chanakya-neeti-kavyanuwad-chapter 12, भूखे मन को ,ब्राह्मण जन को श्रद्धा पूर्वक , थोड़ा सा भी दान है देता जो नर जग में ।
चाणक्य नीति ~ अध्याय ~ 12 ~ काव्यानुवाद
रचनाकार -इन्जीनियर पशुपति नाथ प्रसाद
सदा आनंद रहे उस घर में ,
पुत्र जहां सुविचारी हो ।
इच्छित धन अतिथि सेवा ,
पति रत पत्नी नारी हो ।
आज्ञा पालक सेवक नौकर ,
प्रतिदिन शिव का पूजन हो ।
मीठा भोजन मीठा जल हो ,
मित्र मंडली सज्जन हो ।
भूखे मन को ,ब्राह्मण जन को श्रद्धा पूर्वक ,
थोड़ा सा भी दान है देता जो नर जग में ।
थोड़ा कई गुना होकर उस को मिलता है ,
प्रभु कृपा से श्रद्धा ही जग में फलता है ।
स्वजन संग उधार बने जो ,
दया दिखाए जो परिजन संग ।
साधु जन संग प्रेम रखे जो ,
करे दुष्टता शठ दुर्जन संग ।
अभिमानी हो खल के संग में ,
विद्वानों संग विनयशीलता ।
शौर्य दिखाए शत्रु जन संग ,
गुरुओं के संग सहनशीलता।
कभी नहीं विश्वास करे
जो नारी के संग ।
ऐसा नर की मर्यादा नहीं
होती है भंग ।
दान दिया नहीं जिन हाथों ने ,
वेद शास्त्र का किया न श्रवण ।
साधु दर्शन किया नहीं जो ,
किया नहीं जो तीरथ भ्रमण ।
पाप के धन से पेट भरा वो ,
रहा घमंड में चूर सदा जो ।
ऐसा नीच जब मृत्यु पाए ,
गीदड़ भी नहीं इसको खाए ।
कृष्ण चरण में भक्ति नहीं है जिस पामर को ,
राधा यदुबाला गुणगान में रस नहीं जिनको ।
कृष्ण लीला की कथा नहीं है जिनको भांती ,
मृदंग भी धिक् ताल बोल धिक्कारे उनको।
वृक्ष करील में पत्र नहीं बसंत करे क्या ।
सूरज का क्या दोष न देखे उल्लू दिन में ।
वर्षा का क्या दोष अगर बूंद पिए न चातक ,
विधि का लिखा ललाट मिटाए कौन कुदिन में ।
अच्छी संगत से दुर्जन भी बनता सज्जन ,
पर खल संगत से साधु न बनता दुर्जन ।
नहीं गंध मिट्टी से फूल बने दुर्गंधी ,
किंतु फूल का गंध मिट्टी करे सुगंधी ।
साधु दर्शन धर्म पुण्य है ,
साधु संगत तीर्थ सामान ।
तीर्थ फलता अंत समय में ,
साधु संगत शीघ्र महान् ।
एक पथिक एक नगरवासी से प्रश्न किया यह ,
कौन बड़ा है इस नगर में मुझसे तू कह ।
वृक्ष ताड़ का बड़ा कहाए इस नगर में ,
कौन बड़ा है दानी बोलो इस शहर में ।
सबसे बड़ा है दाता धोबी इस शहर में ,
सुबह वस्त्र लेकर दे देता दोपहर में ।
कौन चतुर है यहां पर तेरे कहने में ,
सभी चतुर हैं पर धन पर त्रिया हरने में ।
ऐसा उत्तर सुनकर राही फिर तब बोला,
कैसे जीते हो यहां पर हे! तू भोला ।
विष में विष कीड़ा रहता है जीवित जैसे ,
इस कुदेश कुग्राम में हम भी जीवित वैसे ।
वेद शास्त्र का ध्वनि न गुंजित ,
विप्र ना धोए पैर जहां पर ।
होम ,स्वाहा ,यज्ञ जहां पर वर्जित ,
श्मशान सा ही उनका घर ।
सत्य है माता , धर्म है भ्राता ,
पुत्र क्षमा है ,पिता है ज्ञान।
पत्नी शांति , मित्र दया है
यही 6 बंधु तू मान ।
नहीं ठिकाना है इस तन का ,
वैभव सदा नहीं है रहता ।
मृत्यु सदा निकट है रहती ,
अमर धर्म का संग्रह कर्ता ।
निमंत्रण उत्सव है लाता ब्राह्मण जन में ,
हरी घास गायों के हेतु उत्सव लाए ।
परदेसी पति का आना नारी का उत्सव है ,
संत जनों में कृष्ण चरण का उत्सव छाए ।
पर त्रिया माता जो माने ,
पर धन मिट्टी सा जो जाने ।
अपना सा सब लगता प्राणी ,
जगत इन्हीं को पंडित माने ।
तत्परता हो धर्म में जिनकी ,
मुख में रहती मधुमय बाणी ।
उत्साहित हो दान कर्म में ,
शस्त्रों में हो चक्रपाणि ।
निश्चल व्यवहार मित्र संग में ,
गुरु के संग में रखे नम्रता ।
अंतः करण में गंभीरता हो ,
आचार में हो शुद्ध पवित्रता ।
गुरु के प्रति रखे रसिकता ,
सुंदरता हो जिनके रूप में ।
स्वच्छ भावना मन के अंदर ,
भक्ति भाव हो शिव स्वरूप में ।
ऐसा गुणी कहे पुराण ,
और न कोई रघुवर राम ।
हे राघव! हे रघुपति!आप ,
ना कोई उपमा तेरे साथ ।
अचल सुमेरु , पर है पर्वत ,
कल्पवृक्ष है लकड़ी काठ ।
चिंतामणि है पत्थर पाहन ,
सूरज में है अग्नि अनल ।
चारु चंद्र भी घटत बढ़त हैं ,
सागर का है खारा जल ।
दानी बलि हैं दैत्य कुल से ,
बिना अंग के रहते काम ।
कामधेनु भी पशु कहाए ,
किससे तौलें तुझको राम ।
विनय सीखना राजपुत्र से ,
पंडित से लो अच्छी बोली ।
मिथ्या झूठ जुआरी से लो ,
त्रिया से लो छल की गोली ।
बिना सोचे धन का व्यय कर्ता ,
कलह है करता बिना सहायक ।
सब वय त्रिया हेतु कामुक ,
नष्ट हो निश्चय ये नालायक ।
नहीं चाहिए चिंता करना ,
ज्ञानी को कभी भोजन की ।
ज्ञान धर्म में समय बिताएं ,
जन्मजात जन्मे ये जन की ।
भरता घड़ा बूंद गिरते क्रम से ,
हेतु यही धन विद्या धर्म के ।
शठता का स्वभाव नहीं जाता है शठ से ,
आयु ढल जाने पर भी शठ रहता है खल ।
न कटुता को छोड़ कभी है मीठा होता ,
पका हुआ हो या कच्चा हो इंद्रायण फल ।
+++ समाप्त +++
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