब देश के ही कुछ नेताओं ने, चीन को बोलने का उचित अवसर प्रदान कर, अपने निकम्मे पन का संदेश दे दिया। ऐसे नेताओं ने साबित कर दिया कि वे कुर्सी की एवज में किसी भी हद तक गिर सकते है।
जिसका ज्वलंत उदाहरण अभी हाल ही में संयुक्त राष्ट्र में भारत द्वारा मसूद अजहर के विरुद्ध आतंकी घोषित करने की कवायद, जिसमें चीन ने मसूद अजहर पर वीटो लगा कर, उसे आतंकी सिद्ध होने से बचा लिया। जिसका श्रेय उसने पूर्ण: हमारे विपक्षी दल को दिया। जो देश सुरक्षा के लिए, संदेह व चर्चा का विषय बना रहा।
महापुरुष, जयचंद अथवा विभीषण
आजकल के कुछ तथाकथित नेताओं ने तो सैनिकों के शौर्य, बल, साहस का सम्मान न कर, यह साबित कर दिया की, यदि ऐसे जयचंद या विभीषण रूपी नेताओं के खिलाफ समय रहते चुनाव आयोग या किसी अन्य जवाब-तलब संस्था ने अतिशीघ्र कोई कठोर कदम नहीं, उठाया, तो देश के लिए भावी परिणाम चिंता जनक हो सकते हंै। देश की आंतरिक व बाह्य सुरक्षा के मद्देनजर, ऐसे नेताओं के लिए, आचार संहिता लागू होते ही, कुछ माप दंडों को निर्धारित करने होगे जिसके फलस्वरू एक स्वच्छ राजनीति पथ का आगाज किया जा सके। चुनाव आयोग को चाहिए कि प्रत्याशी द्वारा जारी घोषणा पत्र में जनता के लिए प्रलोभनों को बखूबी से निभाये जाये, यदि निभाया नहीं गया तो प्रत्याशी को भविष्य में चुनाव के लिए अयोग्य घोषित कर दिया जायेगा। नेताओं के लिए शिक्षा का मापदंड निर्धारित होने के साथ-साथ, नेताओं को आवेदन पत्र दाखिल करने से पूर्व शपथ पत्र पर वचन बद का प्रस्ताव देना होगा, कि, वह भविष्य में ऐसा कोई भी बयान नहीं देंगे जिससे देश की अखंडता या फिर राष्ट्रीय सुरक्षा को, किसी प्रकार की हानि पहुंचे। यदि भविष्य में उसके द्वारा ऐसा हुआ तो, उक्त नेता कभी भी कोई चुनाव लडऩे के लिए अयोग्य समझा जायेगा, और उसके विरुद्ध होने वाली दंडात्मक कार्यवाही उसे पूर्ण: स्वीकार होगी। तब ही ऐसे कलंकित नेताओं को कुछ हद तक सबक सिखाया जा सकता है।
नेता, वंश वाद अथवा विकासवाद
प्राय: देखा जाता है कि संस्कार विहीन व वंश वाद के मारे राज नैतिक नुमाइंदों ने देश की राजनीति को एक अपाहिज सा बना दिया हैं। वंश वाद के कारण बनने वाले विधायक या फिर सांसद को धरातल की वास्तविकता के साथ-साथ सामाजिक ज्ञान या शिक्षा का ज्ञान भी नहीं होता, जिसके चलते वो आये दिन बेतुका बयान दे देते है। जिससे या तो क्षेत्र में दंगे भडक़ उठते हैं या फिर हमें सुरक्षा के मद्देनजर अपूर्णिय हानि का सामना करना पड़ता है। ऐसे नेताओं के अधूरे ज्ञान के कारण ही वह जनता की मूलभूत आवश्यकताओं व उनकी समस्याओं के निराकरण में भी वह सक्षम नहीं होते। जनता को जो लाभ, विधायक निधि या फिर कहे कि सांसद निधि से मिलने चाहिए थे। वह आधे-अधूरे रह जाते हैं। जिस कारण संबंधित क्षेत्रिय विकास हमेशा बाधित रहता है। जनता की एक छोटी सी भूल ही उनके शोषण का कारण बन जाती है। वर्तमान के हालातों के देखते हुये, यदि देश की राजनीति का वंश वादी करण हो गया तो यह हमारे देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य होगा। जिस कारण हमें पुन: परतंत्र की जंजीरों में जकड़ लिया जायेगा। तत्पश्चात कोई भी गरीब, प्रताडि़त, उपेक्षित व्यक्ति देश के उच्च पद पर आसीन होने का विचार, ख्वाब में भी नहीं ला पायेगा। जो कि लोकतंत्र धर्म की सबसे बड़ी तौहीन सिद्ध हो सकती है।
पैट्रिक फे्रंच ने 2012 में अपनी किताब में लिखा था, यदि यही ढर्रा चलता रहा तो भारत की दशा उन दिनों जैसी हो जायेगी, जब यहां राजा महा राजाओं के शासन में हुआ करता था।
आज के कुछ नेताओं ने अपने अंध भक्तों के द्वारा राजनीति शब्द को दूसरे शब्दों में परिभाषित करने का मानो बीड़ा सा उठा लिया है। प्रत्येक सत्ता दल का मुखिया देश के सर्वोच्च पद पर आसीन होने की अधूरी चेष्टा रखता है।
नेताओं की ये कैसी सोच?
चुनाव आते ही ऐसे नेताओं द्वारा जनता में एक ऐसी लहर बनाने की नाकाम कोशिश हर बार की जाती है। जिसका संबंध एक आम आदमी की भावनाओं से जुड़ा हो। ताकी उक्त वातावरण से प्रभावित होकर समस्त मतदाता उन्हें अपना प्रतिनिधि स्वीकार कर ले ओर वेे अपने अधूरे ख्वाबी लक्ष्य को भेद सके। ऐसे नेताओं ने तो जनता को हिटलर के पंख विहीन मुर्गे के समान समझ लिया है, जहां तनिक सा प्रलोभन दिया, बस प्रदत्त व्यक्ति का जनता द्वारा गुणगान गाना आरंभ कर दिया। ऐसे ही कुछ नेताओं ने अंग्रेजो की कूटनीति फूट डालों राज करों, को अपने लक्ष्य बना लिया है। ताकि भोली-भाली जनता को अपना मोहरा बना कर, मौके का उचित फायदा उठाया जा सके और पुन: उन्हें अपनी उंगलियों पर नृत्य कराया जा सके। ऐसे नेताओं की मलिन नीति से खफा होकर ही, देश का एक बुद्धिजीवी व्यक्ति, वर्तमान राजनीति को दरकिनार करना चाहता है। इन्हीं कारणों के चलते वह अपने मतदान का प्रयोग नोटा विकल्प को ही चिह्नित करने में करता है। ताकि राजनीतिज्ञ के प्रति अपनी प्रतिशोध की ज्वाला को कुछ हद तक ठंडा कर सके। जिसकी वजह से उसका विश्वास लोकतंत्र के माह पर्व से टूट सा गया है। जो कि चुनाव आयोग के लिए एक शोचनीय विषय है।
जनता-जनार्दन से, अपील
हम उक्त विश्लेषण के माध्यम से देश की आम जनता को जागरूक करना चाहते हैं, कि मताधिकार आपका अपना मूलभूत अधिकार (1951) है, लोकतंत्र के इस माह पर्व में अपनी सहभागिता अवश्य दे, जो प्रत्याशी उन्हें, लगे, कि वह भविष्य में एक ऐसा प्रतिनिधि को चुनने जा रहे, जो देश को नई दिशा, आधुनिक सुरक्षा व्यवस्था, नई सोच, नई उमंग और राष्ट्र को बुलंदियों पर ले जाने का हौसला रखता है। साथ ही वह प्रत्याशी उनके क्षेत्र का विकास, जनता की समस्याओं का निवारण कर, देश का भविष्य उज्ज्वल बनाने में अपनी सहभागिता अच्छे तरीके से अदा करेगा।
लेखक
अंकेश धीमान
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