गुरु की संगति से नहीं विद्या है पाया जो , पुस्तक पढ़कर स्वयं ही विद्या पाया है सो । नहीं समाज में आदर पाता है वह वैसे , व्यभिचारी नारी शोभा पाती है
चाणक्य नीति ~ अध्याय ~ 17 ~ काव्यानुवाद
रचनाकार -इन्जीनियर पशुपति नाथ प्रसाद
गुरु की संगति से नहीं विद्या है पाया जो ,
पुस्तक पढ़कर स्वयं ही विद्या पाया है सो ।
नहीं समाज में आदर पाता है वह वैसे ,
व्यभिचारी नारी शोभा पाती है जैसे ।
उपकार , उपकारी के संग ,
पाप न हिंसा , हिंसक के संग ।
करें दुष्टता दुर्जन के संग ,
शांत है करता जंग को जंग ।
बहुत दूर पर स्थित है वस्तु जो ,
नहीं आराधना से जिसको पा सकता है जन ।
तप के बल से वह वस्तु पा सकता है नर ,
सबसे सबल सर्वश्रेष्ठ है तप बल का धन ।
सब दोषों से लोभ बड़ा है ,
लोभ ले आए सब दोषों को ।
पाप न कोई चुगली जैसा,
चुगलखोर करे पापों को ।
नहीं तपस्या सत्य का जैसा ,
शुद्ध मन है तीर्थ ऐसा ।
गुणों में उत्तम सज्जनता ,
अवगुण में दुर्जन दुर्जनता ।
यश कृति सा नहीं आभूषण ,
विद्या सा नहीं कोई धन ।
अपयश मृत्यु सा है उनको ,
जो है मानित सम्मानित जन ।
रत्नाकर है पिता शंख का ,
लक्ष्मी सगी बहन है जिसकी ।
साधु संग है भीख मांगता ,
अद्भुत बातें देखो उसकी ।
बिना दान नहीं धन कोई पाए ,
भले शंख सा कुल मिल जाए ।
अपना कर्म का फल नर पाए ,
कर्म के जैसा धन है आए ।
निर्बल जन साधु बनता है ,
निर्धन बनता है ब्रह्मचारी ।
दुखी देव भक्त बनता है ,
पतिव्रता हो बूढी नारी ।
दान न दूजा अन्न व जल सा ,
द्वादशी सा नहीं तिथि उत्तम ।
गायत्री सा मंत्र न दूजा ,
मां से देव नहीं सर्वोत्तम ।
विष सांप के दांत में रहता ,
मक्खी के रहता यह सिर में ।
बिच्छू पुंछ में रहता है यह ,
दुर्जन के सारे शरीर में ।
व्रत और उपवास करे बिन आज्ञा पति की ,
कुल का बने कलंक कुटिल और कुविचारी ।
घोर नर्क को पाती कुलटा स्वयं सदा यह ,
स्वामी की आयु भी हरती ऐसी नारी ।
पीने पर व पांव धोने पर बचता जो जल ,
संध्या करने पर जो जल शेष रह जाए ।
श्वान मूत्र सा होता ये जल इसे न पींए ।
पीने पर चंद्रायण व्रत हीं शुद्धि लाए ।
न दान ,न उपवास व तीर्थाटन ,
शुद्ध बनाए कुलटा नारी ।
पति के चरणोदक से शुद्धि ,
पति से प्रेम , पति को प्यारी ।
दान से पाणि , न कंगन से ,
मान से तृप्ति , न भोजन से ।
ज्ञान से मुक्ति , न मुंडन से ,
स्नान से शुद्धि , न चंदन से ।
हजामत नाई के घर जा जो बनवाए ,
पत्थर पर चंदन घिसकर जो टीका लगाए ।
पानी में अपने मुख का प्रतिबिंब जो देखे ,
इंद्र श्री भी इन कर्मो से फींका हो जाए ।
कुंदरु का सेवन शीघ्र है हरता बुद्धि ,
वच का सेवन झटपट बुद्धि को है लाता ।
तन की शक्ति शीघ्र है हरता नारी का तन ,
दूध सेवन से बल तन में है जल्दी आता ।
जागृति जिनके हो हृदय में ,
सदा भावना परोपकार की ।
पग पग पर प्राप्त संपत्ति हो ,
विपत्ति सब नष्ट होती उनकी ।
धन और सुलक्षणा त्रिया जिस घर में हो ,
पुत्र विनयी हो , गुण युक्त हो ,चरित्रवान भी ।
पुत्र के पुत्र सुपुत्र विराजे जिस घर में ,
उसके आगे व्यर्थ स्वर्ग का अतुल मान भी ।
भोजन , निद्रा , भय व मैथुन ,
पशु मनुज में एक समान ।
ज्ञान दोनों में करता अंतर ,
ज्ञानहीन जन पशु समान ।
मद से अंधा गजराज के बहते मद को ,
भंवरा पीने हेतु जब मस्तक पर आए ।
कानों की चोटों से तब वह मार मार के ,
भंवरों को अपने मस्तक से दूर भगाए ।
इससे भंवरों को नहीं होती कोई हानि ,
मद का रस नहीं पी , कमल पर बैठे जाकर।
पद्म रस का पान करे और छटा बढ़ाए ,
मूर्ख हाथी बिन भंवरों के श्री नहीं पाए ।
इस तरह जब मूर्ख राजा गुनी जनों को ,
करता है अनादर तब श्री हीन हो जाए ।
आदर पाने हेतु गुणी को बहुत जगह है ,
केवल गुणी ही नृप को श्री युक्त बनाए ।
राजा , वेश्या , यमराज , अग्नि ,
चोर , बालक और भिखारी ।
ग्राम-वंचक ये आठो जन ,
समझ ना पाए पर दुख भारी ।
एक वृद्धा की झुकी कमर पर
व्यंग किया एक तरुण आवारा ।
नीचे को क्या देख रही हो ,
क्या खोया है बोल तुम्हारा ।
चतुर वृद्धा ने कहा रे ! मूरख ,
सुनो क्या मालूम होगा तुझको ।
यौवन का मोती खोया है ,
उसको ढूंढ क्या देगा मुझको ।
सभी दोषों को नाश है करता ,
एक ही गुण गर है सर्वोत्तम ।
केतकि पुष्प में दोष अनेको ,
मात्र गुण के कारण उत्तम ।
सांप का घर है ,फल रहित है ,
टेढी , पंकज ,कांटेदार है ।
नहीं आसानी से मिलती पर ,
गंध के कारण सबको प्यार है ।
धन-संपत्ति , प्रभुत्व , जवानी ,विवेकहीनता ,
इन चारों में से हरेक दारुण अनर्थ है ।
अतुल नाश के लिए बहुत है एक अकेला ,
चारो मिलकर महानाश हेतु समर्थ है ।
+++ समाप्त +++
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