PIRU SINGH PARVEER CHAKAR PARAMVEER CHAKAR VIJETA PIRU SINGH मेजर पीरू सिंह मेजर पीरू सिंह-परम वीर चक्र विजेता
पूरा नाम- पीरू सिंह शेखावत
जन्म - 20 मई 1918
स्थान- बेरी, झूंझनू (राजस्थान)
पिता- श्री लाल सिंह
शहादत- 18 जुलाई 1948 (उम्र 30)
टिथवाल, जम्मू और कश्मीर में शहीद
सेवा- भारतीय थल सेना, ब्रिटिश भारतीय सेना
उपाधि कम्पनी हवलदार
सेवा संख्यांक 2831592
यूनिट- राजपुताना राईफल्स की छठी बटालियन
युद्ध/झड़पें - भारत-पाकिस्तान युद्ध 1947
सम्मान मरनोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित
नागरिकता भारतीय
व्यक्तित्व परिचय- देश पर कुर्बान हो चुके या उस विजय पथ पर अपने कदमों को बढ़ाने वाले सैनिकों का जितना सम्मान किया जाये उतना, ही कम है। क्योंकि यदि सैनिकों का सम्मान या वंदन कर लिया जाये तो वह भी किसी तीर्थ स्नान करने से कम नहीं हो सकता वाकये सैनिकों के हौसले, कर्तव्य निष्ठा, वचन बदता, सदैव देश पर न्यौछावर होने का जज्बा काबिल ए तारीफ है। सैनिकों के सम्मान में जितने भी कसीदे पढ़े जाये वो भी कम है। वो रात को जागते हैं। तब ही हम अपने घरों में चैन से सो पाते हैं। यदि सैनिक सजगता के साथ अपने कार्य को अंजाम ना दे तो, हमारा बेफिक्र तरीके से रह पाना संभव नहीं होगा। आज हम ऐसे ही वीर योद्धा की जीवन गाथा पर चर्चा करने जा रहे जिनका जन्म आज ही के दिन हुआ। लेखक द्वारा लिखा गया यह लेख उनके जन्मदिन के उपलक्ष्य में शायद एक छोटा सा उपहार सिद्ध हो, ताकि लोग उनके विषय में जान, अच्छे संस्कारों या फिर कहें कि वीर योद्धा की शौर्य गाथा को अपनी भावी पीढिय़ों को स्थानांतरित कर सके। लेखक, एक वीर सैनिक के, अंत हृदय में उमडऩे वाले भावों के सैलाब को, कुछ इस प्रकार, शब्दों के माध्यम से बयान करना चाहता है-
मां भारती, आंचल, तेरी, जन्नत छाँव में।कह दो उन, अहसान फरामोश गद्दारों से।
एक दिन तो कयामत, मुकर्रर जरूर होगी।।
जवानी के जोश में, गर्म लहू है, अभी मेरा।
फर्क नहीं पड़ता, मेरी इबादत-ए-वतन पर।
शहादत मिले मुझे, तो भी जन्नत नसीब होगी।।
सैन्य व्यक्तित्व, प्रारंभिक जीवन-
पीरू सिंह का जन्म 20 मई 1918 को राजस्थान के बेरी गांव जिला झुंझुनू में हुआ। उनके पिता जी का नाम लाल सिंह था। श्री पीरू सिंह जी अपने माता-पिता की सबसे छोटी संतान थी। बचपन से ही पीरू सिंह को बंदिशें बिल्कुल पसंद नहीं थी वे शायद खुले वातावरण में रहने के आदि से हो गये थे। इसलिए वे स्कूली पढ़ाई से कतराने लगे। एक बार, शरारत करने पर अध्यापक द्वारा उन्हें दंडित किया गया। जिस कारण उन्होंने अपना स्कूल भी छोड़ दिया। वे लग्न से अपने पिता जी के साथ कृषि कार्यों में हाथ बटाने लगे। कृषि कार्यों के अतिरिक्त, उनकी रुचि साहसिक प्रवृत्ति होने के कारण, खेलों में भी बढऩे लगी। अपने इसी गुण के कारण वे शिकार करने के अधिक शौकीन हो गये थे। वे कई बार इस शौक के कारण चोटिल भी हो चुके थे। शिकारी स्वभाव के कारण उनकी इच्छा सेना में जाने की प्रति पल बनी रहती थी। उन्होंने सेना में भर्ती होने की कोशिशें दो बार की। किंतु नाबालिग होने के कारण उन्हें मात्र विफलता ही हाथ लगी।
व्यक्तित्व का सैन्य जीवन-
अपने इसी उत्साह और लग्न से उन्होंने पुन: सेना भर्ती की कोशिश की। सन 1936 में वे सेना में, भर्ती हो गये। सैन्य प्रशिक्षण के लिए उन्हें पंजाब भेजा गया। प्रशिक्षण के उपरांत उन्हें 1 मई, 1937 को, सेना में नियुक्ति प्रदान कर दी गई। भर्ती होते ही, श्री पीरू सिंह जी के जीवन में बदलाव आना आरंभ हो चुका था। जो उनकी सफलता के हिसाब से अनुकूल था। जो व्यक्ति बचपन में शिक्षा से इतनी घृणा करता था। उसे आज अचानक सेना की पढ़ाई सबसे प्रिय लगने लगी थी। प्रिय भी इतनी लगी कि उन्होंने सेना की शिक्षा को गंभीरता से लेते हुये, सेना में अपना स्थान, एक कुशल सैनिक की श्रेणी का बना लिया था।
सैन्य व्यक्तित्व, उन्नति-
उनकी उक्त कुशलता को देखते हुये उच्च अधिकारियों ने, उन्हें मार्च 1941 में नायक पद पर पदोन्नत कर दिया। कुछ समय उन्होंने पंजाब रेजिमेंटल सेंटर में, एक प्रशिक्षक के रूप में कार्य किया। उनके उच्च अधिकारियों द्वारा फरवरी 1942 में उनका ओहदा हवलदार का कर दिया गया। श्री पीरू सिंह का लगाव खेलों के प्रति अधिक होने कारण उन्हें अंतर रेजिमेंटल और राष्ट्रीय स्तर की चैंपियनशिप में हॉकी, बास्केटबॉल और क्रॉस कंट्री दौड़ में, अपनी ही रेजिमेंट का प्रतिनिधित्व करने का उत्तर दायित्व सौंपा गया, जो उन्होंने बखूबी से निभा कर, अपनी कुशलता का परिचय दिया। मई 1945 में उन्हें कंपनी हवलदार मेजर के लिए पदोन्नत किया गया। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद उन्हें ब्रिटिश कॉमनवेल्थ ऑक्यूपेशन फोर्स के कार्य से जापान भेजा गया। जहां उन्होंने सितंबर 1947 तक सेवा की। तत्पश्चात उन्हें राजपूताना राइफल्स की छठी बटालियन में स्थानांतरित कर दिया गया।
युद्ध, परिदृश्य स्थिति-
1948 में जम्मू कश्मीर ऑपरेशन के दौरान, पाकिस्तानी सेना ने अपने नापाक इरादों को अंजाम देते हुये, टीथवाल सेक्टर में भयानक आक्रमण कर दिया था। भारतीय सेना ने प्रतिद्वंदी के खिलाफ जवाबी कार्यवाही करते हुये अपना हमला 11 जुलाई 1948 को आरंभ कर दिया। जो कि 15 जुलाई तक निरंतर चलता रहा। इस दौरान दुश्मन ने दो पहाडिय़ों पर अपना कब्जा पूर्ण: जमा लिया था। दुश्मन वहां से छुप कर हमारे सैनिकों पर हमले लगातार कर रहा था। भारतीय सेना पर हो रहे हमलों को रोकने के लिए, पहाडिय़ों पर पूर्ण रूप से कब्जा होना अति आवश्यक था। एक पहाड़ी पर तो दुश्मन ने मोर्चा बंदी बड़ी ही मजबूती से की हुई थी। जिसे तोडऩा बहुत कठिन था लेकिन मुमकिन भी। उक्त समस्या के निदान का जिम्मा छठीं राजपुताना राईफल्स को दिया गया था। इस ऑपरेशन में श्री पीरू सिंह अपनी कंपनी की अगुवाई करने वाले मुख्य सैन्य व्यक्तित्व थे। दुश्मन का ऊंचाई से हमला करना हमारे सैनिकों के लिए मुसीबत का सबब बन चुका था, कुछ सैनिक, दुश्मन की भीषण गोला बारी में वीरगति को प्राप्त हो चुके थे व कुछ घायल अवस्था में थे। श्री पीरू सिंह जी ने बड़ी सतर्कता से दुश्मन की, चौकी की तरफ दौडऩा आरंभ कर दिया था। जो कि हमारी कंपनी पर लगातार मौत बरसा रही थी। ऐसी स्थिति में दुश्मन के बमों व गोलियों के छर्रों से श्री पीरू सिंह जी व उनके कपड़े जीर्ण शीर्ण हो चुके थे। कई जगह से चोटिल होने के कारण देश भक्ति, कर्तव्य परायणता का संकल्प का विजय पथ पर बढ़ता जा रहा था। या फिर कहे कि, अपने जीवन में कुछ कर गुजरने की तमन्ना लिये, घाव की परवाह किये बिना, श्री पीरू सिंह को संकल्पित लक्ष्य तक पहुंचने में कोई भी रोक ना सका। वह अपने सैनिकों ·का उत्साह युद्ध घोष .....श्री राम चंद्र की जय....... से लगातार बढ़ाते हुये आगे बढ़ रहे थे। जैसे ही वह पहाडिय़ो के नजदीक पहुंचे तो ऊपर से भारतीय सैनिकों पर कहर बरपा रहे, दुश्मन सैनिकों की टोलियों को श्री पीरू सिंह जी ने खत्म कर उक्त पोस्ट पर अपना कब्जा कर लिया।
तब तक, श्री पीरू सिंह जी के साथी सैनिक या तो बुरी तरह से घायल हो चुके थे या फिर वीर गति को प्राप्त हो चुके थे। ऐसी स्थिति में पहाड़ी पर पड़े दुश्मनों सैनिकों के शवों को हटाने की जिम्मेदारी, मात्र अकेले पीरू सिंह पर ही आन पड़ी थी। अधिक चोटिल होने कारण उनके शरीर से बहुत अधिक रक्त स्राव हो रहा था। श्री पीरू सिंह जी ने एक चौकी पर तो फतह हासिल कर ली थी, किंतु अब एक अभेद लक्ष्य उनके विजय पताका की प्रतीक्षा प्रतिक्षण कर रहा था। जैसे ही वो बंकर से दूसरी चौकी पर हमला करने के लिए आगे बढ़े, तभी अचानक से.... एक बम का कुछ हिस्सा उनके चेहरे पर आ लगा। उनके चेहरे व आंखों से रक्त बहाव ओर तेज हो गया। उस अवस्था में उन्हें दिखाई भी कम देने लगा। उनके पास मौजूद गोलियां भी अब पूर्ण: समाप्त हो चुकी थी। ऐसी मुश्किल घड़ी में फिर भी उन्होंने अपने हौसले को, ओर बुलंद करते हुये, रेंगते हुए, बंकर से बाहर निकले व दूसरे बंकर पर बम फेंकने लगे। श्री पीरू सिंह दुश्मन के ही अन्य बंकर में कूद पड़े। दो दुश्मन सैनिकों को बंदूक के चाकू से मार गिराया. जैसे ही पीरू सिंह जी ने तीसरे बंकर पर बम फेंका, उन के सिर में एक गोली आ लगी, तभी सामने वाले बंकर में एक भयंकर धमाका हुआ, जिस से साबित हो गया की पीरू सिंह जी ने जो बम फेंका था, उसने अपना कार्य पूर्ण कर दिया। किंतु तब तक पीरू सिंह के घावों से बहुत अधिक रक्त बह जाने के कारण वो शहीद हो गए। उन्हें कंवर फायर दे रहे कंपनी कमांडर ने यह दृश्य अपनी आंखों से देखा।
सैन्य व्यक्तित्व -सम्मान-
जिस हौसले से उन्होंने अपना रण कौशल प्रदर्शित किया, शायद इतिहास में पहले ऐसा कभी ना हुआ हो। उन्हें मरणोपरान्त परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। ताकि भावी पीढिय़ां उन्हें अपना आदर्श स्वीकार कर, देश सुरक्षा निर्माण में अपना अहम योगदान अदा कर सके। संबंधित लेख भी पढ़े https://www.hindisahityadarpan.in/2019/04/lance-naik-yadunath-singh-paramveer-chakra.html
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लेखक-अंकेश धीमान
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लेखक-अंकेश धीमान
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