सम्राट हर्षवर्धन एवं उनका युग इतिहासकार विजय नाहर की प्रथम कृति है।इस ग्रंथ के अनुसार सम्राट हर्ष को शिलादित्य इसलिए कहा गया क्योंकि हर्ष शील का आदित्य है अर्थात शील यानी चरित्र में सूर्य के समान यानी एकोद्वितीय है ।इसी विचार से ग्रंथ का नामकरण किया गया है "शीलादित्य सम्राट हर्षवर्धन एवं उनका युग"। चीनी यात्री ह्वेनसांग आदि ने भी हर्ष को शीलादित्य कह कर ही संबोधित किया है। इसके पीछे क्या कारण है यह तो वही जाने परंतु इस ग्रंथ के अनुसार यह भारतीय इतिहास का एक बेजोड़ अप्रतिम एवं आदर्श सम्राट का उदाहरण समझ उसे प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है ।
१. पुस्तक का नाम :-शीलादित्य सम्राट हर्षवर्धन एवं उनका युग
२. लेखक :- विजय नाहर
३. प्रकाशक का नाम, प्रकाशन स्धल :- आविष्कार पब्लिशर्स, जयपुर
४. प्रकाशन वर्ष :-2013
५. आवृत्ति :-प्रथम
६. आई एस बी एन न० :-978-81-7910-422 -4
७. पुस्तक का मूल्य :-995 रु.
८. पुस्तक का विषय:- 467 ई. से 810 ई. तक के उत्तर भारत के राजवंशों एवं सम्राटों का एवं सम्राट हर्षवर्द्धन का इतिहास
9. सारांश:
सम्राट हर्षवर्धन एवं उनका युग इतिहासकार विजय नाहर की प्रथम कृति है।इस ग्रंथ के अनुसार सम्राट हर्ष को शिलादित्य इसलिए कहा गया क्योंकि हर्ष शील का आदित्य है अर्थात शील यानी चरित्र में सूर्य के समान यानी एकोद्वितीय है ।इसी विचार से ग्रंथ का नामकरण किया गया है "शीलादित्य सम्राट हर्षवर्धन एवं उनका युग"। चीनी यात्री ह्वेनसांग आदि ने भी हर्ष को शीलादित्य कह कर ही संबोधित किया है। इसके पीछे क्या कारण है यह तो वही जाने परंतु इस ग्रंथ के अनुसार यह भारतीय इतिहास का एक बेजोड़ अप्रतिम एवं आदर्श सम्राट का उदाहरण समझ उसे प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है ।
शीलादित्य सम्राट हर्षवर्धन ग्रंथ की संपूर्ण विषय वस्तु को 24 अध्याय में बांटा गया है। इस ग्रंथ का केंद्रीय विषय सम्राट हर्ष है। सम्राट हर्ष के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से संबंधित सभी पहलुओं को जहां उजागर करने का प्रयत्न किया है वही इस काल में समाज में आए सामाजिक आर्थिक शैक्षणिक धार्मिक राजनीतिक परिवर्तनों की भी खोजपूर्ण सामग्री देने का प्रयास किया गया है। सम्राट हर्ष न केवल एक महान विजेता ही था अपितु सफल प्रशासक तथा साहित्यकार भी था। हर्ष स्वयं राज के उच्च आदर्शों का पालन करता था ।
हर्ष का स्वप्न भारत में सतयुग स्थापित करने का था जिसमें उसे काफी हद तक सफलता भी प्राप्त हुई। 16 वर्ष की उम्र में हर्ष के कंधों पर थानेश्वर के राज्य का भार आ गया था बड़ी विचित्र परिस्थितियां और विकट परिस्थितियां थी। माता पिता का देहांत हो चुका था, बड़ा भाई षड्यंत्र में मारा गया बहन विधवा हो गई और विंध्याचल में सती होने के लिए चली गई। ऐसी परिस्थिति में बिना देरी किये हर्ष ने सेना लेकर सर्वप्रथम अपनी बहन को बचाया , फिर अपने भाई के हत्यारे गॉड के राजा शशांक को पराजित किया।
चीनी यात्री ह्वेनसांग के अनुसार कन्नौज सहित पंच भारत अर्थात सरस्वत यानी पंजाब कान्यकुब्ज गॉड मिथिला एवं उत्कल यानी उड़ीसा पर अधिकार कर लिया था ।सिंध प्रदेश यानी पश्चिमी राजस्थान ,मालवा , पंजाब कश्मीर , गांधार एवं लॉर्ड प्रदेश आदि क्षेत्रों पर विजय प्राप्त कर ली थी ।इस प्रकार हर्ष का साम्राज्य उत्तर भारत में स्थापित हो चुका था ।
सम्राट हर्ष समुद्रगुप्त के समान तेजस्वी, वीर, पराक्रमी एवं महान विजेता था ।आसाम के भास्कर वर्मन ने उस की शरण में आकर संधि कर ली, उड़ीसा को विजय कर चुका था । ऐहोल अभिलेख के अनुसार परिस्थितियां बताती है कि भीषण संघर्ष के परिणाम स्वरुप दक्षिण के सम्राट पुलकेशिन द्वितीय के साथ संधि हो गई और नर्मदा नदी दोनों की सीमा रेखा बन गई। पश्चिम में सिंध वल्लभी एवं मालवा में विजय प्राप्त की ।
वल्लभी के पराक्रमी राजा ध्रुव भट्ट को युद्ध मे पराजित करने के बाद भी उसने अपनी लड़की का विवाह उससे कर स्थाई मित्रता स्थापित की और पश्चिम की संपूर्ण सुरक्षा का दायित्व उसके मजबूत कंधों पर डाला । उसने गॉड के राजा शशांक जिससे वह बदला लेना चाहता था लेकिन उस को पराजित कर उसकी वीरता का सम्मान करते हुए उससे संधि कर ली और उत्तर की सीमा का दायित्व उसे दे दिया। इस प्रकार सफल कूटनीतिज्ञ सम्राट हर्ष ने संपूर्ण उत्तर भारत को सुरक्षित कर संगठित शक्ति खड़ी की।
चीन ईरान जैसे पड़ोसी राष्ट्रों के साथ कूटनीतिक संबंध स्थापित कर देश की सीमाओं की सुरक्षा का पक्का प्रबंध कर दिया। इस ग्रंथ के अनुसार सम्राट हर्ष एक सफल प्रशासक एवं कुशल प्रबंधक था ।इतना ही नहीं हर्ष कला एवं साहित्य प्रेमी भी था। उसने संस्कृत के उत्कृष्ट तीन ग्रंथ की रचनाएं भी की ।महान कवि बाणभट्ट उसका मित्र एवं उसके राज दरबार की शोभा था । सम्राट हर्ष एक धार्मिक सहिष्णु शासक था ।कतिपय इतिहासकार उसे सम्राट अशोक की तरह बौद्ध धर्म का अनुयायी घोषित करते हैं परंतु यह सत्य नहीं ।वह सभी धर्मों का समान आदर करता था ।चीनी यात्री ह्वेनसांग को चीन जाने से पूर्व अपनी राजधानी में आमंत्रित किया ।उसकी अध्यक्षता में विद्वानों की संगोष्ठी बुलवाई और भारतीय संस्कृति धर्म एवं सभ्यता का अच्छा एवं अनुकूल प्रभाव उसके मन मस्तिक में पड़े, ऐसा प्रयत्न किया । सम्मेलन के पश्चात हर्ष ने आग्रह पूर्वक उसे कुछ दिन और भारत में रुकने के लिए आग्रह किया एवं अपने प्रयाग के कुंभ मेले के अवसर पर उसे सम्मानित किया।
ह्वेनसांग ने देखा कि कुंभ मेले के अवसर पर सम्राट हर्ष ने अपना संपूर्ण धन वैभव दान किया। यहां तक की अपने शरीर पर पहने हुए गहने और वस्त्र भी दान कर दिए और पुराने वस्त्र अपनी बहन से मांग कर पहने। ऐसा त्यागी राजा संसार के इतिहास में उदाहरण रूप में भी नहीं मिलता ।सम्राट हर्ष की यह मान्यता थी कि लक्ष्मी का फल दान देने तथा दूसरों के यश की रक्षा करने में है।
मनुष्य को मन वाणी तथा कर्म से प्राणियों का हित करना चाहिए। पुण्यार्जन का यह उत्तम उपाय है। सम्राट हर्ष को इस बात का हर्ष था कि उसकी प्रजा हर प्रकार से संतुष्ट है ।उसकी प्रजा का जीवन सुखी तथा सुविधा पूर्ण है ।अपनी नागानंद रचना में आगे कहता है समस्त प्रजा सन्मार्ग पर चल रही है। सज्जन अनुकूल मार्ग का अनुसरण करते हैं । भाई बंधु मेरी तरह ही सुख भोग रहे हैं। राज्य की सब प्रकार से सुरक्षा निश्चित हो चुकी है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं को अपनी इच्छा अनुसार संपादित कर रहा है।
10. निष्कर्ष :-
सम्राट हर्ष का जीवन व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए नहीं था बल्कि राष्ट्रहित के लिए पूर्ण समर्पित था। समुद्रगुप्त की वीरता, पराक्रम एवं कूटनीतिज्ञता के साथ ही सम्राट अशोक की भांति कुशल शासक एवं शासन प्रबंधक के गुणों से ओतप्रोत थे।
606 ईसवी से 647 ईसवी तक और 647 से 694 ईसवी तक का बड़े पुष्ट प्रमाणों के साथ लेखक एवं इतिहासकार विजय नाहर ने बड़ी ही प्रामाणिकता के साथ इतिहास को संजोया है । एक संगठित एवं शक्तिशाली उत्तर भारत का चित्र प्रस्तुत किया है । यह भारतीय इतिहास की पहली पुस्तक है जिसमें सम्राट हर्ष को इतनी विस्तृत सामग्री एवं प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत किया गया है। अधिकांशत पुस्तकों में एक अध्याय में ही सम्राट हर्ष सीमित हो जाते हैं।
11. सुझाव:-
लेखक विजय नाहर की भारतीय इतिहास पर अनेकों पुस्तकें प्रकाशित हुई। जो विदेशी इतिहासकारों से भिन्न भारत के मौलिक इतिहास को जागृत , प्रदर्शित करने में एक मील का पत्थर है ।इसी कड़ी में शीलादित्य सम्राट हर्षवर्धन के चरित्र को और उस काल खंड की घटनाओं को बड़े ही रोचकता के साथ और विस्तृता के साथ चित्रित किया गया है ।अनेकों ऐसे प्रमाण दिए गए हैं जिससे यह प्रदर्शित होता है कि आज पाठ्यक्रमों में पढ़ाये जाने वाला इतिहास भारतीय युवा पीढ़ी को किस तरीके से गलत भारत दिखा रहा है। जो विद्यार्थी एवं इतिहासकार असली भारत पर शोध कर रहे हैं उनके लिए यह पुस्तक बहुत ही उपयोगी साबित होगी।
12. इसी कड़ी में लेखक की अन्य पुस्तकें:-
सम्राट यशोवर्मन, सम्राट मिहिर भोज, सम्राट भोज परमार, प्रारंभिक इस्लामिक आक्रमणों का भारतीय प्रतिरोध
13. लेखक परिचय:-https://en.m.wikipedia. org/wiki/Vijay_Nahar
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