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पहले दिन से ही महाभारत का युद्ध बड़े ही भयंकर रूप से प्रारम्भ हुआ। आठवें दिन का युद्ध भी घनघोर था। इस दिन अर्जुन की दूसरी पत्नी उलूपी से उत्पन्न पुत्र महारथी इरावान मारा गया।
उसकी मृत्यु से अर्जुन बहुत क्षुब्ध हो उठे। उन्होंने कौरवों की अपार सेना नष्ट कर दी। आज का भीषण युद्ध देखकर दुर्योधन कर्ण के पास गया। कर्ण ने उसे सांत्वना दी कि भीष्म का अंत होने पर वह अपने दिव्यस्त्रों से पाण्डवों का अंत कर देगा।
दुर्योधन भीष्म पितामह के भी पास गया और बोला- "पितामह, लगता है आप जी लगाकर नहीं लड़ रहे। यदि आप भीतर-ही-भीतर पांडवों का समर्थन कर रहे हों तो आज्ञा दीजिए मैं कर्ण को सेनापति बना दूँ।" भीष्म पितामह ने दुर्योधन से कहा- "योद्धा अंत तक युद्ध करता है। कर्ण की वीरता तुम विराट नगर में देख चुके हो। कल के युद्ध में मैं कुछ कसर न छोडूँगा।"
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नौवें दिन के युद्ध में भीष्म के बाणों से अर्जुन भी घायल हो गए। श्रीकृष्ण के अंग भी जर्जर हो गए। श्रीकृष्ण अपनी प्रतिज्ञा भूलकर रथ का एक चक्र उठाकर भीष्म को मारने के लिए दौड़े। अर्जुन भी रथ से कूदे और कृष्ण के पैरों से लिपट पड़े। संध्या हुई और युद्ध बंद हुआ।
रात्रि के समय युधिष्ठिर ने कृष्ण से मंत्रणा की। कृष्ण ने कहा कि- "क्यों न हम भीष्म से ही उन पर विजय प्राप्त करने का उपाय पूछें।" श्रीकृष्ण और पांडव भीष्म के पास पहुँचे। भीष्म ने कहा कि- "जब तक मैं जीवित हूँ, तब तक कौरव पक्ष अजेय है।
भीष्म पितामह ने अपनी मृत्यु का रहस्य बता दिया। द्रुपद का बेटा शिखंडी पूर्वजन्म का स्त्री है। मेरे वध के लिए उसने शिव की तपस्या की थी। द्रुपद के घर वह कन्या के रूप में पैदा हुआ, लेकिन दानव के वर से फिर पुरुष बन गया। यदि उसे सामने करके अर्जुन मुझ पर तीर बरसाएगा, तो मैं अस्त्र नहीं चलाऊँगा।"
दसवें दिन के युद्ध में शिखंडी पांडवों की ओर से भीष्म पितामह के सामने आकर डट गया, जिसे देखते ही भीष्म ने अस्त्र परित्याग कर दिया। श्रीकृष्ण के कहने पर शिखंडी की आड़ लेकर अर्जुन ने अपने बाणों से भीष्म को जर्जर कर दिया तथा वे रथ से नीचे गिर पड़े, पर पृथ्वी पर नहीं, तीरों की शय्या पर पड़े रहे।
भीष्म के गिरते ही दोनों पक्षों में हाहाकार मच गया। कौरवों तथा पांडव दोनों शोक मनाने लगे। भीष्म ने कहा- "मेरा सिर लटक रहा है, इसका उपाय करो।" दुर्योधन एक तकिया लाया, पर अर्जुन ने तीन बाण भीष्म के सिर के नीचे इस प्रकार मारे कि वे सिर का आधार बन गए।
फिर भीष्म ने कहा- "प्यास लगी है।" दुर्योधन ने सोने के पात्र में जल मँगाया, पर भीष्म ने अर्जुन की तरफ़ फिर देखा। अर्जुन ने एक बाण पृथ्वी पर मारा, जिससे स्वच्छ जल-धारा फूटकर भीष्म के मुहँ पर गिरने लगी। पानी पीकर भीष्म ने कौरव-पांडवों को जाने की आज्ञा दी और कहा- "सूर्य के उत्तरायण होने पर मैं प्राण त्याग करूँगा।"
भीष्म के शरशय्या पर गिरने का समाचार सुनकर कर्ण अपनी शत्रुता भूलकर भीष्म से मिलने गया। उसने पितामह को प्रणाम किया। भीष्म ने कर्ण को आशीर्वाद दिया और समझाया कि यदि तुम चाहो तो युद्ध रुक सकता है। दुर्योधन समझता है कि तुम्हारी सहायता से वह विजयी होगा, पर अर्जुन को जीतना संभव नहीं। तुम दुर्योधन को समझाओ। तुम पांडवों के भाई तथा कुंती के पुत्र हो। तुम दोनों पक्षों में शांति स्थापित करो। कर्ण ने कहा- "पितामह अब संघर्ष दूर तक पहुँच गया है। मैं तो अब सूत अधिरथ का ही पुत्र हूँ, जिसने मेरा पालन-पोषण किया है।" यह कहकर कर्ण अपने शिविर में लौट आया।
भीष्म के बाण-शय्या पर गिर जाने के बाद जब दुर्योधन शोक से व्याकुल हो उठा, तब आचार्य द्रोणाचार्य ने सेनापतित्व का भार ग्रहण किया। उधर हर्ष मनाती हुई पाण्डवों की सेना में धृष्टद्युम्न सेनापति हुए। उन दोनों में बड़ा भयंकर युद्ध हुआ, जो यमलोक की आबादी को बढ़ाने वाला था।
तेरहवे दिन के युद्ध में कौरव सेना के प्रधान सेनापति गुरु द्रोणाचार्य द्वारा युधिष्ठिर को बंदी बनाने के लिए चक्रव्यूह की रचना की गई। पाण्डव पक्ष में केवल श्रीकृष्ण और अर्जुन ही चक्रव्यूह भेदन जानते थे। लेकिन उस दिन उन्हें त्रिगत नरेश बंधु युद्ध करते-करते चक्रव्यूह स्थल से बहुत दूर ले गए।
त्रिगत दुर्योधन के शासनाधीन एक राज्य था। अर्जुन पुत्र अभिमन्यु को चक्रव्यूह में केवल प्रवेश करना आता था, उससे निकलना वह नहीं जानता था। चक्रव्यूह भेदन अभिमन्यु ने तब सुना था, जब वह अपनी माता के गर्भ में था और उसके पिता अर्जुन उसकी माता को यह विधि समझा रहे थे, किन्तु माता के सो जाने के कारण वह चक्रव्यूह से निकलना नहीं जान पाया।
अभिमन्यु ने जैसे ही चक्रव्यूह में प्रवेश किया, सिन्धु नरेश जयद्रथ ने प्रवेश मार्ग रोक लिया और अन्य पाण्डवों को भीतर प्रवेश नहीं करने दिया। अब शत्रुचक्र में अभिमन्यु अकेला पड़ गया। अकेला होने पर भी वह वीरता से लड़ा और उसने अकेले ही कौरव सेना के बड़े-बड़े योद्धाओं को परास्त किया, जिनमें स्वयं कर्ण, द्रोण और दुर्योधन भी थे।
कर्ण और दुर्योधन ने गुरु द्रोण के निर्देशानुसार अभिमन्यु का वध करने का निर्णय लिया। उन सभी ने युद्ध के सारे नियमों को भुलाकर अभिमन्यु पर एक साथ आक्रमण करना प्रारम्भ कर दिया। कर्ण ने बाण चलाकर अभिमन्यु का धनुष और रथ का एक पहिया तोड़ दिया, जिससे वह भूमि पर गिर पड़ा और अन्य कौरवों ने उस पर आक्रमण कर दिया।
सभी ने घेरकर अभिमन्यु को मौत की नींद सुला दिया। युद्ध समाप्ति पर जब अर्जुन को ये पता लगता है कि अभिमन्यु के मारे जाने में जयद्रथ का सबसे बड़ा हाथ है, तब उसने यह प्रतिज्ञा की कि "अगले दिन का सूर्यास्त होने से पूर्व वह जयद्रथ का वध कर देगा अन्यथा अग्नि समाधि ले लेगा।"
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